शेष नारायण सिंह
लदाख में हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं . चूशुल में कोर कमांडर स्तर की बातचीत बेनतीजा रही है .सेना के सूत्रों के हवाले से अखबारों में खबर छपी है कि 15 कोर के कमांडर ले. जनरल हरिंदर सिंह और चीनी कमांडर मेजर जनरल लिउ लिन के बीच हुई ग्यारह घंटे की बातचीत में यह तय पाया गया कि स्थिति को सामान्य बनाने के लिए सेना और राजनयिकों के बीच आगे भी बातचीत की ज़रूरत है . साधारण भाषा में इसका अनुवाद यह है कि चूशुल की बातचीत में दोनों ही पक्ष अपनी घोषित पोजीशन पर अड़े रहे और किसी भी निर्णय पर नहीं पंहुचे. बातचीत में इस बात पर जोर दिया गया कि क्रमबद्ध तरीके से बढे हुए तनाव को कम करना सबसे ज़रूरी प्राथमिकता है . बातचीत शुरू होने के पहले भी यही प्राथमिकता थी यानी इस बातचीत से तनाव की कमी के कोई संकेत नहीं आये हैं . इस बातचीत के बाद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना प्रमुख हालात का जायजा लेने शुक्रवार को लदाख में हैं .वे वहां तैनात सैनिकों का उत्साहवर्धन भी करेंगे .अभी तक की बातचीत से किसी तरह की सहमति नहीं बनी है . सेना के सूत्र बताते हैं कि सैनिकों को पीछे हटाने की प्रक्रिया बहुत ही पेचीदा होती है और उसमें समय लगता है . इस बातचीत से एक बात तो साफ़ हो गयी कि चीन ने पैनगोंग झील और डेस्पांग में जिस भारतीय क्षेत्र पर अनधिकृत कब्ज़ा कर लिया है, वह वहां से हटने को तैयार नहीं है .यह दो इलाके ऐसे हैं जहां दोनों ही पक्ष नियंत्रण रेखा ( एल ए सी ) की अलग अलग परिभाषा करते हैं . अभी फिलहाल कोशिश यह है कि ऐसी स्थिति बनाये रखी जाय जिससे 15 जून को गलवान घाटी में हुयी घटना की पुनरावृत्ति को रोका जा सके जिसमें भारत की बीस वीर सैनिक शहीद हो गए थे और चालीस से ऊपर चीनी सैनिकों ने अपनी जान गंवाई थी. बातचीत में भारत की तरफ से 6 जून को हुई सहमति को लागू करवाने की कोशिश की गयी लेकिन चीनी रवैया ऐसा था जिसके कारण उस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो सकी. उलटे चीन के कब्जे वाले क्षेत्र में उनकी सेना के बढ़ रहे जमावड़े से इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि तनाव का माहौल लम्बा खिंच सकता है.
चूशुल की बातचीत में कोई नतीजा न निकलने और रक्षामंत्री की लदाख यात्रा के बाद सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तनाव बढ़ रहा है . भारतीय मीडिया में रिटायर्ड फौजी अफसरों की युद्ध युद्ध की चीख भी बढ़ रही है . मीडिया की कृपा से देश में भी युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है . पाकिस्तान ने भी कश्मीर में नियंत्रण रेखा के उस पार करीब बीस हज़ार अतिरिक्त सैनिक तैनात कर दिया है . पाक अधिकृत कश्मीर में बनाये गए पाकिस्तानी एयर फोर्स के स्कार्डू बेस पर भी गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं . गिलगित बाल्टिस्तान में भी पाकिस्तानी सेना सक्रिय कर दी गयी है . सबको मालूम है कि पाकिस्तान की जर्जर अर्थव्यवस्था किसी मामूली युद्ध को भी नहीं झेल सकती लेकिन अपने आका चीन के हुक्म से सीमा पर युद्ध का माहौल बनाने की उसकी कोशिश को कूटनीतिक और सैनिक मामलों के जानकार अच्छी तरह से समझ रहे हैं .इस बीच एशिया में चीन के खिलाफ अपने को मजबूत दिखाने के चक्कर में अमरीका भी चीन और भारत को आमने सामने लाने के लिए बेताब दिख रहा है . ऐसा लगता है कि अमरीका की कोशिश है कि नए शीत युद्ध की अगर संभावना बनती है तो भारत उसके साथ रहे. भारत के नेताओं को समझ लेना चाहिए कि किसी भी संभावित शीत युद्ध में भारत का किसी भी तरफ होना उसके हित में नहीं है . जवाहरलाल नेहरू की निर्गुट विदेशनीति को जिंदा करने की कोशिश की जानी चाहिए .चीन के 59 ऐप बंद करके भारत ने चीन को यह संकेत दे दिया है कि अगर उसने सीमा पर तनाव कम नहीं किया तो उसको आर्थिक रूप से नुकसान पंहुचाया जा सकता है . ऐप बंद करने का असर भी चीन पर पड़ा है. चीन की सरकार की सोच को बताने वाले अखबार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत को चाहिए कि वह सीमा विवाद को व्यापारिक संबंधों को जोड़कर न देखे . ज़ाहिर है चीन अपने व्यापार को नुक्सान नहीं पंहुचाना चाहता . लेकिन भारत में चीन के खिलाफ बन रहे माहौल के मद्देनज़र चीन को अपने कारोबारी पार्टनर के रूप में को रखना केंद्र सरकार के लिए असंभव होगा. शायद इसीलिये चूशुल में बातचीन के नाकाम होने के बाद केंद्रीय सड़क परिवहन, राजमार्ग और एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि अब देश में सड़क बनाने के लिए ऐसी किसी भी कम्पनी को ठेका नहीं दिया जाएगा जिसमें किसी चीनी कंपनी का कोई हिस्सा होगा. उन्होंने कहा कि ''हमलोगों ने ये स्टैंड लिया है कि अगर चीनी कंपनियां ज्वाइंट वेंचर्स के ज़रिए हमारे देश में आना चाहती हैं तो हम इसकी भी अनुमति नहीं देंगे.'' ऐसा लगता है कि नितिन गडकरी का यह बयान भी चीन को सन्देश देने के लिए ही है क्योंकि उन्होंने पी टी आई को दिए गए इसी इंटरव्यू में संकेत दिया कि फ़िलहाल केवल कुछ ही प्रोजेक्ट्स ऐसे हैं जिनमें चीनी कंपनियां हिस्सेदार हैं लेकिन उनको ये टेंडर बहुत पहले दे दिया गया था और काम लगभग पूरा होने वाला है . उन्होंने कहा कि चीनी कंपनियों के बारे में लिया गया फैसला मौजूदा और भविष्य के ठेकों पर लागू होगा. इसके पहले संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी घोषित कर दिया था कि चीन के ऐप बंद करने के बाद उनके अन्य व्यापारिक हितों की समीक्षा भी की जायेगी .
कुल मिलाकर भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति है . टीवी चैनलों की बात जाने दें तो सरकार भी यही चाहती है कि युद्ध को टाला जाय . भारत सरकार को मालूम है कि अपने देश की अर्थव्यवस्था अभी विश्व की महत्वपूर्ण ताक़त बनने की दिशा में बढ़ रही है . कोविड-19 के चलते देश के उद्योग धंधे बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं. अनलॉक की प्रक्रिया के तहत कारोबार को फिर से शुरू करने की कोशिश की जा रही है लेकिन बहत सारे लोगों के रोज़गार ख़त्म होने के कारण खाद्य सामग्री के अलावा किसी और चीज़ की मांग बाज़ार में नहीं है. मांग नहीं होगी तो कारखाने चालू करने से भी क्या फ़ायदा होगा. केंद्र सरकार ने नीतियों में ज़रूरी बदलाव करके ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की है कि भारत में मैन्युफैक्चरिंग का हब बनाया जा सके. यूरोप और अमरीका में आबादी का बड़ा हिस्सा यह मानता है कि कोरोना की बीमारी को चीन ने जानबूझ कर दुनिया के सर पर लादा है . पश्चिमी देशों में चीन के खिलाफ बहुत बड़ा जनमत बन गया है .वहां की बहुत सारी कम्पनियां अभी तक चीन में अपने माल का उत्पादन करवा रही हैं . अब माहौल ऐसा है कि पश्चिमी देशों की कम्पनियां चीन से मैन्यूफैक्चरिंग हटाने की बात सोच रही हैं . भारत में उम्मीद की जा रही है कि अब वे कम्पनियां अपने मैन्यूफैक्चरिंग बेस भारत में बना दें . श्रम क़ानून और अन्य कानूनों में बदलाव करके भारत सरकार ने रास्ते भी खोले हैं . जब से नरेंद्र मोदी आये हैं तब से मेक इन इण्डिया जैसे कार्यक्रमों के आधार पर भारत सरकार ने प्रयास भी किये है . विदेशी पूंजी निवेश का वातावरण भी बनाया गया है लेकिन अभी अमरीकी कंपनियों ने भारत में मैन्यूफैक्चरिंग के लिए कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखाया है . उसका एक कारण तो शायद यहाँ की साम्प्रदायिक सद्भाव की स्थिति ज़िम्मेदार है.क्योंकि देखा यह गया है कि चीन से जो भी कारखाने अमरीकी और यूरोपीय कंपनियों ने हटाये हैं , वे ज़्यादातर वियतनाम, ताइवान, फिलिपीन्स ,बंगालादेश , दक्षिण कोरिया आदि की तरफ ही गए हैं क्योंकि वहां किसी तरह का साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं है . भारत को उसमें कोई महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं मिला है. इन देशों की अर्थव्यवस्था छोटी है , वह बड़ी मैन्यूफैक्चरिंग के कारखानों को ठीक से सम्भाल नहीं पायेंगे .इसलिए भारत में कारखाने लगने की भारी संभावना है . इस बीच अगर युद्ध की स्थिति बनती है तो हालात बहुत बिगड़ जायेंगे . क्योंकि किसी युद्ध के बाद अर्थव्यवस्था का चौतरफा नुक्सान होता है .उसको संभालने के लिए अतिरिक्त संसाधनों और पूंजी की दरकार होती है . युद्ध के बाद ससाधनों पर पर पडी मार को संभालने में बहुत समय और परिश्रम करना पड़ता है. जब भी देश को युद्ध से गुज़रना पड़ा तो देश के संसाधन प्रभावित हुए हैं . चीन के सन 62 के युद्ध के बाद तो देश की पूरी आर्थिक सोच ही बदल गयी थी. जब जवाहरलाल नेहरू औद्योगिक विकास की बुलंदियां तय कर रहे थे, उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम खनिज संपदा के केन्द्रों पर उस खनिज से बनने वाले औद्योगिक उत्पाद के कारखाने लगा रहे थे ,उसी बीच चीन का हमला हो गया . सन 62 के उस हमले के बाद उन्होंने देश के विकास की प्राथमिकताओं को बदल दिया . आन्ध्र प्रदेश विधानसभा के संयुक्त अधिवेशन में 27 जुलाई 1963 को दिया गया उनका भाषण देश के विकास के अभियान को तय करने की दिशा में मील का पत्थर माना जाता है. आज़ादी के बाद से ही जवाहरलाल औद्योगीकरण को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहे थे . उनको लगता था कि चीन से दोस्ती के चलते भारत पर उस तरफ से कोई हमला नहीं होने वाला है . जैसी दोस्ती आज के चीनी नेता , शी जिनपिंग से हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री की है उसी तरह की दोस्ती नेहरू की चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई से थी . लेकिन हमला हुआ और देश की अर्थव्यवस्था पार भारी असर पडा . उसके बाद नेहरू की देश के विकास के प्रति सोच बदल गयी क्योंकि देश की गरीब आबादी को भोजन की सुविधा भी नहीं थी. उन्होंने आन्ध्र प्रदेश विधानसभा के अपने भाषण में देश के आर्थिक विकास की भावी दिशा की बुनियाद रख दी . उन्होंने कहा कि," मैं उद्योगों के पक्ष में हूँ, स्टील प्लांट आदि लगते रहेंगे लेकिन मैं जोर देकर कहता हूँ कि खेती का महत्व उद्योगों से बहुत ही अधिक है " ( जवाहरलाल नेहरू , ए बायोग्राफी ,लेखक डॉ एस गोपाल अंक 3 ,पृष्ठ 242). उसके पहले नेहरू की सोच यह थी कि एक बार देश औद्योगिक मामलों में आत्मनिर्भर हो जाए, विदेशों पर निर्भरता ख़त्म हो जाए तो खेती को उसी जोश से सघन विकास का माध्यम बनाया जा सकेगा . लेकिन चीन के युद्ध ने उनकी सुविचारित सोच को भी बदल दिया .
आज देश आर्थिक विकास के नए माडल के सहारे चल रहा है . उसमें बहुत सारी बाधाएं आई हैं. नोटबंदी और जी एस टी की जल्दबाजी में की गयी घोषणा के कारण आर्थिक विकास का पहिया कमज़ोर पड़ा है . कोविड-19 के कारण भी अर्थव्यवस्था को बहुत बड़ा घाटा हुआ है , बहुत बड़े पैमाने पर मानवीय कष्ट की स्थिति है. अगर इसी समय एक युद्ध की भी नौबत आ गयी तो आर्थिक विकास अवरुद्ध होगा. सरकार को चाहिए की युद्ध की स्थिति से बचने के लिए चीन से विवाद को सेना के ज़रिये नहीं , कूटनीतिक रास्ते से हल करने की कोशिश करे क्योंकि अगर जंग टलती रहे तो बेहतर है .
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