Thursday, July 9, 2020

कानपुर में अपराधी ने पुलिस वालों की हत्या करके लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को चुनौती दी है



शेष नारायण सिंह

कानपुर  जिले के चौबेपुर  पुलिस थाने के  एक गाँव में अपना काम करने गए पुलिस वालों पर  हुए जानलेवा हमले ने अपराध राजनीति, पुलिस , राजकाज और कानून व्यवस्था से जुड़े बहुत सारे मामलों को एक बार  फिर बहस के दायरे में ला दिया है .   अपराधी तत्वों ने दबिश देने गयी पुलिस पार्टी पर हमला किया .इस हमले में आठ पुलिस वालों की मृत्यु हो गयी और सात घायल अवस्था में अस्पताल में हैं  . पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से अपराधियों के हौसले  बढे हैं उसमें इस तरह की  घटनाओं से ताज्जुब नहीं होता लेकिन चौबेपुर की घटना में पुलिस वालों ने जिस तरह से अपने लोगों के खिलाफ अपराधी की मुखबिरी की वह  बहुत बड़ी अनहोनी है. चौबेपुर थाने के इंचार्ज दरोगा ने अपने ही साथियों  को एक वांछित अपराधी के जाल में धकेल दिया .  अजीब बात यह है कि उस दरोगा के ऊपर बड़े अफसरों के हाथ होने की बात के भी सबूत मिलना शुरू हो गए हैं . अब उस दरोगा को गिरफ्तार करके आगे की जाँच का काम शुरू हो चुका है .  चौबेपुर थाने में तैनात सभी पुलिस कर्मचारियों को थाने से हटा लिया गया है और सभी संदेह के घेरे में  हैं . कानपुर महानगर के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को भी जांच एजेंसियां  शक के घेरे में ले चुकी हैं. उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जिले का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी होता है . जिले का पुलिस प्रशासन  , कानून व्यवस्था सब उसकी सीधी ज़िम्मेदारी होते हैं . खबरें तो यह भी आ आ रही  हैं कि चौबेपुर हत्याकांड का सरगना विकास दुबे जिले के आला पुलिस अधिकारी का  कृपापात्र था . शायद इसीलिये उस अधिकारी की भूमिका भी संदेह का विषय है .पता चला है कि प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी समेत कई पार्टियों के नेताओं से  पांच लाख रूपये के इनामी बदमाश विकास दुबे के क़रीबी सम्बन्ध हैं .
विकास  दुबे को बचाने के लिए लखनऊ के ताक़तवर लोगों का एक वर्ग सक्रिय हो गया है. इतने दुर्दांत  अपराधी के पक्ष में खड़े इन लोगों की  मौजूदगी ही इस बात का सबूत है कि उत्तर प्रदेश में अपराध, राजनीति, भूमाफिया, पुलिस ,पत्रकारिता और नौकरशाही का सब घालमेल हो गया है . यह मामला केवल उत्तर प्रदेश का नहीं है .कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो  स्वयं ही कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैंकई मंत्रियों पर हत्यालूटडकैतीबलात्कारआगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन वे सरकार में  बने हुए हैं क्योंकि  लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता हैवही सरकार होता है।अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह सोचा ही नहीं रहा होगा  कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी
पिछले चालीस साल के देश के चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ  जाएगा की हमारे संविधान के निर्माताओं और स्वतन्त्रता  संग्राम के सेनानियों की यह उम्मीद पूरी नहीं हुयी .  जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि विधानसभाओं  में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। इन अपराधियों के पौ बारह तब  हो गए जब गठबंधन की सरकारें बनने लगीं . हर विधायक के वोट की कृपा पर सरकारें आश्रित हो गयीं . ऐसी  हालत में राजकाज  का स्तर बुरी तरह से प्रभावित हुआ . अपराधी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुलिस से ही होता था. लेकिन जब उसी अपराधी की सरकार बन गई तो  पुलिस पर धौंसपट्टी का काम शुरू हो गया .नतीजा यह हुआ कि पुलिस उन अपराधी राजनेताओं की चेरी बन गई . पुलिस अपनी  सेवा की शर्तों के हिसाब से काम नहीं कर सकी . सबको मालूम है कि जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान का पालन करने की शपथ लेता है ,किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से पुलिस के कुछ लोग अपराधी-नेता के साथ संलिप्त हो गए और ऐसे ऐसे  काम करने लगे जो अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आते हैं।


अपने देश के  कई   राज्यों में में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण  लिया जा सकता है .राज्य में पुलिस की लीडरशिप को कमज़ोर करने का सिलसिला  तब शुरू हुआ जब बहुत बड़ी संख्या में अपराधी लोग  विधायक बन गए. यह काम 1980 के विधानसभा चुनाव के बाद शुरू हुआ था . 1977 में जब उत्तर  भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया तो बहत बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ गए . नतीजा या हुआ कि कांग्रेस ने हर इलाके के प्रभावशाली लोगों को साथ ले लिया और उनको टिकट भी दिया . उन प्रभावशाली लोगों में अपराधी भी बड़ी संख्या में थे . 80 के चुनाव में उत्तर भारत में फिर कांग्रेस की ज़बरदस्त वापसी हुई . इन नेताओं ने  राजकाज और गवर्नेंस के स्तर को बहुत नीचे  गिराया . अपराध की परिभाषा में भी ज़बरदस्त बदलाव हुआ.  अपराध की पृष्ठभूमि से आये नेताओं की पुलिस प्रशासन से उम्मीदें अलग तरह की थीं .  इसलिए अपराध  कम करने के लिए इंगेजमेंट के नियमों की धज्जियां उड़ने लगीं . अपराध को खतम करना प्राथमिकता की सूची से खिसक गया और  अपराधियों को खत्म करना  प्राथमिकता हो गया . वह अपराधी आम तौर पर सत्ताधारी नेता के दुश्मन हुआ करते थे.  अपराधियों को ख़त्म करने के लिए नए तरह के प्रयोग होने लगे .फर्जी मुठभेड़ का सहारा लिया जाने लगा . कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाने का रिवाज़ शुरू हो गया .पुलिस सिस्टम में नई  परिपाटी भी शुरू हो गयी . आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर शुरू हो गयी . इसके तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।

 लेकिन अब माहौल बदल चुका  है .अब पुलिस में कुछ ऐसे लोग भर्ती हो गए  हैं जिनको आउट ऑफ़ टर्न  प्रमोशन नहीं चाहिए . वे सीधे अपराधी से मिलकर धन इकठ्ठा करते हैं और अपराध से मिलने वाली कमाई के ज़रिये ऐश  करते हैं . उनकी  इस मानसिकता के कारण देश की राजकाज की पद्धति खतरे के दायरे में आ चुकी है . इससे बचने की ज़रूरत को सर्वोच्च प्राथमिकता  दी जानी चाहिए वरना देश क्रिमिनल  गवरनेंस  कि लपेट में आ जाएगा  जो देश के लिए बहुत ही चिंता की  बात है .कुछ देश  क्रिमिनल  गवर्नेंस के बोझ के नीचे आ चुके हैं और अपने देश को तबाह कर चुके हैं .  संयुक्त राष्ट्र में भी इस मामले पर चिंता  जतायी जा चुकी है . संयुक्त राष्ट्र में दुनिया के देशों में अपराधहीन समाज की स्थापना के कार्यक्रम में जिस बात  पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है वह यह है कि सत्ता की बाग़डोर अपराधियों के हाथ में न जाने पाए . कुछ वर्ष पहले तक अफगानिस्तान की तालिबान और कोलंबिया के नशे और ड्रग के कारोबार वाले लोगों की सत्ता को क्रिमिनल गवर्नेस के उदाहरण के तौर पर बताया जाता था. लेकिन अब यह  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस ‘ वाली बात पूरी दुनिया में फैल रही है . पाकिस्तान में भी जिस तरह से उदारवादी विचारों वाले लोगों को चुन चुन कर  मारा  जा रहा  हिया ,उस से साफ़ संकेत मिलते हैं कि अब पाकिस्तान में भी  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस का राज आ चुका है . धार्मिक बुनियाद पर जिस तरह से पाकिस्तानी फौज़ का अपराधीकरण हुआ है ,वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है . अफ्रीका के ज्यादातर देश इसी  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस ' के शासन के शिकार हुए हैं . लेकिन यह बात देखना ज़रूरी है कि सत्ता एक दिन में अपराधी नहीं हो जाती . उसके  लिए ज़रूरी है कि  जनता कई दशक तक इस बात से बेफिक्र रहे कि कौन राज करने आ रहा है . कोई नृप होइ हमैं  का हानी की मानसिकता देश में अपाधियों को सत्ता के केंद्र में ला देती है .उत्तर प्रदेश के चौबेपुर थाने का  हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे इसी मानसिकता की पैदावार है .  साठ के दशक तक अपराधी चोरी छुपे नेताओं के यहाँ जाते थे. उनका सबसे बड़ा काम यह होता था कि मुकामी दरोगा से यह कह दिया जाय कि जब वह अपराधी पकड़ा जाय तो उसकी पिटाई न हो . लेकिन सत्तर के दशक में अपराधियों की भर्ती भी शुरू हो गयी. नतीजा यह हुआ कि जो अपराधी नेता के पीछे रहता था ,वह आगे आ गया और असली नेताओं को अपने टिकट के लिए उसी अपराधी के दरबार में हाजिरी देनी पड़ने लगी . अपराधी  प्रवृत्ति के लोग सत्ता के केंद्र में हैं और हर पार्टी में हैं .  पिछले तीस वर्षों के  अपराधों में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने की घटनाओं पर एक नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि देश की राजनीति क्रिमिनल  गवर्नेंस की दिशा में तेज़ी से  बढ़ रही है . जरूरत इस बात की है कि इस देश का बहुत बड़ा मध्य वर्ग सामने आये और  अपने भविष्य को सुधारने के यज्ञ में शामिल हो जाए. राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने का सबसे आसान तरीका यह है कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी किसी अपराधी को जिताऊ उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारे तो उसको हरा दे . लेकिन इसके लिए  जाति, धर्म  आदि को भुलाकर योग्य उम्मीदवार को चुने . आगर ऐसा न हुआ तो सत्ता में बैठे आपराधिक  पृष्ठभूमि के राजनेता अपराधियों के ज़रिये आतंक का राज कायम करने में सफल होंगे और देश का बहुत नुक्सान होगा .

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