Wednesday, July 22, 2020

युद्ध पर आमादा चीन को बंदूकों से नहीं उसकी अर्थव्यवस्था की तबाही की योजना से जवाब दिया जाना चाहिए


शेष नारायण सिंह 
पिछले तीन महीने  से चीन की सेना ने  लदाख में नियंत्रण रेखा ( एल ए सी ) पर छेड़खानी शुरू कर दिया है .चीन  वहां भारत की ज़मीन में घुस आना  चाहता है . उसके दुस्साहस का नतीजा यह हुआ कि जून में दोनों देशों के सैनिक बिलकुल आपने सामने आ गए और मारपीट हुयी . भारत के करीब बीस सैनिक शहीद हुए जबकि चीन के  सैनिक भी बड़ी संख्या में मारे गए .. उसके बाद से कई बार बातचीत हो चुकी है . सैनिक अफसरों की बात चीत का सिलसिला लगातार जारी  है.  कूटनीतिक प्रयास भी हुए हैं . लेकिन लगता है कि चीन अपनी बात पर अड़ा रहना चाहता है.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लदाख हो आये हैं और रक्षामंत्री का भी दो दिन का  दौरा हो चुका है .पिछले हफ्ते लदाख में उन्होंने  भारतीय सैनिकों की हौसला अफजाई की और कहा कि चीन ने जो हालात  पैदा कर दिए गए  हैं उसको हल करने की कोशिश चल रही है . रक्षामंत्री ने कहा कि इस विवाद को हल करने के लिए चीन से बातचीत का सिलसिला जारी  है . विवाद का हल निकलने की उम्मीद है लेकिन  गारंटी नहीं दी जा सकती . रक्षामंत्री ने कहा कि ,”  मैं इतना यकीन दिलाना चाहता हूं कि भारत की एक इंच जमीन  भी  दुनिया की कोई भी ताकत छू नहीं सकती ,उसपर क़ब्ज़ा नहीं का सकती .”  राजनाथ सिंह ने कहा कि , “हम शांति चाहने वाले लोग हैंअशांति नहीं चाहते . भारत ने पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिया है. उन्होंने यह भी दावा किया कि  सीमा पर दुश्मनों की किसी भी चाल का जवाब देने के लिए भारत पूरी तरह तैयार हैं. मामला ख़ासा पेचीदा हो गया है . चीन ने  भारत के क्षेत्र में  अपनी सेना को आगे तैनात करके अपनी मंशा को साफ़ कर दिया है . भारत की सेना तैयार थी इसलिए चीनी सैनिक ज़्यादा आगे नहीं बढ़  सके . बुधवार को भी  रक्षामंत्री ने चीन को सख्त सदेश दिया . राजनाथ सिंह दिल्ली में वायुसेना के कमांडरों के सम्मलेन में बोल रहे थे . उन्होंने  कहा कि वायुसेना ने जिस तरह से एलएसी के फॉरवर्ड लोकेशन पर अपने युद्धक विमान तैनात किए हैंउससे दुश्मन  को  संदेश मिल चुका है. रक्षामंत्री ने दावा किया कि  चीन से एलएसी पर तनाव कम करने की बात चल  रही है लेकिन भारत की  वायुसेना को किसी भी हालत के लिए पूरी तरह तैयार रहना होगा.
जानकारों का कहना है कि चीन की नीयत साफ़ बिलकुल नहीं  है . यह बात भारत सरकार को भी पता है इसलिए देश की सेना को किसी भी संभावना का सामना करने के लिए तैयार रहना पडेगा .  चीन ने १९६२ में भी इसी तरह का माहौल बनाया था लेकिन उसकी मंशा भारत के इलाके को क़ब्ज़ा करने की थी. सेना के अवकाश प्राप्त अधिकारी  इस बात का भरोसा बार बार दिलवा रहे  हैं कि भारत  की हालत अब १९६२ वाली नहीं है .  देश की फौज तैयार है और चीन ने अगर १९६२ वाली गलती की तो उसको माकूल जवाब दिया जाएगा . पूर्व सेना प्रमुख जनरल जे जे सिंह ने  एक टेलिविज़न डिबेट में बताया कि  वुहान  से शुरू हुए कोरोना वायरस के आतंक और उसके कारण पैदा हुए माहौल के बाद दुनिया के ज्यादातर देश भारत के साथ खड़े हैं . लेकिन यह  अति आशावाद है क्योंकि युद्ध की स्थति में कोई भी देश  समर्थन तो करेगा लेकिन उसके सेनाएं युद्ध करने नहीं आयेंगी .अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी .
इस बीच भारत ने अमरीका से सामरिक संबंधों को बढाने की ज़बरदस्त पेशकश  शुरू कर दिया  है . इस बात की संभावना बहुत ज्यादा हो गयी  है कि चीन के हठधर्मी आचरण के मद्देनज़र अमरीका से सेना के स्तर पर  दोस्ती तो ज़्यादा होगी लेकिन यह बात  पक्की है कि अमरीकी सेना भारत के किसी भी सैनिक अभियान में साथ नहीं  रहेगी . अमरीकी  राष्ट्रपति ट्रंप बार बार भारत को भरोसा दे रहे हैं कि वह चीन और भारत के विवाद में भारत के पक्ष को सही मानते हैं लेकिन उनके लिए भी भारतीय सेना के साथ अपनी सेना को युद्ध में उतारना असंभव होगा . अमरीका  आर्थिक और सैनिक रूप से एक मज़बूत देश है लेकिन उनके लिए चीन के खिलाफ संभावित युद्ध में भारत के साथ मिलकर लड़ने के लिए सेना  भेजना संभव नहीं होगा. पिछले पचास वर्षों में जहां भी अमरीकी सेना गयी है कुछ साल के बाद भागने के रास्ते  तलाशना पड़ा है . वियतनाम में  चीन की हार को न तो अमरीका के नीतिनिर्धारक भूले  हैं और न ही  दुनिया ने उसको भूलने दिया है . इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता को उखाड़ने गए अमरीकी  सैनिकों को आठ साल तक वहां रखने के बाद  जिस तरह से तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने निकाला था उसको अमरीकापरस्त लोग जीत मानते हैं लेकिन वह  जीत नहीं थी . अमरीका  की सेनाओं के बार बार मुंह की खाने के कारण वहां के रक्षा व्यवस्था के करता धरता यह नहीं  चाहते कि उनकी सेना किसी लफड़े में पड़े .वैसे भी अमरीका ने कभी किसी देश के साथ सम्बन्ध ईमानदारी से सही नहीं निभाया  है . वह किसी भी देश को अपने हित में  इस्तेमाल करता  है . अगर  भारत अमरीका से कोई भी मदद लेगा तो उसकी कीमत बहुत ही भारी पड़ेगी . ज़ाहिर  है भारत अपनी विदेशनीति में ऐसा कोई बड़ा बदलाव नहीं चाहेगा जिसके चलते एशिया की सारी भू राजनीतिक परिस्थितियाँ  ही बदल जाएँ .
अमरीका के किसी सामरिक सहयोग के बिना ही भारत को  चीन से विवाद की समस्या को हल कर लेना चाहिए . आज के अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वैसे भी अस्थिर चित्त के व्यक्ति हैं और उनके दुबारा राष्ट्रपति  चुने जाने की सम्भावना बहुत ही कम है . जितने भी  चुनाव पूर्व सर्वे वहां हो रहे हैं सब में ट्रंप को पिछड़ता हुआ दिखाया  जा रहा है . यहाँ तक कि उनका पालतू टीवी चैनल फॉक्स न्यूज़ भी अपने उनके हारने की भविष्यवाणी कर रहा है .उनकी ऊलजलूल  हरकतों की रोशनी में यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा कि  उनके किसी बड़े राजनीतिक फैसले अगला राष्ट्रपति सम्मान देगा .ऐसी हालत में चीन से समस्या के निदान के लिए कूटनीतिक तरीके ही अपनाना ठीक होगा . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी विदेशनीति को चीन विरोध के ऐसे सांचे में फिट कर दिया है कि चीन पर उनका कोई भी  नैतिक दबाव नहीं पड़ने वाला है .  चीन के विरोध की आदत  विकसित कर चुके डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के नतीजा ही है कि चीनी राष्ट्रपति , शी जिनपिंग आज एशिया के कई देशों  में  सम्मान के हकदार बन गए हैं . अगर ट्रंप की शेखचिल्ली नीतियों पर ही अमरीका चलता  रहा तो वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र, अफ्रीका और लातीनी अमरीका में अपना प्रभाव गँवा देगा . सबको मालूम है कि इन क्षेत्रों में चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा  है और वहां प्रभाव जमाने के लिए प्रयत्नशील है . आज चीन अमरीका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है . उसकी  कोशिश है कि वह अमरीका को भी पीछे छोड़कर सम्पन्नता में दुनिया में नंबर एक पर पंहुच जाय . एक कम्युनिस्ट देश का पूंजीवादी दुनिया में प्रवेश और वहां मजबूती  से जमने के पीछे बड़े पैमाने पर राजनीतिक सोच में बदलाव है .इस सोच के बदलाव में डेंग श्याओपिंग की आर्थिक समझ का बड़ा योगदान है . डेंग ने १९७८ में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च पद हासिल किया था . उसी समय से वे अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव  के लिए नीतिगत फैसले  ले रहे थे .  उनकी दूरदर्शी सोच का नतीजा था  कि चीन आज अमरीका से टक्कर ले रहा  है . उन दिनों  चीन से बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था सोवियत यूनियन की थी लेकिन वह १९९० के आसपास तबाह हो गयी . सोवियत यूनियन का विघटन हो गया. पूर्वी  यूरोप के कम्युनिस्ट  देशों से कम्युनिस्ट शासन प्रणाली समाप्त हो गयी चीन एक बड़ी  अर्थव्यवस्था बनने के रास्ते पर चल पड़ा था . डेंग ने  बाकी दुनिया से निवेश के  लिए चीन के दरवाज़े खोल दिए थे. नतीजा यह है कि आज अमरीका की सबसे बड़ी कंपनियों के लिए सामान बनाने वाले कारखाने  चीन में हैं.
कोरोना के बाद चीन चीन से दुनिया का मोहभंग हो रहा है .आमतौर पर माना जा रहा है कि चीन से आया कोरोना वास्तव में चीन की रणनीति का एक हिस्सा है . कोरोना के बाद  विश्व के  सभी विकसित देश प्रभावित हुए  हैं. एशिया के देशों में भी  भारी आतंक है लेकिन चीन के वुहान प्रांत से शुरू होने वाले कोरोना से चीन में उतना नुक्सान नहीं हुआ जितना अमरीका और यूरोप में हुआ है . इस बात में दो राय  नहीं है कि कोरोना के बाद की दुनिया बिलकुल अलग  होगी. बहुत सारी  अमरीकी कम्पनियां चीन से अपने कारखाने हटाने की बात कर रही हैं .  मझोले स्तर के उद्योग तो हटाभी चुके हैं लेकिन ज़्यादातर कारपोरेट  कंपनियों ने ताइवान, वियतनाम आदि देशों में  कारखाने लगाये हैं . अभी भारत का नम्बर  नहीं आया  है. २२ जुलाई को आइडिया फॉर इण्डिया मंच पर अपने भाषण में  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अमरीकी निवेशकों का आवाहन किया कि वे भारत में अपने कारखाने लगाएं . उन्होंने देश में हो रही आर्थिक विकास की गतिविधियों का विस्तार से  उल्लेख किया . उम्मीद की जा रही  है कि अमरीकी निवेश बड़े पैमाने पर भारत में  होगा . लेकिन विदेशी निवेश के लिए ज़रूरी है कि देश में  तनाव युक्त माहौल न रहे , चौतरफा शान्ति रहे .  भारत इस मामले में कमज़ोर है . अयोध्या आन्दोलन के नाम पर बने हुए संगठन पूरे देश में फैले हुए हैं  . वे राष्ट्रवादी नारे  लगाते हैं लेकिन विरोधियों में  आतंक फैलाते हैं . इन लोगों पर अगर कंट्रोल कर लिया जाए  तो उत्तर-कोरोना युग में  भारत में वह निवेश शिफ्ट हो सकता है .चीन से उद्योग धंधे बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं . उनका एक हिस्सा अगर   भारत में आ गया तो चीन पर  मर्मान्तक प्रहार होगा और बिना युद्ध किये  ही चीन को औकात पर लाया  जा सकेगा . अगर आर्थिक शक्ति के रूप में चीन कमज़ोर पडा तो लदाख में एल ए सी पर चीनी सेना की घुसपैठ की हिम्मत नहीं   पड़ेगी . एक कमजोर अर्थव्यवस्था वाला चीन युद्ध से बचना भी चाहेगा . युद्ध से  भारत को भी बचना चाहिए क्योंकि युद्ध हुआ तो अर्थव्यवस्था का  बड़ा  नुक्सान होगा और उससे बचना चाहिए .

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