दिल्ली चुनाव पर लाख टके का सवाल-सरकार के काम पर जीत होगी या भावनात्मक मुद्दों पर
शेष नारायण सिंह
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट की घोषणा हो गयी .सब को पता रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद कोई धार्मिक प्रोजेक्ट नहीं था , वह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था. उस विवाद के कारण उसका सञ्चालन करने वालों को भारी राजनीतिक लाभ भी मिला . बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आर एस एस की जो मूल योजना थी वह मनोवांछित फल दे चुकी है. आज केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आर एस एस के राजनीतिक संगठन ,बीजेपी की सरकार है. यह सफलता एक दिन में नहीं हासिल मिली है . १९४६ में मुहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आवाहन के बाद जब पंजाब और बंगाल में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए तो आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने दंगाग्रस्त इलाकों में हिन्दुओं की बहुत मदद की थी . उनकी लोकप्रियता अविभाजित पंजाब और बंगाल में बहुत ही ज़्यादा थी . उन दिनों आर एस एस का अपना कोई राजनीतिक संगठन नहीं था लेकिन यह माना जाता था कि जिसको भी आर एस एस वाले मदद करेंगें उसको चुनावी सफालता मिलेगी . लेकिन आज़ादी मिलने के छः महीने के अन्दर ही महात्मा गांधी की हत्या हो गयी . गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी लेकिन उसके साथ आर एस एस के सबसे बड़े नेता एम एस गोलवलकर और उनकी विचारधारा के पुरोधा , वी डी सावरकर भी संदेह की बिना पर गिरफ्तार हो गए थे जो आर एस एस के लिए बड़ा झटका था . बाद में गोलवलकर और सावरकर तो छूट गए लेकिन हिन्दू महासभा के नेताओं , नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी हो गयी . नाथूराम के भाई , गोपाल गोडसे ,मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास की सज़ा हुयी. महात्मा गांधी की हत्या के बाद हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को राजनीतिक नुकसान हुआ. उस दौर के हिन्दू महासभा के बड़े नेता , डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा को छोड़ दिया और नई पार्टी, भारतीय जनसंघ बना लिया . जनसंघ की स्थापना में उनको उनके मित्र एम एस गोलवलकर के सौजन्य से आर एस एस के एक कुशाग्रबुद्धि प्रचारक , दीन दयाल उपाध्याय सहयोग करने के लिए मिल गए . हिन्दू महासभा से दूरी बनाकर भारतीय जनसंघ ने काम शुरू किया . १९५२ के चुनाव में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगाल में लोकप्रियता के कारण वहां उनको सीटें भी मिलीं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या में नाम आने के कारण आर एस एस की स्वीकार्यता हमेशा से ही सवालों के घेरे में आ गयी थी . अपनी स्थापना के एक दशक बाद जनसंघ के सामने एक बड़ा अवसर आया जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के हवाले से अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्वतंत्र पार्टी , प्रजा सोशालिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ का गठबन्धन बनाकर १९६३ में चार सीटों के लोकसभा उपचुनाव में जाने का फैसला किया . चारों पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं को चुनाव लड़ाया गया .डॉ लोहिया ,आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी तो जीत गए लेकिन दीन दयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए .चुनाव में हार के बावजूद जनसंघ को इस चुनाव का लाभ यह मिला कि उस समय तक राजनीतिक अछूत बने रहने का उसका कलंक धुल गया .मुख्य पार्टियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया .उसके चार साल बाद १९६७ में जब राज्यों में संविद सरकारों के प्रयोग हुए तो उत्तर भारत के कई राज्यों में जनसंघ के विधायक भी मंत्री बने. अब आर एस एस की राजनीतिक शाखा मुख्यधारा में आ चुकी थी . शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में वे अपने अन्य संगठनों के ज़रिये बड़े पैमाने पर काम कर ही रहे थे . असली ताक़त जनसंघ को तब मिली जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हुईं और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए .नतीजा यह हुआ कि जब १९७७ में जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें भारतीय जनसंघ बड़े घटक में रूप में शामिल हुयी . जनता पार्टी चली नहीं .ढाई साल में ही टूट गयी . भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हो गयी . १९८० में जनता पार्टी इसलिये टूटी थी कि पार्टी के बड़े समाजवादी नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक विचारधारा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४-८५ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गांधीवादी समजावाद जैसे शब्दों को भूल जाइए . पार्टी को हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के हिसाब से चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद की राजनीति का जो राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन बहुत समय से चला आ रहा था उसको और मजबूत किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह उतना सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगता था कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है .बीजेपी के लोगों ने पूरी तरह से समर्पित होकर हिन्दू राष्ट्रवाद की अपनी राजनीति की सफलता के लिए काम किया . उनको एडवांटेज यह रहा कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . बीजेपी ने बहुत ही कुशलता से हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के बीच की दूरी को मिटाने के लिए दिन रात कोशिश की. उन्होंने सावरकर की हिंदुत्व की राजनीति को ही हिन्दू धर्मं बताने का अभियान चलाया . नतीजा यह हुआ बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयाई उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया .
पिछले तीस वर्षों में आर एस एस ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को ज़बरदस्त हवा दी. कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और एक बड़ी राजनीतिक जमात तैयार कर ली गयी . बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की . बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की कोशिश की गयी और उसमें आर एस एस को बड़ी सफलता मिली. अब तो टीवी की बहस में भावनाओं को भड़का लिया जाता है .
अब स्थिति यहाँ तक पंहुच गयी है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग चुनाव में किये गए वायदों को पूरी तरह से दरकिनार करके हिन्दू गौरव के मुद्दों पर चुनाव लड़ने में कोई संकोच नहीं करते. दिल्ली विधानसभा का चुनाव सबसे ताज़ा उदाहरण है . आम आदमी पार्टी के नेता, अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया है लेकिन बीजेपी के गली मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे हैं . पोलस्ट्रेट नामक के संगठन के नवीनतम सर्वे के मुताबिक़ इस बार दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा , स्वास्थ्य, पीने का पानी और बिजली हैं . आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं .लेकिन बीजेपी वाले हिंदुस्तान-पाकिस्तान, शाहीन बाग़ , कश्मीर और राम मंदिर पर फोकस करने की बात कर रहे हैं .बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बाग़ वाला बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत कर रहे हैं .लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान चालीसा का पाठ करके अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया है .
चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया है . अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी . लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं दी. घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोग ही कर रहे हैं जिनके बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी हित ही होता है .
राममन्दिर का विवाद एक ऐसा विवाद था जिसकी वजह से बीजेपी को भारी फायदा अब तक हुआ है . जाहिर है दिल्ली विधान सभा का चुनाव बीजेपी के लिए बहुत ही बड़ी प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया है . जिस चुनाव में बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार मोहल्ले मोहल्ले घूमकर अपनी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं. पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा राममंदिर के निर्माण की घोषणा उसे चुनाव के ठीक पहले की गयी है . राजनीतिशास्त्र के किसी भी विद्यार्थी के लिए इस चुनाव के नतीजे बहुत ही दिलचस्प अध्ययन साबित होने वाले हैं . सबकी नज़र ११ फरवरी पर होगी और उसी दिन तय होगा कि भावनात्मक मुद्दे भारी पड़ेंगें या मौजूदा सरकार का पांच साल का काम जीत दिलाएगा .
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