Sunday, March 15, 2020

लखनऊ का कॉफ़ी हाउस लिबरल जीवन मूल्यों का महत्वपूर्ण केंद्र है


शेष नारायण सिंह

पिछले दिनों लखनऊ का कॉफ़ी हाउस बंद हो गया था लेकिन अब खुल गया है .लखनऊ के कॉफ़ी हाउस पर भी इसी तरह के संकट आते रहते हैं लेकिन हर बार जिंदा हो उठता है .हर दौर में कुछ लोग कॉफ़ी हाउस की धड़कन के रूप में पहचाने जाते हैं . आजकल  प्रदीप कपूर लखनऊ के कॉफ़ी हाउस की जान हैं . उन्होंने लखनऊ के कॉफ़ी हाउस  के बारे में एक बहुत ही दिलचस्प किताब भी लिखी है  . कॉफ़ी हाउस की  संस्कृति को जिंदा रखने वालों में में यह उनकी दूसरी पीढ़ी है . उनके स्वर्गीय पिता , बिशन कपूर भी कॉफ़ी हाउस के  प्रमुख संरक्षक हुआ करते थे . स्वर्गीय बिशन कपूर हालांकि आगरा के थे लेकिन उस वक़्त के नामी अखबार  ब्लिट्ज के लखनऊ ब्यूरो के प्रमुख के रूप में पूरी दुनिया उनको जानती है . हमारी पीढी के लोग जो पत्रकारिता में धारदार तेवर को जानते हैं , उनमें  ब्लिट्ज का नाम बहुत ही इज्ज़त से लिया जाएगा . कॉफ़ी हाउस को  लखनऊ की राजनीतिक और बौद्धिक ज़िंदगी में एक अहम मुकाम दिलवाने में जिन लोगों का नाम आता है उसमें  उनका नाम सरे फेहरिस्त है . अब यह ज़िम्मा उनके बेटे , प्रदीप कपूर ने ले रखा है .  लखनऊ शहर की तरह ही यहाँ के कॉफ़ी हाउस की  किस्मत में भी उतर चढ़ाव आते रहते हैं. कई बार बंद हुआ और कई बार  खुला. इस बार जब बंद हुआ तो कॉफ़ी हाउस के आशिकों में मायूसी का आलम था . विश्व रेडियो दिवस के एक कार्यक्रम में प्रदीप कपूर दिल्ली में थे जब वापस  लखनऊ गए तो कॉफ़ी हाउस में ताला लग गया . इत्तफाक ऐसा था कि मध्यप्रदेश के राज्यपाल , लालजी टंडन उस दिन शहर में थे . उनको संपर्क किया और उन्होंने लखनऊ के जिलाधिकारी को समझाया कि कॉफ़ी हाउस लखनऊ की विरासत का हिस्सा है . इसको संभालना और चलते रहने देना सरकार की ज़िम्मेदारी है . कॉफ़ी हाउस फिर से खुल गया है . प्रदीप कपूर से बात हुई तो उन्होंने बताया कि लालजी टंडन ने शासन से कहा है कि कुछ ऐसा इंतजाम कर दिया जाए कि भविष्य में कॉफ़ी हाउस बंद  होने की   नौबत ही न आये लेकिन जो लोग लखनऊ को जानते   हैं उनको मालूम  है कि इस शहर में शब्दों और अर्थों के मायने बाकी दुनिया से थोडा अलग होते हैं . कॉफ़ी हाउस बंद तो २००२ में भी हुआ था . उस बार भी लालजी टंडन के प्रयास से ही खुला था . प्रदीप कपूर बताते हैं कि लखनऊ के पूर्व मेयर   दाउजी  गुप्ता , यू एन आई के  पूर्व ब्यूरो चीफ , सुदर्शन भाटिया और  इब्ने हसन  के साथ यह लोग  लालजी टंडन के पास गए थे और  उस बार भी लखनऊ के जिलाधीश की ही ड्यूटी लगाई गयी थी . उस समय तो  लालजी टंडन सरकार में मंत्री भी थे
.किसी भी शहर में कॉफ़ी हाउस वहां की सियासी ज़िंदगी की नब्ज़ होता है .  दिल्ली के कॉफ़ी हाउस के बारे में बताते हैं कि जहां आज   कनाट प्लेस में पालिका बाज़ार है , वहीं १९७६ तक कॉफ़ी हाउस हुआ करता था. उन दिनों देश की राजनीति में  संजय  गांधी की तूती बोलती थी. उनको शक हो गया कि कॉफ़ी हाउस में उनके और उनकी माताजी के खिलाफ साज़िश होती थी . उन्होंने हुक्म दे दिया कि कॉफ़ी हाउस वहां से हटा दिया जाए और वहां एक वातानुकूलित बाज़ार बना दिया जाए . पालिका बाज़ार के निर्माण का काम तुरंत शुरू हो गया और जब तक पालिका बाज़ार बन कर तैयार हुआ , १९७७ में कांग्रेस की सत्ता जा  चुकी थी और जनता पार्टी के लोग सरकार बन चुके थे  .  दिल्ली में जनता पार्टी का मतलब था , तत्कालीन जनसंघ  के नेता, कुछ पुरानी  कांग्रेस के नेता और कुछ सोशलिस्ट . उस वक़्त की बहुत ही शानदार बाज़ार के रूप में विख्यात ,पालिका बाज़ार में जो बहुत ही महंगी दुकाने थीं , उनको भी अलाट करने का का संजय गांधी के विरोधियों के हाथ ही आ गया . दिल्ली का कॉफ़ी हाउस एक अन्य व्यापारिक भवन की छत पर पंहुच गया . कॉफ़ी हाउस की   हैसियत उसके इतिहास और भूगोल से  बनती है . उसको कहीं भी ले जाकर  वही रूतबा हासिल नहीं किया जा सकता है . इसीलिये लखनऊ में कॉफ़ी हाउस संस्कृति के अलमबरदार लोग इस बात पर आमादा रहते हैं कि कॉफ़ी हाउस  वहीं हज़रत गंज में जहांगीराबाद मेंशन में ही रहे . क्योंकि  वह जगह उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई पीढी के नेताओं और  पत्रकारों का ठिकाना रहा है . बहरहाल  लखनवी राजनीतिक तहजीब के महत्वपूर्ण व्यक्ति  लालजी टंडन के प्रयास से कॉफ़ी हाउस एक बार फिर चल पडा  है तो अब कुछ दिनों के लिए तो चलेगा .
यूरोप में कॉफ़ी हाउस राजनीतिक ,सामाजिक , साहित्यिक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अनाग हुआ करता था . पश्चिमी नवजागरण के दौर में वहां के चिंतन को उन लोगों ने सबसे अधिक प्रभावित किया जो कॉफ़ी हाउस में नियमित बैठा करते थे . शायद  इसी सोच के मद्दे नज़र लखनऊ में भी १९३८ में  कॉफ़ी हाउस की शुरुआत हुई. देश का बंटवारा नहीं हुआ था  उस  समय से ही कॉफ़ी हाउस यहाँ की राजनीतिक ज़िंदगी में अपनी  भूमिका निभाता रहा है . जो भी राजनीतिक और  सहुत्यिक लोग शहर में रहने पर थोडा भी खाली वक़्त कॉफ़ी हाउस में बिताना पसंस करते थे उनमें  देश की सत्ता और विपक्ष की राजनीति के लोग हुआ करते थे .  पंडित जवाहरलाल नेहरू , डॉ राम मनोहर लोहिया ,आचार्य नरेंद्र देव , अटल बिहारी  वाजपेयी ,  फीरोज़ गांधी , राज नारायण , वी पी सिंह ,नारायण दत्त तिवारी , अमृतलाल नागर ,  यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, मजाज़   लखनवी, कैफ़ी आजमी , वीरबहादुर सिंह , चंद्रशेखर  जब भी लखनऊ में होते थे , कॉफ़ी हाउस ज़रूर आते थे .

साठ के  दशक में भी एक बार कॉफ़ी हाउस बंद हो गया था. उस वक़्त बिशन कपूर  लखनऊ की पत्रकारिता की एक बुलंद शख्सियत हुआ करते  थे. उन्होंने ही तत्कालीन राज्यपाल वी वी गिरि से कॉफ़ी हाउस  का उद्घाटन करवा दिया था .  इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज और उर्दू के शायर आनंद नारायण मुल्ला १९६७  में लोकसभा के लिए  निर्दलीय उम्मीदवार थे .  उनके चुनाव का मुख्यालय ही लखनऊ का कॉफ़ी हाउस था . उनके मुकाबले में मोहन मीकिन का सेठ , ले कर्नल वी आर मोहन उम्मीदवार था . उसने बहुत पैसा खर्च किया था लेकिन कॉफ़ी हाउस में आने जाने वाले पत्रकारों और नेताओं ने आनंद नारायण मुल्ला को  चुनाव जितवा दिया था .  उनकी शायरी की किताब , 'सियाही की एक बूँद ' की भी चर्चा की जानी चाहिए . उसमें एक शेर था  कि, ख़ूने-शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा , फनकार की   क़लम की सियाही की एक बूँद ' . उत्तर प्रदेश की विधानसभा में १९७४ में उनके इस  शेर की वजह से बहुत हंगामा हुआ था. हेमवती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री थे और शहीदों का अपमान करने का  आरोप उनपर ज़ोरदार तरीके से लगा था .

लखनऊ का कॉफ़ी हाउस  आज भी शहर  की एक ज़िंदा  जगह है . जब भी कोई बुद्धिजीवी लखनऊ जाता है , उसकी एक  बैठकी कॉफ़ी हाउस में ज़रूर  होती है . प्रदीप कपूर तो वहां होते ही हैं  .आजकल कांग्रेस नेता अमीर हैदर की मौजूदगी  कॉफ़ी हाउस को जिंदा कर देती है . उनको सभी  मुहब्बत से चचा अमीर  हैदर कहते हैं . मैंने लखनऊ में उनसे आला इंसान  नहीं देखा . लखनऊ शहर का जब भी कभी इतिहास लिखा जाएगा तो उसका ज़िक्र एक लिबरल शहर के रूप में होगा . मैंने कॉफ़ी हाउस में शहर की लिबरल तहजीब को देखा है . राजनाथ सिंह सूर्य, चचा अमीर हैदर ,   राजेन्द्र चौधरी , सत्यदेव त्रिपाठी सभी एक ही मेज के इर्दगिर्द बैठे मिल जाते थे  . एक   दूसरे की पार्टी या अपनी ही पार्टी के नेताओं की आलोचना करने वाले यह  लोग इस जिंदादिल शहर की अलामत हैं . कॉफ़ी हाउस की एक  और भी संस्कृति   है . सीनियर  बन्दे की मौजूदगी में किसी जूनियर को जेब में हाथ डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती . मैंने पिछली कई यात्राओं में चचा अमीर हैदर को सभी की कॉफ़ी  और अन्य खाद्य पदार्थों का भुगतान करते  देखा  है.    राजेन्द्र चौधरी भी इस  गौरव के अक्सर हक़दार बनते हैं . सुरेश बहादुर सिंह   जैसे जूनियर लोगों को कभी भी जेब में हाथ नहीं डालना होता .
 बहरहाल एक बार फिर  कॉफ़ी हाउस के आशिकों ने उसको  बचा  लिया  है .उम्मीद की जानी चाहिए कि लिबरल जीवन मूल्यों का यह मरकज अभी बहुत वर्षों तक सलामत रहेगा .

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