शेष नारायण सिंह
दिल्ली विधानसभा आम आदमी पार्टी ने चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया. केंद्र की सत्ताधारी पार्टी , बीजेपी ने पूरी कोशिश की कि चुनाव में इस बार आम आदमी पार्टी को शिकस्त दें और सरकार बनाएं लेकिन वह सपना अब कम से कम पांच साल के लिए खिसक गया है . चुनाव में हुयी बुरी तरह की हार की ज़िम्मेदारी दिल्ली प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने ले ली है . संभव है कि बलि के बकरे की तलाश अब यहीं रुक जायेगी . मनोज तिवारी के खिलाफ वे तलवारें भी म्यानों से बाहर आ गयी हैं जो अब तक छुप छुप का वार करने की फ़िराक में रहा करती थीं . दिल्ली प्रदेश के भाजपा नेताओं ने मनोज तिवारी को हमेशा ही घुसपैठिया माना . जब उनको दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष पद पर तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नामित किया तब भी दिल्ली के मुकामी नेताओं ने विरोध किया था लेकिन किसी की हिम्मत सामने आकर कुछ कहने की नहीं थी. लेकिन अब सब मुखर हो गए हैं . अभी खुले आम बयानबाजी शुरू नहीं हुई है लेकिन उनकी अस्वीकार्यता की आवाज़ फिर सत्ता के गलियारों में सुनाई पड़ने लगी है .
मनोज तिवारी को अपनी कुर्बानी से दिल्ली की हार से लगी चोट पर मरहम लगाने की ड्यूटी तो दे दी गयी है लेकिन इस चुनाव में उनकी भूमिका बहुत ही मामूली थी . चुनाव अभियान का नेतृत्व हर स्तर पर गृहमंत्री अमित शाह कर रहे थे . अभियान के पूरे एक महीने के दौरान जब भी पार्टी के किसी नेता या प्रवक्ता से यह बात करने की कोशिश की गयी कि ,भाई , दिल्ली में आप पार्टी के जनहित के रिकार्ड के मद्दे-नज़र आपकी पार्टी चुनाव हार भी सकती है . ऐसी हालत में पार्टी के सबसे बड़े नेता को संभावित हार के कारण के रूप में पेश किये जाने का अवसर क्यों दे रहे हैं . तो उनका जवाब एक ही होता था कि अव्वल तो हमारी जीत हो रही है .और अगर एक प्रतिशत हार भी हुयी तो हमारे यहाँ राष्ट्रीय नेतृत्व मज़बूत है और वह आगे से अभियान की अगुवाई करता है और उसका जो भी नतीजा हो स्वीकार करता है . यह सारे तर्क अपनी जगह हैं लेकिन जैसा कि रिवाज़ है हार का ज़िम्मा बीजेपी में भी छोटे नेताओं पर ही जाएगा लिहाज़ा मनोज तिवारी को आगे कर दिया गया है . सबको पता है कि दिल्ली विधान सभा के इस चुनाव में बीजेपी के अभियान की कमान पूर्व अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह के हाथ में थी . चुनाव प्रचार के जितने भी तीर उनके पास थे , सब चलाये गए . पिछले छः वर्षों के राष्ट्रीय राजनीति के अपने दौर में अमित शाह ने कई महत्वपूर्ण बुलंदियां हासिल की हैं. २०१४ के चुनाव में वे बीजेपी के महामंत्री थे और उत्तर प्रदेश के इंचार्ज थे . उन्होंने गाँव और कस्बे तक की पंहुच के ज़रिये ऐसा चुनाव लड़ा जिसको चुनावी प्रबन्धन की एक कुशल तकनीक के रूप में याद किया जाता है . इस सन्दर्भ में उनकी क्षमता की इज्ज़त सभी करते हैं . उत्तर प्रदेश के उस चुनाव से भी ज्यादा मेहनत से उन्होंने दिल्ली के चुनाव की अगुवाई की . सत्तर सीटों वाली विधान सभा के लिए उन्होंने पचास चुनावी सभाएं कीं, रोड शो किया . घर घर जाकर चुनाव प्रचार किया . चुनावी पर्चे बांटे .भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को मुहल्लों में घूम घूम कर प्रचार करने के लिए प्रेरित किया. पूर्व मुख्यमंत्रियों को प्रचार के काम में लगाया . केंद्रीय मंत्रियों को प्रचार में शामिल किया . जिन इलाक़ों में पूर्वांचली आबादी अधिक थी , वहां केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को दिन रात के लिए ड्यूटी पर लगाया . पूर्वांचली मतदाताओं को रिझाने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी तलब किया गया . दिल्ली की करीब एक हज़ार से अधिक झुग्गी झोपडी बस्तियों में करीब ढाई सौ सांसदों को तैनात किया गया और उनको वहीं बस्तियों में तीन दिन-रात रहने की व्यवस्था की . लेकिन बीजेपी चुनाव हार गयी . जो आठ विधायक जीते हैं उसमें पार्टी का कोई ख़ास योगदान नहीं है . विजेंद्र गुप्ता, ओम प्रकाश शर्मा ,रामवीर विधूड़ी जैसे लोग निजी तौर पर भी बहुत ही प्रभावशाली लोग हैं .. अमित शाह की नज़र से यह बात पता नहीं कैसे फिसल गयी और वे समझ नहीं पाए कि दिल्ली की जनता अपनी आर्थिक परेशानी , महंगाई , कानून व्यवस्था की दुर्दशा , नगरपालिकाओं की गैर ज़िम्मेदारी आदि के लिए उनकी पार्टी के सांसदों और मंत्रियों को ज़िम्मेदार मानती है . और जब यह लोग रोज़ ही सामने दिखते थे तो उसका गुस्सा और भी बढ़ जाता था. बीजेपी की नीतियों की असफलता और तज्जनित परेशानी के बरक्स आम आदमी पार्टी की शिक्षा , स्वास्थ्य , बिजली , पानी और यातायात की सुविधा वाले काम बहुत ही अच्छे लगने लगे थ. यह सच्चाई दिल्ली की हवा में चारों तरफ थी लेकिन अमित शाह जैसा माहिर राजनेता की नज़र से कैसे छोक गया , इसपर अध्ययन किया जाना चाहिए .
दिल्ली विधानसभा में बीजेपी के चुनाव अभियान के तरीके में एक बदलाव भी देखा गया . २०१३ से लेकर अब तक के सभी चुनावों में प्रधानमंत्री की मुख्य भूमिका हुआ करती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य प्रचारक रहा करते थे . पार्टी अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की सहायक भूमिका होती थी लेकिन इस बार ऐसा नहीं था .अमित शाह मुख्य प्रचारक , रणनीतिकार सब कुछ थे . उन्होंने ही चुनावी मुद्दे तय किये थे . शाहीन बाग़ , ३७० , बिरयानी , पाकिस्तान , ‘ हिन्दू खतरे में हैं ‘ आदि मुद्दे अब तक चुनावों में काम आते रहे थे . उनकी सफलता का कारण यह होता था कि कांग्रेस के प्रचार की अगुवाई कर रहे राहुल गांधी और उनके शिष्य नेता बीजेपी के मुद्दों पर प्रतिक्रया देकर उनको सफल बनाते थे . अरविन्द केजरीवाल ने ऐसा नहीं होने दिया . उन्होंने शिक्षा , स्वास्थ्य , बिजली , पानी के अलावा किसी मुद्दे पर बात ही नहीं की . अपने मुद्दों से ध्यान भटकने नहीं दिया . नतीजा यह हुआ कि आम आदमी पार्टी ने अपनी पिच पर ही खेल जारी रखा और बीजेपी के सारे मुद्दों को नज़रंदाज़ किया . यही कारण है कि दिल्ली की विधानसभा के लिए जो चुनाव लड़ा गया वह चुनावी राजनीति को समझने के लिए बहुत समय तक सन्दर्भ का काम करता रहेगा . आम आदमी पार्टी के नेता देश में अपनी इकलौती सरकार बचाने के लिए चुनाव लड़ रह थे जबकि बीजेपी के नेता दिल्ली शहर और राज्य में भाजपा की सत्ता स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे . अपने देश में इतनी गहन चुनावी लड़ाई कभी नहीं लड़ी गयी है . भारतीय जनता पार्टी ने अपने सभी संसाधन चुनाव अभियान में झोंक दिया था . आम आदमी पार्टी के पास भी चुनाव लड़ने की दिल्ली शहर में एक ऐसी मशीनरी है जिसको अब तो अजेय ही माना जाएगा . इस चुनाव में कांग्रेस भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी के रूप में शामिल हुयी लेकिन उसने चुनाव में कोई ख़ास असर नहीं डाला . कांग्रेस के रवैय्ये के कारण यह चुनाव एक तरह से आप और बीजेपी के बीच डायरेक्ट चुनाव ही हो गया . हालांकि बीजेपी के नेताओं ने पूरी कोशिश की कि कांग्रेस गंभीरता से चुनाव का काम करे क्योंकि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन कांग्रेस का चुनाव अभियान बहुत ही मामूली तरीके से संचालित किया गया . जानकार और बीजेपी से सम्बद्ध लोग बताते हैं कि अगर कांग्रेस ठीक से चुनाव लडती तो बीजेपी की सीटों की संख्या बहुत ज़्यादा होती.
चुनाव में हारजीत तो होती रहती है लेकिन भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जो तर्क आ रहे हैं वह बहुत ही दिलचस्प हैं . बीजेपी के कई प्रवक्ताओं ने टेलिविज़न की बहसों में बताया कि इस चुनाव में केवल उनकी पार्टी ने वोट प्रतिशत में वृद्धि की है .पांच साल पहले हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उनको करीब ३२ प्रतिशत वोट मिले थे जबकि इस बाद उनका वोट प्रतिशत बढ़कर ३८ हो गया है . यह एक बड़ी उपलब्धि है .उनकी बातचीत से ऐसा लगता है कि वे सरकार बनाने के लिए नहीं वोट प्रतिशत बढाने के लिए चुनाव लड़ रहे थे .बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले स्वतंत्र पत्रकारों ने ने भी कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी की कई बार निंदा की और कहा कि पार्टी को अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहिए क्योंकि अभी छः साल पहले तक उनका दिल्ली की सरकार पर क़ब्ज़ा था .इस सब से अलग कांग्रेसी खुश हैं . पूर्व मंत्री पी चिदंबरम ने तो केजरीवाल को बधाई भी दे दी और अपनी ही पार्टी एक वर्ग से हो रही आलोचना को झेल रहे हैं लेकिन लगता है कि अपनी पार्टी की कमजोरी की चिंता उनको कम है लेकिन बीजेपी की हार की चिंता ज़्यादा है . कांग्रेस की तरफ से अपना प्रचार कमज़ोर कर देना एक रणनीति भी हो सकती है . प्रथम दृष्टया ऐसा लगता भी है . चुनाव में कांग्रेस ने अपने मज़बूत नेताओं को सामने नहीं किया . जयप्रकाश अग्रवाल , अजय माकन जैसे नेता सामने नहीं आये . पार्टी का कोई बड़ा नेता भी प्रचार करने के लिए सामने नहीं आया . दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष भी एक ऐसे आदमी को बना दिया गया जो बहुत पहले दिल्ली की राजनीति से बाहर हो चुका है . प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की अपनी पुत्री भी चुनाव में उम्मीदवार थी और अपनी ज़मानत बचाने में नाकामयाब रही . ऐसी स्थिति में साफ लगता है कि कांग्रेस को अपने अस्तित्व की चिंता उतनी नहीं थी जितनी की बेजीपी को हरा देने की तत्परता थी.
कांग्रेस की इस रणनीति से बीजेपी के चुनाव प्रबंधक चिंतित हैं . उनको मालूम है कि अन्य राज्यों में भी अगर चुनाव सीधे आमने सामने का हो गया तो बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल होगी . केंद्र की सत्ताधारी और मज़बूत पार्टी को अगर कई राजनीतिक पार्टियों से चुनौती मिलती है तो उसके लिए चुनाव जीतना आसान होता है लेकिन अगर उसके खिलाफ राजनीतिक पार्टियां इकठ्ठा हो जाएँ या मुकाबला आमने सामने का हो जाए तो चुनाव जीतना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा . इसी सोच के आधार पर तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और उसके अजेय नेता , जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने के लिए समाजवादी नेता , डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति का आविष्कार किया था. गैर कांग्रेसवाद के चलते ही उत्तर भारत के कई राज्यों में १९६७ के चुनाव के बाद संविद सरकारें बन गयी थीं . अगर मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के सामने भी सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होने की रिवाज़ को अपना लेंगीं तो बीजेपी के लिए अभी और भी मुश्किल होने वाली है. और यह बीजेपी की मौजूदा मुश्किलों में सबसे गंभीर है
No comments:
Post a Comment