शेष नारायण सिंह
1969 के
दिसंबर महीने में लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में एक
अन्तरविश्वविद्यालय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था. मैंने उस मुकाबले में अपने विश्वविद्यालय का
प्रतिनिधित्व किया था. कैनिंग कालेज का
मुझे पहली बार वहीं दर्शन हुआ था. कुल
अट्ठारह साल उम्र थी. बी ए का छात्र था. बच्चा
दिखता था. उन दिनों यूनिवर्सिटी के राजनीति
शास्त्र के विभागध्यक्ष प्रो. पी एन
मसालदान साहब थे. उनके बारे में मैंने अपने किसी शिक्षक से सुन रखा था. गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया
एक्ट ,१९३५ के बाद जो थोड़ी बहुत ऑटोनोमी
मिली थी ,उसके बारे में उनका एक लेख भी मैंने अपने कालेज की लाइब्रेरी में ऐसे ही
पढ़ लिया था . बहुत पुराना लेख था लेकिन मजेदार लगा तो पढ़ गया . मसालदान नाम थोडा लीक से हटकर था तो याद रह गया था. उनसे प्रभावित था . प्रतियोगिता शुरू होने के
पहले उनके कमरे में सभी प्रतियोगियों को चाय के लिए बुलाया गया था. जब मुझे उनका नाम बताया गया तो मैं बेसाख्ता बोल पड़ा . ," सर मेरी आपसे मुलाक़ात तो नहीं है लेकिन मैंने यूनाइटेड प्रविन्सेस के बारे में आपके शोध से संबधित एक लेख एक लेख पढ़ा है . आपकी बातें , जो शायद आज़ादी के
पहले लिखी गयी थीं कितनी सटीक और
prophetic थी. आज उत्तर प्रदेश में वही हो रहा
है जिसकी आशंका आपने अपने शोध में
बतायी थी. " उसके बाद उन्होंने मुझसे थोड़ी बहुत बातचीत की और प्रभावित हुए .
मैं भी सातवें आसमान पर था . मुझे लगा कि डिबेट में जीतूँ या हारूं , विद्वान प्रोफेसर से शाबासी पाने की यह ट्राफी
संभालकर रखूँगा . इतने ख्यातिप्राप्त
विद्वान से शाबासी पाने का अपना सुख है
.
उन
दिनों बहुत चौड़ी मोहरी के बेल बॉटम की पतलूनों का फैशन था . एक से एक फैशनबुल लोग
कैम्पस में विराजते थे . मैं बहुत ही साधारण कपड़े पहनकर गया था . एक ऊनी कुर्ता और
पैजामा. भाग्यशाली इसलिए था कि जब दो चार तोता रटंत लोगों के भाषण समाप्त हो गए तब मेरा नंबर आया . कपडे ठीक नहीं थे लिहाजा हूट हो गया . करीब तीस
सेकण्ड तक लोग अजाक उड़ाते रहे . उसके बाद मैंने माननीय अध्यक्ष महोदय , देवियों और
सज्जनों कहा . मुझे याद है जिस तरह मैंने
शुरुआती संबोधन किया , हाल में तड़ से
शांति स्थापित हो गयी .फिर मैंने ब्रह्मास्त्र चल दिया . मैंने कहा , मेरे
पास जो सबसे अच्छी पोशाक थी, मैं वह पहनकर
आया हूं लेकिन आपके मजाक का विषय बन गया .
कृपया मेरी बार ज़रूर सुनिए क्योंकि अगर मई हूट होकर चला गया तो आने वाला समय मुझे
तबाह कर देगा . आज आप गर मुझे ध्यान से सुन लेगें तो मेरा मुस्तकबिल संवर जाएगा .
फिर मैंने संविद सरकारों के प्रयोग पर करीब पांच मिनट का भाषण दिया . बीच में कई कई
बार तालियाँ बजीं. जब मैं मंच से उतर कर
अपनी सीट पर बैठने आया तो कई लोगों ने मुझसे हाथ मिलाया . प्रो मसालदान साहब ने भी
बहुत तारीफ़ की और एम ए करने के लिए लखनऊ
आने के लिए भी उत्साहित किया . खैर मैं
गया नहीं .बहुत खुशी हुयी . पहले नम्बर पर तो
लखनऊ विश्वविद्यालय की कोई छात्रा आई लेकिन मेरा सेकंड आना भी मेरे लिए
बहुत बड़ी जीत थी . जो आत्मविश्वास मुझे उस यात्रा से मिला वह आज तक बना हुआ है . सही बात यह है कि बिलकुल शुद्ध
ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकला हुआ एक ग्रामीण नौजवान बिना किसी सरकारी नौकरी की
गारंटी के अपनी रोजी रोटी के लिए लड़ने में कामयाब हुआ ,उसमें उस शुरुआती
कॉन्फिडेंस बूस्टर का बड़ा योगदान है . शुक्रिया लखनऊ
उसके बाद
तो इतनी बार लखनऊ गया कि अब वह शहर अपना ही लगता है .
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