शेष
नारायण सिंह
इस बार की सुल्तानपुर यात्रा
यादगार रही .साथी राज खन्ना की गरिमा का वैभव पूरी यात्रा में मन को गदगद करता रहा . पिछले कुछ वर्षों से सुल्तानपुर
के कुछ उत्साही नौजवानों के काम को करीब से देखने का
न्योता मिलता था लेकिन जा नहीं पाते थे. कई बार तो कार्यक्रम बन भी गया , सारी तैयारियां हो गयीं लेकिन कोई न कोई अड़चन
आती रही. लेकिन इस बार संयोग बन गया और मैं सुल्तानपुर में उन लोगों से मिला जिनपर आने वाली पीढियां गर्व करेंगी . सुल्तानपुर गोमती नदी के
किनारे बसा एक शहर है . 1858 में इस शहर को तबाह कर दिया गया था . जहां आज सुलतानपुर शहर है , वहां खाली
मैदान था . शहर गोमती के उस पार था . उसको अंग्रेज़ी फौज ने जला दिया था . उसी शहर
की कोतवाली को केंद्र बनाकर अवध की सेना के कमांडर जनरल गफूर बेग ने जौनपुर से बढ़ रही
ब्रिगेडियर टी
एच फ्रैंक्स की अगुवाई वाली अंग्रेज़ी फौज को आगे बढ़ने
से रोका था. आज़ादी की पहली लड़ाई में जब भारतीय योद्धाओं ने लखनऊ पर कब्जा कर लिया
तो पूरब से जो अँगरेज़ सेना चली उसकी कमान ब्रिगेडियर फ्रैंक्स के हाथ में थी . बक्सर से जौनपुर होते हुए उनको सिंगरामऊ तक पंहुचने में कोई दिक्क़त नहीं पेश आई लेकिन जब सिंगरामऊ से आगे चले तो पीली नदी के
पास चांदा में उनको भारतीय ताकत का सामना करना पड़ा था. चांदा में करीब दस हज़ार हज़ार भारतीयों ने उनको चुनौती दी थी लेकिन रात में धोखे से हमला करके
फ्रैंक्स ने उनको तितर बितर कर दिया था. उसके बाद भदैयां तक बेरोकटोक चलते रहे . आजादी के दीवानों
की सेना के अफसर
नाजिम मेहंदी को आने में थोड़ी देर हुई और इस बीच फ्रैंक्स की सेना ने आगे बढ़कर चालाकी और
धोखे से भदैयां के किले
पर क़ब्ज़ा कर लिया .वहां से सेना को फिर से
समेटकर जब अँगरेज़ आगे बढे तो भारतीयों की संख्या बहुत कम हो चुकी थी लेकिन गोमती
के दक्षिण तरफ के नालों में उनको जनरल जनरल गफूर की
ताक़त का मुकाबला करना पडा . प्रचंड लड़ाई के बाद शहर पर क़ब्ज़ा हो गया और सुल्तानपुर
बाज़ार को नष्ट कर दिया गया . अपना एक यूनिट लेफ्टिनेंट
मैक्लीड इनिस के हवाले छोड़कर फ्रैंक्स आगे बढ़ गया . जहां आज सुल्तानपुर शहर है ,
वहीं अंग्रेज़ी सेना का कैम्प लगा था .
इसलिए आम बोलचाल में सुल्तानपुर को बहुत बाद तक कम्पू
कहा जाता था .
इस तरह से मौजूदा सुल्तानपुर शहर
का विकास १९६० के बाद का ही माना जाता है . नजूल की ज़मीन पर कलेक्टर का बँगला बनाया गया , गवर्नमेंट इंटर
कालेज , कलेक्ट्रेट आदि इमारतें उसी दौर की बनी हुयी हैं .
जब ब्रिटिश साम्राज्य के डायरेक्ट कब्जे में अवध का
इलाका आ गया , तो सुल्तानपुर में भी उसी हिसाब से विकास हुआ
जैसा अँगरेज़ चाहते थे. सरकारी दफ्तरों के अलावा कुछ नहीं था. कोर्ट
कचहरी बन जाने के बाद वकीलों ने शहर में घर बनवाना शुरू किया .एक बाज़ार बनी इसको
अब चौक कहते हैं . आबादी बढ़ने के साथ धीरे
धीरे सुल्तानपुर एक छोटे शहर के रूप में विकसित हो गया
. आज़ादी के बाद भी शहर के विकास में कोई महत्वपूर्ण चीज़ नज़र नहीं देखी गयी .
ज्यादातर व्यवस्था आदिम कालीन ही है . अंग्रेजों के
बाद कहीं कोई विकास योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ . जिसका जहां जुगाड़ बना , ज़मीन ली और घर
बनवा लिया .
इसी सुल्तानपुर में मेरे जिले का मुख्यालय है . बचपन में जब पहली बार सुल्तानपुर
आया था तो अपने गाँव की तुलना में इतने बड़े शहर को देखकर बहुत प्रभावित हुआ था लेकिन बड़े होने के साथ साथ यह अनुभूति हो गयी कि अपना जिला एक पिछड़ा इलाका है .
१९६७ तक हमारे जिले में कोई डिग्री कालेज नहीं था . जिले के नामी वकील बाबू गनपत सहाय ने १९६७ में एक डिग्री कालेज की शुरुआत की . उसके छः साल बाद १९७३
में कादीपुर में तुलसीदास डिग्री कालेज और शहर में
कमला नेहरू कालेज की स्थापना हुई . अपनी रफ़्तार से जो
भी विकास होना था , वही हुआ. जिले के पश्चिमी हिस्से में कुछ कल कारखाने लगे क्योंकि तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बच्चों ने जिले की एक तहसील ,अमेठी को अपनी कर्मभूमि बना लिया
. अब अमेठी भी अलग जिला बन गया है . यानी आज भी हमारे जिले में विकास के आधुनिक पैमाने पर नापने लायक कोई विकास नहीं
है . अलबता यह ज़रूर है कि शहर की साझा संपत्तियों की
जो दुर्दशा शहरीकरण के बाद होती है , वह खूब हुई . सुल्तानपुर जिले की जीवनदायिनी नदी , गोमती
नदी है . पूरे जिले के मध्य से होकर बहती है . इस नदी की हिफाज़त की कहीं किसी को
कोई परवाह नहीं . शहर के अन्दर ही गोमती किनारे
सीता कुंड है . शहर के
लोगों के परिवार पिछले डेढ़ सौ साल से यहाँ जाते रहे
हैं .लेकिन वह भी पूरी तरह से उपेक्षा का शिकार रहा .
१९७३-७४ में जब कभी भी मुझे सीता कुंड जाने का
अवसर मिला तो वहां कुछ भी आकर्षक नहीं था. दिन में तो वहां शहर के गंजेड़ी और नशेड़ी लोग ही
नज़र आते थे लेकिन इस बार जब मैं राज खन्ना और डॉ
सुधाकर सिंह के साथ सीता कुंड गया तो धन्य हो गया .
डॉ सुधाकर सिंह की प्रेरणा से मैं
वहां गया था . सीताकुंड में गंदी पडी
ज़मीन पर इन नौजवानों ने एक बहुत ही खूबसूरत वाटिका बना
दी है . सफाई इतनी है कि वहीं बैठे ही रहने का
मन करता है . रविवार का दिन था . गोमती तट पर गायत्री
परिवार के एक संत ने कथा
और आरती करवाई . शाम को सीताकुंड इतना गुलज़ार था कि मन
प्रसन्न हो गया . और उन सभी नौजवानों से मिला जिन्होंने अपने काम काज से समय
निकालकर प्रकृति की ख़ूबसूरती के लिए प्रयास किया है
.पता चला कि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रायबुनल के एक फैसले को
आधार बना कर सरकार ने यह आदेश दिया है कि गोमती के
दोनों किनारों पर ५०० मीटर या शायद ढाई सौ मीटर तक के इलाके को सरकार लेकर उसमें पेड़ पौधे लगवायेगी . इस आदेश के
बाद सरकारी बाबुओं ने शहरी इलाकों में ही बने हुए घरों
को तोड़ने का मंसूबा बना लिया है . माहौल
में चर्चा शुरू हो गयी है . कहीं कहीं नोटिस भी भेजे जा रहे हैं . ज़ाहिर है
भयादोहन भी हो रहा है . अगर यही सिलसिला बना रहा तो शहरी इलाकों के प्रभावशाली लोग
जुटकर सरकार पर दबाव डालेंगें और योजना खटाई में चली जायेगी . डॉ सुधाकर सिंह ने बताया कि जिलाधीश को सुझाव दिया गया है कि पहले पूरे जिले में नदी के किनारे जो ज़मीन
खाली पडी है ,पहले उसपर
पेड़ पौधे लगाने की बात करिए , आबादी वाले इलाकों पर बाद में
बात होगी . लेकिन इन छोटे जिलों में जो आई ए एस अफसर जाते हैं , उनकी प्राथमिकता समय बिताकर वहां से निकल लेने
की होती है . नतीजतन यह काम भी गति पकड़ने
वाला नहीं है . लेकिन सुल्तानपुर में गोमती मित्र मंडल के सदस्य और उनके अगुवा रूद्र प्रताप सिंह उर्फ़ मदन भइया ने
अपने सीमित संसाधनों और अपने साथियों के उत्साह के बल पर सीताकुंड के घाट पर एक ऐसा
उदाहरण तैयार कर दिया है जिसको लोग नक़ल कर सकते हैं .
सुल्तानपुर में गोमती मित्र मंडल के अलावा अंकुरण फाउन्डेशन और
शहीद स्मारक सेवा समिति के सहयोगी लगभग एक साथ काम करते हैं . जिले में करीब चालीस साल से समाज सेवा के काम में लगे , करतार केशव यादव लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के काम में दिन रात
लगे रहते हैं . नौकरी तो नहीं लेकिन छोटे मोटे काम करने के लिए
प्रोत्साहित करके उन्होंने बहुत लोगों को आत्मनिर्भर बना दिया है . जो लोग उनके
सद्प्रयास से अपना काम कर रहे हैं , उनमें से कुछ लोगों ने औरों को भी उत्साहित
किया है और उनको सहयोग करके आत्मनिर्भर
बना रहे हैं . अंकुरण वाले नौयुवकों का एक
बड़ा काम तो रक्तदान है. जिले में किसी को कहीं भी रक्त की ज़रूरत हो तो यह लोग
उद्यत रहते हैं . पांच अप्रैल को रक्तदान का वार्षिक शिविर लगता है और दिन भर चलता
है . एक बार तो इन लोगों ने एक दिन में
सात सौ यूनिट रक्तदान का रिकार्ड भी बनाया . यह लोग अनाथ लोगों की सेवा करते हैं . सड़क पर कहीं कोई मानसिक रूप से असंतुलित
व्यक्ति दिख जाए तो उसकी देखभाल का ज़िम्मा
इन लोगों के ऊपर आ जाता है . जिले के शास्त्रीनगर में एक अस्पताल भी चलता है. करतार
केशव यादव की इतनी इज्ज़त है कि जिले के
बड़े डाक्टर वहां अपना समय दान करते हैं. अपने यहाँ जो दवाइयां बची रहती हैं उनको वहां पंहुचा देते हैं और उन दवाइयों
से उन लोगों का उपकार होता है जो महंगी दवाइयां नहीं खरीद सकते . यह सभी लोग कोई शोर शराबा नहीं करते ,
कोई प्रचार नहीं चाहते. जिले के सबसे वरिष्ठ पत्रकार राज
खन्ना ने कई बार गोमती मित्र मंडल ,करतार केशव और अंकुरण के
बारे में लिखा . राज खन्ना साहब की अपने पत्रकार
साथियों में बहुत इज्ज़त है . जब मैं शहर में था तो शहर के लगभग सभी सम्मानित
पत्रकारों से मुलाक़ात का अवसर भी मिला . लोग समय समय पर लिखते रहते हैं लेकिन इन संस्थाओं में कोई भी ऐसा नहीं है जो
फोटो खिंचवाना चाहता हो.
जिले के ज्यादातर तीर्थ स्थानों में यह लोग सफाई और जनसेवा का काम
करते रहते हैं. कहीं भी जायेंगें तो सभी लोग सबसे पहले सफाई का काम शुरू कर देंगें
और फिर वहां के स्थानीय ग्रामीण लोगों को प्रेरणा मिलती है . मेरी इच्छा थी कि इन
लोगों के नाम लिख कर देश को बताऊँ लेकिन ज्यादातर लोगों ने कहा कि कोई ज़रूरत नहीं
है . हां , कई वालंटियर बोले की उम्र में सबसे सीनियर करतार केशव जी का सम्मान
होना चाहिए. मेरे दोस्त राज खन्ना ने
मेरे वापस आने के बाद जो लिखा , उतना अच्छा तो मैं
नहीं लिख सकता लेकिन उसको उद्धृत ज़रूर करूंगा . उन्होंने लिखा है , " वहां की
स्वच्छता-सुंदरता के साथ रविवार की गोमती आरती का आकर्षण बड़ी संख्या में लोगों को
अपनी ओर खींचता है। मौजूद थे अंकुरण के साथी भी। वही अंकुरण जिसके युवा साथियों ने
एक दिन में सात सौ से अधिक रक्तदान करके कीर्तिमान बना दिया। उनके सेवा-सहयोग के
प्रयास बहुआयामी हैं। असहाय-विक्षिप्त सबकी सेवा करते हैं। कपड़े बांटते हैं।
कोचिंग चलाते हैं। बुक बैंक भी। पर्यावरण-जल संरक्षण-स्वच्छता अभियान और भी बहुत
कुछ। बिना शोर-शराबे के दिल को छूने, साथ
लेने -जोड़ने और पास बुलाने का एक अभियान। डॉक्टर आशुतोष, जितेंद्र
श्रीवास्तव , आरिफ भाई, अभिषेक,
सोनू और उनक अनेक साथी साथ थे। नफ़रत-कडुवाहट को ठेंगा दिखाते ,
वे सेवा के उस पथ पर हैं , जहां सब अपने हैं।
बाजू में गोमती की जलधारा शांत है। किनारों की रोशनियां का अक्स उसे चमक दे रहा।
अंधेरे को चुनौती तो सेवा के दीप जलाते सुलतानपुर की पहचान बने ये चेहरे भी दे रहे
हैं। उन पर मुग्ध भावुक शेष नारायण सिंह कहते हैं कि मैं सन्नाटे में हूँ। खुशी
में आंखें और चमक उठती हैं। दीन बंधु सिंह के मधुर स्वर में गोमती आरती के सुर
गूंज रहे हैं। जल में टिमटिमाते दियों की कतार अंधेरे का सीना चीरती रोशनी के लंबे
सफ़र में है। रोशनी। उम्मीद की रोशनी।"
मैं कोशिश करूंगा कि इस प्रयास को दुनिया
के सामने लाने में सहयोग कर सकूं . भारत
में और दुनिया भर में मौजूद अपने दोस्तों से भी गुजारिश करूंगा कि इस प्रयास को
सम्मान दें , मान्यता दें और पहचान दें .
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