Wednesday, December 25, 2019

दिलीप कुमार , एक ऐसा दोस्त जिसका जाना अब भी तकलीफ का अम्बार है .




शेष नारायण सिंह

दिसंबर का दूसरा पाख . साल का यह समय १९९७ तक तो ठीक रहता था लेकिन उसके बाद एक अजीब सी दहशत पैदा कर जाता है .अभी कल एक खगोलविद से बात हो रही थी. वे सड़क छाप ज्योतिषी नहीं हैं, विद्वान व्यक्ति हैं . आसमान के तारों के बारे में खगोलशास्त्रीय वैज्ञानिक जानकारी रखते हैं . उस आधार पर बता रहे थे कि इस साल दिसंबर के अंत में दुनिया में कहीं न कहीं अनहोनी घटनाएँ हो सकती हैं .  २७  दिसंबर के सूर्यास्त के दिन जो होगा वह तारों और  ब्रह्माण्ड का अध्ययन करने वालों को अजीब स्थिति में डाल चुका है क्योंकि विज्ञान के अब तक के ज्ञात इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ  है . २७ दिसंबर को ही तो मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त , दिलीप कुमार ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. इसी  तारीख को १९९७ में  एक ऐसे ही  दिसंबर में मैंने अपना बहुत करीबी दोस्त खो दिया था . उसके छः साल बाद २३  दिसंबर को मेरी माँ चली गयी थीं. इसलिए दिसम्बर की किसी अनहोनी भविष्यवाणी से मैं डर जाता हूँ . हालांकि मैं ज्योतिष की भविष्यवाणी का विश्वास नहीं करता लेकिन जबसे मृत्युंजय शर्मा की कुछ भविष्यवाणियां बिलकुल सही पाई गयी  हैं तब से उनकी बातों को मैं बहुत ही गंभीरता से लेने लगा  हूँ.
१९९७ में मैंने NDTV नामक टीवी ख़बरों के लिए  समाचार बनाने वाले संगठन में काम शुरू कर दिया था . रिपोर्टिंग की दुनिया से बाहर हो गया था क्योंकि वहां मेरा काम डेस्क का था. इसलिए प्रेस क्लब , आईएनएस बिल्डिंग, पार्लियामेंट, कांग्रेस या अन्य पार्टियों के मुख्यालयों में जाना  बंद हो चुका था . आठ-दस घंटे टेलिविज़न के न्यूजरूम में खटने के बाद कहीं और जाने का मन नहीं कहता था .  कोई ज़रूरत भी नहीं थी.  २७ दिसम्बर १९९७ को शनिवार था  लिहाजा घर पर आराम कर रहा था . उस वक़्त के हम लोगों के दोस्त अली साहब का फोन आया और जो कुछ उन्होंने फोन पर बताया उसके बाद मेरी  आँखों के सामने  अँधेरा छा गया .उन्होंने बताया कि हमारे दोस्त दिलीप कुमार नहीं रहे. मैं सन्नाटे में आ गया . समझ में नहीं आ रहा था कि  क्या हो गया . बहरहाल अपनी पत्नी को बताया और यह निवेदन करके कि अभी बच्चों को न बताएं ,   मैं दिलीप के घर  के लिए रवाना हो गया .पुष्प विहार की सरकारी कालोनी से मुनीरका डीडीए फ्लैट की दूरी यही कोई आठ किलोमीटर की होगी लेकिन मुझे लगा कि इतनी लम्बी दूरी मैंने ज़िंदगी में कभी नहीं तय की .  वहां पंहुंच कर देखा तो कोहराम मचा हुआ था .  वहां से हम दिलीप कुमार के शरीर को लेकर लोधी रोड के श्मशान पंहुचे . वहां पर भी जो भी था सब सन्नाटे में ही था . अपनी मृत्यु के पहले काफी समय से दिलीप कुमार किसी अखबार आदि में नहीं थे इसलिए जो लोग किसी के अंतिम संस्कार में  हाजिरी लगाने आते है , वे वहां नहीं थे. जो भी वहां आया था ,दिलीप का दोस्त था और गुमसुम था .किसी अपने ख़ास के चले जाने की  जो तकलीफ होती है , वह सब के चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी.
दिलीप कुमार का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था  लेकिन मैं उसको स्वीकार नहीं कर पा रहा था , आज भी नहीं स्वीकार कर पाया हूं.. उनके परिवार पर वह दिन वज्रपात जैसा था. अपने भाई अनूप को दिलीप जान से बढ़कर मानते थे. उनकी बहन आशा तो उनकी बेटी ही थी. जब दिल्ली में दिलीप कुमार से मेरी मुलाक़ात हुई थी तो उनके घर एक बेटी का जन्म हुआ था . कई बार मुझे लगता है कि अपनी नवजात बेटी से ज़्यादा वे  बहन आशा को मानते थे . उत्तर प्रदेश के बहराइच  शहर में उनका बचपन बीता था.  जब बहुत ही छोटे थे तभी माता पिता , एक के बाद एक  स्वर्गवासी हो गए . दोनों छोटे भाई बहनों को संभालने का ज़िम्मा दिलीप पर आ गया और उसको उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी  से निभाया .  खुद भी पढाई करते रहे और अनूप और आशा को भी पढ़ाते रहे .  भाई ने बी कॉम किया , बाद में एल एल बी भी किया . आजकल हिंदी में कानूनी पत्रकारिता का चोटी का जानकार है .बहन आशा ने दिल्ली के विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम ए  किया .दोनों का शादी व्याह दिलीप कुमार ने जिस तरह से किया उससे लगता था कि कोई बाप अपने बच्चों के लिए सुनहरे भविष्य की  तजवीज कर रहा है . बहरहाल भाई बहन  अपने अपने घरों में अपनी ज़िंदगी अपने अपने तरीके से जी रहे हैं.

जब  दिलीप की मृत्यु हुई तो उनके अपने दोनों बच्चे साकेत स्थित ज्ञान भारती स्कूल में बारहवीं में पढ़ते थे .उनकी मृत्यु के कुछ दिन बाद ही उनके दोनों बच्चों के प्री बोर्ड इम्तिहान होने वाले थे .  उन बच्चों पर क्या गुज़र रही थी , उसका अनुमान लगा सकना मेरे लिए बिलकुल मुमकिन नहीं है.  उनके भाई अनूप भटनागर  को देखकर लगता था कि उसका सब कुछ लुट  चुका था.  दिलीप के शरीर को जब वाहन पर रखा गया तो उनकी पत्नी ने जिस तरह से उनको  अंतिम विदा दी , वह  दृश्य मुझे हमेशा ही याद रहता है. शरीर गाडी में रखा जा चुका था और उन्होंने कुछ काले ,कुछ सफ़ेद हो रहे घने बालों  को जिस तरह से चूमा था, वह एक ऐसा मंज़र था जिसको देखकर सर्वस्व लुट जाने के किसी दर्दनाक   सच्चाई का तसव्वुर किया जा सकता है . .इस बात में दो राय नहीं है कि अभाव में जीते हुए अपने भाई-बहन और बच्चों उन्होंने एक शानदार ज़िंदगी देने की कोशिश की थी . आज के ज़माने में इस तरह का अपनापन देखने को मिलता तो  है लेकिन बहुत कम ऐसे लोग हैं .
हिंदी और रामचरित मानस के बड़े विद्वान स्व. लल्लन प्रसाद व्यास की बेटी मंजू व्यास से दिलीप कुमार ने प्रेम विवाह किया था . उत्तर प्रदेश के बनारस में गुजराती ब्राह्मणों की ठीक ठाक आबादी है . कुछ बहराइच में भी थी . वर्ण व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर विराजने वाले इन गुजराती ब्राह्मणों में उन दिनों  गुजराती मूल के ही लोगों में शादी व्याह का रिवाज़ था . दिलीप कुमार ब्राह्मण नहीं थे लेकिन उन्होंने जाति और वर्ण प्रथा की फौलादी दीवार को तोडा . अपनी प्रियतमा को  पत्नी के रूप में स्थापित करने के  लिए खासी मशक्क़त की ,पापड़ बेले और शादी की .  

दिलीप कुमार को गुस्सा नहीं आता था या  आता रहा  होगा तो मैंने नहीं देखा . मुझसे उनका रिश्ता बहुत ही बराबरी का था . हिंदी के कई बड़े अखबारों में उन्होंने काम किया था. दैनिक जागरण और अमर उजाला के दिल्ली संवाददाता के रूप में इज्ज़त  कमाई थी . १९८९ में जब उदयन शर्मा ने हिंदी ऑब्ज़र्वर को नए सिरे से शुरू किया तो हिंदी के कुछ बहुत अच्छे पत्रकारों की टीम बनाई थी . उसमें दिलीप कुमार भी थे.  राजनीतिक संवाददाता के रूप में उन्होंने बहुत ही नाम कमाया . दिलीप के साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों में काम कारने वाले कई सूरमा पत्रकार आज बड़ी संपत्ति के मालिक हैं  लेकिन  बहराइच से आया हुआ यह फकीर  कम से कम में ही  ज़िंदगी जीता रहा . अपने ऊपर और अपनी पत्नी के ऊपर पड़ने वाली तकलीफों को कभी अपनी सधुक्कड़ी में रोड़ा नहीं बनने दिया . मेरे जिले की अमेठी  तहसील ( अब जिला ) के सांसद और देश के प्रधानमंत्री ,स्व राजीव गांधी से बहुत ही गंभीरता से बात करते मैंने दिलीप को कई बार देखा  है . लेकिन उसने उनसे कभी कोई लाभ नहीं लिया . करीब छियालीस  साल की उम्र में उनका देहान्त हुआ लेकिन तब तक उनके पास पूरे देश में कहीं कोई घर या ठिकाना नहीं था. उनके भाई अनूप भटनागर की शादी  १९९५ में हुई थी. उसके बाद दिलीप ने उनको अपनी पत्नी के साथ कम्प्लीट ज़िंदगी जीने का  स्पेस देने की बात मुझसे कई बार की थी . तब तक अनूप के पास अच्छी नौकरी थी . दिलीप खुद भी एक अच्छे अखबार में काम करते थे . भाई को  किराये के अच्छे फ़्लैट में शिफ्ट करने के बाद उसके  चेहरे पर जो संतुष्टि का भाव था , वह मुझे हमेशा याद रहेगा . भाई का बेटा,  अक्षत जब  पैदा हुआ तो ऐसा लगता था दिलीप कुमार को जैसे दुनिया मिल गयी हो.
मेरे लिए दिलीप का जाना एक ऐसी खाली जगह है जो मैं अभी तक नहीं भर पाया हूं. दिलीप की मृत्यु के कुछ दिन बाद तक मुझे  समझ में ही नहीं आता था कि क्या करूं. उनकी प्रेस क्लब में आयोजित शोक सभा में मैं नहीं गया . मैं दिलीप का  शोक मानाने के लिए तैयार नहीं था . मैंने अनूप , उनकी भाभी ,उनके बच्चों से मिलने की हिम्मत जुटाने में  बहुत समय लगा दिया . जिस समय वे  गए थे , वह समय हम जैसे सभी लोगों के लिए अपने बच्चों  और रोज़गार को संभाले रखने के लिहाज से कठिन दौर था . हमारी मुलाकातें बहुत कम होती थीं . लेकिन अपनापन था , खूब था . जब  कई महीने मैं अनूप से नहीं मिला तो अनूप कुमार एक दिन मेरे घर आये और मुझसे कहा कि , " भइया  आप यह बताइए कि मैं कैसे  संभला हुआ   हूं. अब तो वे गए और आपको यह बात स्वीकार करना पडेगा कि आपके दोस्त अब दुनिया में नहीं है " . उसके बाद से दिलीप कुमार की मृत्यु मेरे लिए एक   वास्तविकता है और उनके बच्चे , उनका भाई , उनका परिवार मेरा अपना परिवार जैसा है .  हालांकि यह भी सच है कि एक दोस्त के लिए अपने स्वर्गीय दोस्त की बात कर पाना बहुत मुश्किल है लेकिन जिस तरह से उनकी पत्नी ने दिन रात मेहनत करके ,  ट्यूशन करके  , अनुवाद का काम करके अपने बच्चों को सफलता के मुकाम तक पंहुचने के अवसर दिए ,वह बहुत ही सम्मान और गर्व का विषय है . उनकी बेटी बहुत छोटी थी लेकिन उसने अपनी मां को कभी अकेला नहीं महसूस होने दिया . बेटा दिन रात काम करके अपनी मां को वही रूतबा देता है जो  दिलीप के  होने पर मिलता. दिलीप की मृत्यु के बाद नोयडा में किश्तों पर एक एल आई जी फ़्लैट एलाट हो गया  था , उसी को बेचकर बेटे और मां ने एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में  फ़्लैट ले लिया है . दोनों बच्चों में मां को साथ रखने को लेकर कभी कभी  लड़ाई भी हो जाती है . बिटिया लंदन  में रहती है . उसकी ज़िंदगी बहुत ही पुरसुकून है . बीबीसी के पत्रकार के रूप में उसका बहुत नाम है . बेटा एक विदेशी कंपनी में प्रबंधक है . उनकी मां नोयडा और लन्दन के बीच में आती जाती रहती हैं .
अब सब कुछ  ठीक है लेकिन पता नहीं क्यों हर साल  दिसम्बर के अंतिम दिनों में दिलीप कुमार की याद मुझे अकेला छोड़ देती है . दिलीप की याद मेरे लिए भलमनसाहत की एक थाती है .


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