शेष नारायण सिंह
झारखण्ड विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश की राजनीति की दिशा बदलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण दिशा दे दी है .सत्ताधारी बीजेपी के लिए झारखण्ड में मिली हार का भावार्थ बहुत ही अहम है . हालांकि इसी साल हुए लोकसभा चुनावों में इसी झारखण्ड राज्य से बीजेपी को ज़बरदस्त सफलता मिली थी लेकिन विधानसभा चुनाव में उसकी हार उससे भी ज्यादा ज़बरदस्त है .मुख्यमंत्री , विधानसभा अध्यक्ष और पार्टी के अध्यक्ष को उनकी अपनी सीट पर बड़ी हार का सामना करना पड़ा है .हालांकि पार्टी के शुभचिन्तक यह दावा करते पाए जा रहे हैं कि विजयी गठबंधन की तुलना में उनके मत प्रतिशत में कोई ख़ास कमी नहीं आयी है . सबको मालूम है कि दिल को बहलाने को यह ख्याल अच्छा हो सकता है लेकिन यह केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के लिए यह बहुत ही दुखद सन्देश है . सबको मालूम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने अपने नए चुनावजीतू हथियार, कश्मीर में अनुच्छेद ३७० का खात्मा और नागरिकता संशोधन कानून लेकर उतरे थे . खूब जमकर प्रचार किया था . दोनों बड़े नेताओं ने मिलकर करीब २० सभाएं की थीं, चुनाव आयोग की तरफ से भी कृपा बरसी थी क्योंकि झारखण्ड जैसे छोटे राज्य में लगभग आधे दर्जन चरणों में चुनाव की घोषणा करके प्रधानमंत्री की हर सभा को वफादार टीवी चैनलों पर लाइव प्रसारित किये जाने का अवसर दिया गया था . मुराद यह कि प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष का सन्देश राज्य ही नहीं देश के कोने कोने तक पंहुचाया गया था . इतना ही नहीं , बीजेपी विरोधी वोटों को तितर बितर करने के लिए अपने वफादार सहयोगियों , राम विलास पासवान , सुदेश महतो , नीतीश कुमार और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टियों को बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा गया था . पन्ना प्रमुखों की फ़ौज को पूरी तरह से सक्रिय किया गया था . मुस्लिम विरोधी विमर्श को प्रमुखता से मीडिया के ज़रिये सार्वजनिक बहस में लाया गया था . चाकर पत्रकारों की मदद से टीवी चैनलों के डिबेट के ज़रिये भी एजेंडा को सेट करने की कोशिश की गयी थी . कुछ जाहिल किस्म के मुसलमानों को टीवी डिबेट में गाली खाने के लिए तैयार करके चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम बनाने की भी पूरी कोशिश की गयी थी. यानी झारखण्ड चुनाव जीतने के लिए हर तिकड़म अपनाई गयी थी लेकिन बीजेपी को झारखण्ड विधानसभा चुनाव में निर्णायक हार का सामना करना पड़ा . झारखण्ड की हार का सन्देश बहुत दूर तक जाने वाला है . २०१९ में नरेंद्र मोदी की भारी जीत के बाद राज्यों के चुनावों में यह बीजेपी की करारी हार है . हालांकि लगभग साल भर पहले , उड़ीसा, तेलंगाना ,आंध्र प्रदेश ,मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी पार्टी की हार हुयी थी लेकिन पार्टी के प्रवक्ता उसको उतनी बड़ी हार मानाने को तैयार नहीं होते थे क्योंकि उसके बाद ही हुए लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को उन्हीं राज्यों में ज़बरदस्त सफलता मिली थी . अन्य बातों के अलावा बालाकोट के असर ने चौतरफा जीत का डंका बजा दिया था. लेकिन २०१९ की मोदी की जीत के बाद महाराष्ट्र में सरकार गंवाना , हरियाणा में चौटाला परिवार के सामने घुटने टेकना जैसे कारनामों से पार्टी के नेतृत्व को बहुत खुशी नहीं हुयी है .सब के ऊपर झारखण्ड में अपमानजनक हार ने बीजेपी को वह आइना दिखा दिया है जिसको पार्टी कभी नहीं देखना चाहती. हालांकि पार्टी के सबसे बड़े नेताओं ने हार स्वीकार कर ली है और हेमंत सोरेन को बधाई भी दे दी है लेकिन मीडिया में मौजूद बीजेपी के वफादार कारिंदे अभी भी मत प्रतिशत और कांग्रेस की घटती चुनावी हैसियत के ज़रिये दिलासा देने के काम में लगे हुए हैं .
झारखंड चुनाव में बीजेपी की हार के बहुत सारे कारण होंगे लेकिन उनके सबसे बड़े मददगार का चुनावी सीन से गैरहाजिर रहना भी एक बड़ा फैक्टर है .राहुल गांधी का बीजेपी के चुनावी विमर्श को धार देने में पिछले छः वर्षों में बड़ा योगदान रहा है . जयपुर चिंतन बैठक के दौरान २४ अकबर रोड के उस वक़्त के प्रभावशाली और चाटुकार कांग्रेसियों ने उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बनवाया था . उसके बाद से उनके सुभाषितों को बीजेपी के प्रवक्ता और नेता इस्तेमाल करते रहे हैं . तत्कालीन प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने 'शहजादे' शब्द का जितना उपयोग किया वह राजनीतिशास्त्र के विद्याथियों के लिए सन्दर्भ का विषय है . उसके बाद से वे बीजेपी की तरफ से आयी हर गुगली पर शॉट लगाते रहे और अपनी पार्टी को लगातार कमज़ोर करते रहे . हर बात पर प्रतिक्रिया देना और उलटे सीधे चुनावी समझौते करना , अजीबोगरीब लोगों को हरियाणा और मुंबई शहर में पार्टी का इंचार्ज बनाना उनके कुछ ऐसे कारनामे हैं जो कांग्रेस को बड़ी चोट दे गए हैं . जिस आदमी को उन्होंने हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था ,बाद में वही उनकी पार्टी का दुश्मन बना . अपने कार्यकाल में उसने राज्य के बड़े कांग्रेसी नेता , भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को अपमानित करने की कई बार कोशिश की . जानकार बताते हैं कि अगर सोनिया गांधी ने हुड्डा को कांग्रेस का चार्ज न दिया होता तो वह राहुल गांधी वाला पहलवान तो खट्टर सरकार को कांग्रेस में रहते हुए भारी बहुमत से जिताता . यह भी कहा जाता है कि अगर हुड्डा को छः महीने का और समय मिला होता तो आज हरियाणा की तस्वीर कुछ और होती . राहुल गांधी के मुंबई कांग्रेस वाले चेलों ने महानगर से उत्तर भारतीयों, दलितों और अल्पसंख्यकों को कांग्रेस से दूर कर दिया . सभी जानते हैं कि मुंबई में कांग्रेस की जीत में इन्हीं तीन वर्गों का योगदान ऐतिहासिक रूप से हुआ कारता था. इन वर्गों के किनारा करने के बाद का नतीजा दुनिया के सामने है . दरअसल हर बात पर कुछ न कुछ टिप्पणी करके राहुल गांधी ने कांग्रेस का बहुत नुक्सान पंहुचाया है . जबकि सोनिया गांधी उतना ही बोलती हैं जो ज़रूरी होता है . लोकसभा चुनावों में हार के बाद जब राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से तौबा की तो सोनिया गांधी ने एक बार फिर नेतृव संभाला . उसके बाद हरियाणा में पार्टी का नेतृत्व मज़बूत हुआ , बड़े समझौते किए गए और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य से बीजेपी को सरकार से दूर रखने में सफल हुईं . उन्होंने झारखण्ड में बीजेपी की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई .
झारखण्ड में कांग्रेस के बेहतर नतीजों के लिए केवल सोनिया गांधी की राजनीतिक सूझबूझ को ही ज़िम्मेदार माना जाएगा . उन्होंने आर पी एन सिंह को झारखण्ड में अपना प्रतिनिधि तय किया और उनको अधिकार दिया . आरपी एन सिंह ने भी चुनाव प्रबंधन की अमित शाह शैली को अपनाया . वहीं झारखण्ड में जाकर चालीस दिनों के लिए अपने आपको स्थापित कर दिया . अमित शाह की भी यही शैली है .२०१४ के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदश के प्रभारी महासचिव के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अपना घर बना लिया था. बीजेपी के तमाम बड़े नेता दरकिनार कर दिए गए थे और नए नेता सामने आये थे . वे नए नेता आज संसद और विधानसभाओं में विराजते हैं. उसी तरह आर पी एन सिंह ने भी झारखण्ड की कमान संभालने के बाद वहां के मीडिया में चचित कांग्रेसियों को एक कोने में कर दिया और मुकामी प्रभावशाली नेताओं को साथ लिया . सबसे बड़ा काम जो उन्होंने किया वह आर जे डी और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के बीच ताल मेल बैठाये रहे . कांग्रेस को वहां १६ सीटें मिली हैं . इतनी सीटें पार्टी को १९ वर्षों में कभी नहीं मिली थीं. ज़ाहिर है सोनिया गांधी की राजनीतिक कुशलता के कारण ही आज बीजेपी को झारखण्ड में पैदल होना पड़ा है .
सोनिया गांधी को हमने १९९८ में कांग्रेस पार्टी का काम सँभालते देखा है. सीताराम केसरी पार्टी के अध्यक्ष थे , हटने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में एक योजना बनाई गयी और केसरी जी को कांग्रेस मुख्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया . उसके बाद सोनिया गांधी ने लगातार काम किया . तरह तरह के गठबन्धन बनाए और अटल बिहारी वाजपेयी और उनके मुख्य रणनीतिकार प्रमोद महाजन के इण्डिया शाइनिंग के सपने को सत्ता से बेदखल करके डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया . देश की खस्ताहाल हो चुकी अर्थव्यवस्था को डॉ मनमोहन सिंह पटरी पर लाये और देश में खुशहाली का माहौल पैदा हुआ .अज उन्हीं सोनिया गांधी के हाथ में कांग्रेस की सत्ता की कमान है . जानकार बताते हैं कि अगर आज राहुल गांधी कांग्रेस के फैसले कर रहे होते तो शिवसेना के साथ कभी न जाते और महाराष्ट्र में उनकी पार्टी के विधायकों की मदद से ही बीजेपी की सरकार बन गयी होती. जिस तरह से टीवी चैनलों की बहसों में कांग्रेस के ऊपर धर्मनिरपेक्षता को भूल जाने के आरोप लग रहे थे और नेहरू की राजनीति को भिला देने के ताने मारे जा रहे थे ,वह राहुल गांधी को कभी बर्दाश्त न होते और वे शिवसेना से गठबंधन के विचार को अपनी पार्टी में न आने देते . झारखण्ड में भी दिल्ली में बैठे उनके सलाहकार संभालते और आज वहां कांग्रेस एकाध सीट जीतकर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा को प्राप्त हो चुकी होती . लेकिन सोनिया गांधी ने तिनका तिनका जोड़कर कांग्रेस को फिर से ताकत देने की कोशिश शुरू कर दी है . अगर अगले कुछ चुनावों तक राहुल गांधी ने उनको फैसले लेने दिया तो कांग्रेस को भविष्य में भी चुनावी लाभ मिलता रह सकता है .
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