शेष नारायण सिंह
लोकसभा चुनाव २०१९ के लिए राजनीतिक पार्टियां पूरी तैयारी कर रही हैं .गठबंधन का काम शुरू हो गया है. दिल्ली की सत्ता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत का सबसे बड़े कारणों में हिंदी क्षेत्रों में उनकी क जीत सबसे महत्वपूर्ण थी.. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान ,दिल्ली, हरियाणा , पंजाब , हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड में उनकी जीत ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका रास्ता साफ कर दिया था . २०१४ में आयी मोदी लहर का फायदा बीजेपी को बाद में हुए विधानसभा चुनावों में भी मिला और पार्टी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना एक सचाई का रूप लेने लगा . लेकिन २०१८ में हुए पांच विधानसभा चुनावों में बीजेपी को एक झटका लगा . उसकी तीन सरकारें चली गयीं और वहां कांग्रेस की सरकार आ गयी . कांग्रेस मुक्त भारत का सपना इन पांच विधान सभा चुनावों में दफन हो गया . कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी भी एक नेता के रूप में उभरे जबकि बीजेपी वाले उनको अधिक से अधिक अपने प्रवक्ता संबित पात्रा के स्तर का ही नेता मानते थे . पिछले तीन चार साल में बीजेपी ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक अपरिपक्व नेता के रूप में भी पेश किया है . उनका नाम इतनी बार लिया गया कि उनका मुफ्त में प्रचार होता रहा और जहां एक समय में बीजेपी या उसके सहयोगियों की सरकारें बाईस राज्यों में थीं, वह संख्या अब कम हो रही है . २०१८ के विधान सभा चुनावों में बीजेपी की हार का असर यह हुआ कि सभी पार्टियां मानने लगीं कि मोदी के नेतृत्व वाली पार्टी को हराया जा सकता है . नतीजा सामने है . कई राज्यों में ऐसे ऐसे गठबंधन बन रहे हैं जो बीजेपी की जीत को बहुत ही मुश्किल बनाने की क्षमता रखते हैं .
बीजेपी को हराने के लिए देश के अलग अलग राज्यों में अलग अलग गठबंधन बन सकते हैं . यह बात पहले दिन से ही असंभव मानी जा रही थी कि सभी विरोधी पार्टियां एक साथ आकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देंगीं . हालांकि बीजेपी और टीवी चैनलों के साथ साथ कांग्रेस के दिल्ली में रहने वाले और सोनिया गांधी के परिवार की चापलूसी करने वाले कांग्रेसी नेताओं की कोशिश थी राहुल गांधी के नेतृत्व में एक महागठबंधन बन जाये . ज़मीन पर कहीं भी ऐसा नहीं था. शरद पवार ने बहुत पहले कह दिया था कि अलग अलग राज्यों में बिलकुल अलग तरह का गठबंधन बनेगा . मसलन बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ हैं तो केरल में दोनों आमने सामने हैं और एक दूसरे को हराकर सरकार बनाने के सपने देख रही हैं . मायावती और अखिलेश यादव राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को समर्थन दे रहे हैं तो उत्तर प्रदेश में उनको गठबंधन में भी शामिल करने को तैयार नहीं हैं .एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का समझौता बहुत ही दिलचस्प है .१२ जनवरी को जिस समझौते की घोषणा लखनऊ में मायावती ने किया वह बीजेपी के लिए चिंता का विषय है . उसी दिन दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद् की बहुत ही महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी लेकिन बहुत सारे टीवी चैनलों ने मायावती और अखिलेश यादव की प्रेसवार्ता को लाइव दिखाया . अगले दिन भी कुछ अति समर्पित अखबारों को छोड़कर अधिकतर अखबारों ने बीजेपी की इतनी बड़ी खबर को दूसरे स्थान पर रखा . मुख्य खबर लखनऊ वाली ही रही. यह समझौता ऐसा है जिसकी सम्भावना को ही बीजेपी वाले असंभव मानते थे . उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का २३ साल पुराना समझौता जिस गेस्ट हाउस काण्ड के कारण टूटा था वह वाकया दोबारा समझौता नहीं होने देगा . लेकिन हो गया और मायावती ने पत्रकार वार्ता में दो बार कहा कि गेस्ट हाउस काण्ड की छाया के बाहर निकल कर वे समझौता कर रही हैं . अखिलेश यादव के चाचा , शिवपाल यादव जिन्होने गेस्ट हाउस काण्ड को करवाया था , वे अब अखिलेश की पार्टी के दुश्मन बने हुए हैं . आरोप तो यह भी लग रहे हैं कि शिवपाल यादव ने जो पार्टी बनाई है उसको बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है . बहरहाल अब सपा-बसपा में उत्तर प्रदेश में गठबन्धन है और बकौल मायावती इस गठबंधन की खबर ने बीजेपी के बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है .
उत्तर प्रदेश के गठबंधन की ख़ास बात यह है कि इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया है . जानकार बता रहे हैं कि कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला इसलिए लिया गया है कि जिस तरह से कांग्रेस की मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में वापसी हुयी है अगर उसी तरह से उत्तरप्रदेश में भी हो जायेगी तो अभी तो खैर वह बीजेपी को हराने में सहयोग देगी लेकिन बाद में सपा-बसपा के अस्तित्व को भी चुनौती दे सकती है. कांग्रेस को बाहर रखकर सपा-बसपा ने एक तरह से बीजेपी को फायदा पंहुचाया है . सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के एक सर्वे का आकलन है कि अगर सपा-बसपा-कांग्रेस साथ हों तो वे उत्तर प्रदेश में ५७ सीट जीत सकते हैं लेकिन यदि कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा तो सपा-बसपा की जोड़ी केवल ४१ सीट पर ही सफल होगी . इसके बावजूद भी मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला किया . इसका कारण शायद यह है कि दोनों ही पार्टियां आने वाले समय में कांग्रेस को अपना प्रतिद्वंदी बनने का मौक़ा नहीं देना चाहती हैं . क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मज़बूत होगी तो सपा और बसपा जो भविष्य में ज़्यादा नुकसान होगा . जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि उत्तर प्रदेश का मौजूदा गठबंधन बीजेपी की सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती देने वाला है .
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