शेष नारायण सिंह
लोकसभा चुनाव २०१९ के लिए राजनीतिक पार्टियां पूरी तैयारी कर रही हैं .अब चुनाव में कुछ हफ्ते ही बाकी हैं . पांच साल पहले के माहौल से अगर तुलना की जाए तो मामला बहुत ठंडा लगेगा . जब २०१४ की मोदी लहर का चुनाव अभियान शुरू हुआ था तो ज़्यादातर इलाकों में मोदी मोदी के नारे लगना शुरू हो गए थे . अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद कांग्रेस पार्टी को भ्रष्टाचार के पर्यावाची के रूप में स्थापित करने में पूरी सफलता मिल चुकी थी. नरेंद्र मोदी को मीडिया के सहयोग से एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया था . भ्रष्टाचार मुक्त शासन , प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियाँ और गुजरात माडल का विकास चुनाव का संचारी भाव बन चुका था और नरेंद्र मोदी एक हीरो के रूप में उभर रहे थे . उनकी बात पर विश्वास किया जा रहा था . जब उन्होंने कहा कि किसानों की आमदनी को दुगुना कर दिया जाएगा तो लोगों ने उनका विश्वास किया था . दो करोड़ नौकरियाँ प्रतिवर्ष का वादा ऐसा था जिसने ग्रामीण भारत के नौजवानों में एकदम करेंट जैसा लगा दिया था .सभी बेरोजगार लड़के नरेंद्र मोदी के ब्रैंड अम्बेसडर बन चुके थे. मोदी लहर चारों तरफ देखी जा रही थी . जब चुनाव हुआ तो केंद की सत्ता पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी सुनिश्चित की जा चुकी थी . दिल्ली की सत्ता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत के कारणों में हिंदी क्षेत्रों में उनकी जीत सबसे महत्वपूर्ण थी.. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान ,दिल्ली, हरियाणा , पंजाब ,हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड में उनकी जीत ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका रास्ता साफ कर दिया था . २०१४ में आयी मोदी लहर का फायदा बीजेपी को बाद में हुए विधानसभा चुनावों में भी मिला और पार्टी का कांग्रेसमुक्त भारत का सपना एक सचाई का रूप लेने लगा . लेकिन बाद में मोदी के वायदों पर सवाल उठने लगे.भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामले सामने आने लगे. राहुल गांधी जो २०१४ के चुनाव के पहले एक शर्मीले नौजवान के रूप में देखे जाते थे, इस बार वे राफेल मुद्दे को उठाकर बोफोर्स जैसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं .
आज का माहौल देखने से साफ़ लगने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम बैकफुट पर है . हर साल दो करोड़ नौकरियाँ, किसानों की दुगुनी आमदनी और अच्छे दिन की बातें अब बीजेपी के नेताओं को अच्छी नहीं लग रही हैं . माहौल ऐसा है कि २०१८ में हुए पांच विधानसभा चुनावों में बीजेपी को ज़बरदस्त झटका लग चुका है . उसकी तीन सरकारें चली गयीं और वहां कांग्रेस की सरकार आ गयी . कांग्रेसमुक्त भारत का सपना इन पांच विधान सभा चुनावों में दफन हो गया . कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी जो अब एक नेता के रूप में उभर चुके हैं, वे मोदी सरकार के ऊपर लगातार भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर माहौल को गरमा रहे हैं .पहले आलम यह था कि बीजेपी वाले उनको अधिक से अधिक अपने प्रवक्ता संबित पात्रा के स्तर का ही नेता मानते थे .लेकिन अब उनसे लोग डरने लगे हैं . पिछले तीन चार साल में बीजेपी ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक अपरिपक्व नेता के रूप में भी पेश किया है . साथ साथ उनका नाम इतनी बार लिया गया कि उनका मुफ्त में प्रचार होता रहा और जहां एक समय में बीजेपी या उसके सहयोगियों की सरकारें बाईस राज्यों में थीं, वह संख्या अब कम हो रही है . २०१८ के विधान सभा चुनावों में बीजेपी की हार का असर यह हुआ कि सभी पार्टियां मानने लगीं कि मोदी के नेतृत्व वाली पार्टी को हराया जा सकता है . नतीजा सामने है . कई राज्यों में ऐसे ऐसे गठबंधन बन रहे हैं जो बीजेपी की जीत को बहुत ही मुश्किल बनाने की क्षमता रखते हैं . पिछले साल हुए विधान सभा चुनाव में कर्नाटक में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी . गवर्नर के सौजन्य से वहां सरकार भी बनाई लेकिन चला नहीं पाए क्योंकि ज़रूरी संख्या का जुगाड़ नहीं हो पाया . कर्नाटक में बीजेपी के आला नेता और मुख्यमंत्री पद के दावेदार येदुरप्पा को यह बात किसी भी सूरत में हजम नहीं हो रही है कि वे मुख्य मंत्री पद पर विराजमान नहीं हैं. एच डी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे दो बार कोशिश कर चुके हैं कि उस सरकार को गिराकर खुद सत्तासीन हो जाएँ लेकिन सफल नहीं हुए. इस बार के असफल प्रयास के बारे में तो कहा जा रहा है कि उनकी कोशिश को दिल्ली के बड़े नेताओं ने नापसंद किया और उनको फटकार भी लगाई .२०१४ में बीजेपी को कर्नाटक से लोकसभा की १७ सीटें मिली थीं . पार्टी के सामने उन सीटों को बचाकर रखने की चुनौती है . शायद इसीलिये येदुरप्पा को शुरू में पार्टी ने उत्साहित किया था लेकिन जब पता लगा कि वे बिना पूरी तैयारी के धनुष बाण लेकर चल पड़े थे तो उनको औकात बता दी गयी .
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में हार के बाद बीजेपी में कई जगहों पर असंतोष भी देखा जा रहा है . लेकिन जो सबसे बड़ी चिंता की बात है वह यह है कि बीजेपी को हराने के लिए देश के अलग अलग राज्यों में अलग अलग गठबंधन बन सकते हैं . यह बात पहले दिन से ही असंभव मानी जा रही थी कि सभी विरोधी पार्टियां एक साथ आकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देंगीं . हालांकि बीजेपी और टीवी चैनलों के साथ साथ कांग्रेस के दिल्ली में रहने वाले और सोनिया गांधी के परिवार की चापलूसी करने वाले कांग्रेसी नेताओं की कोशिश थी राहुल गांधी के नेतृत्व में एक महागठबंधन बन जाये . ज़मीन पर कहीं भी ऐसा नहीं था. शरद पवार ने बहुत पहले कह दिया था कि अलग अलग राज्यों में बिलकुल अलग तरह का गठबंधन बनेगा . मसलन बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ हैं तो केरल में दोनों आमने सामने हैं और एक दूसरे को हराकर सरकार बनाने के सपने देख रही हैं . मायावती और अखिलेश यादव राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को समर्थन दे रहे हैं तो उत्तर प्रदेश में उनको गठबंधन में भी शामिल करने को तैयार नहीं हैं .एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का समझौता बहुत ही दिलचस्प है .१२ जनवरी को जिस समझौते की घोषणा लखनऊ में मायावती ने किया वह बीजेपी के लिए चिंता का विषय है . उसी दिन दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद् की बहुत ही महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी लेकिन बहुत सारे टीवी चैनलों ने मायावती और अखिलेश यादव की प्रेसवार्ता को लाइव दिखाया . अगले दिन भी कुछ अति समर्पित अखबारों को छोड़कर अधिकतर अखबारों ने बीजेपी की इतनी बड़ी खबर को दूसरे स्थान पर रखा . मुख्य खबर लखनऊ वाली ही रही. यह समझौता ऐसा है जिसकी सम्भावना को ही बीजेपी वाले असंभव मानते थे . उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का २३ साल पुराना समझौता जिस गेस्ट हाउस काण्ड के कारण टूटा था वह वाकया दोबारा समझौता नहीं होने देगा . लेकिन हो गया और मायावती ने पत्रकार वार्ता में दो बार कहा कि गेस्ट हाउस काण्ड की छाया के बाहर निकल कर वे समझौता कर रही हैं . अखिलेश यादव के चाचा , शिवपाल यादव जिन्होने गेस्ट हाउस काण्ड को करवाया था , वे अब अखिलेश की पार्टी के दुश्मन बने हुए हैं . आरोप तो यह भी लग रहे हैं कि शिवपाल यादव ने जो पार्टी बनाई है उसको बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है . बहरहाल अब सपा-बसपा में उत्तर प्रदेश में गठबन्धन है और बकौल मायावती इस गठबंधन की खबर ने बीजेपी के बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है .
उत्तर प्रदेश के गठबंधन की ख़ास बात यह है कि इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया है . जानकार बता रहे हैं कि कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला इसलिए लिया गया है कि जिस तरह से कांग्रेस की मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में वापसी हुयी है अगर उसी तरह से उत्तरप्रदेश में भी हो जायेगी तो अभी तो खैर वह बीजेपी को हराने में सहयोग देगी लेकिन बाद में सपा-बसपा के अस्तित्व को भी चुनौती दे सकती है. कांग्रेस को बाहर रखकर सपा-बसपा ने एक तरह से बीजेपी को फायदा पंहुचाया है . सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के एक सर्वे का आकलन है कि अगर सपा-बसपा-कांग्रेस साथ हों तो वे उत्तर प्रदेश में ५७ सीट जीत सकते हैं लेकिन यदि कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा तो सपा-बसपा की जोड़ी केवल ४१ सीट पर ही सफल होगी . इसके बावजूद भी मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला किया . इसका कारण शायद यह है कि दोनों ही पार्टियां आने वाले समय में कांग्रेस को अपना प्रतिद्वंदी बनने का मौक़ा नहीं देना चाहती हैं . क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मज़बूत होगी तो सपा और बसपा जो भविष्य में ज़्यादा नुकसान होगा . जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि उत्तर प्रदेश का मौजूदा गठबंधन बीजेपी की सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती देने वाला है . यह गठबंधन बाकी राज्यों में भी चुनावी तालमेल का उदाहरण बन सकता है . कांग्रेस के दरबारी नेताओं की अगर चली तो राहुल गांधी को निश्चित नुक्सान होगा लेकिन अगर माहौल का सही आकलन करके बात आगे बढ़ी तो बीजेपी के लिए परेशानी बढ़ सकती है . अगर सभी राज्यों में सही तरीके से चुनावी गठजोड़ हो गया तो इम्पीरियल नई दिल्ली की हरी भरी सड़कों पर मई में बदलाव की हवा असंभव नहीं रहेगी .
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