मेरे बाबू का जन्म १९२४ में हुआ था . उनके बाबा ठाकुर जगेशर सिंह ज़मींदार थे . परिवार में बाबू के जन्म से बहुत ही खुशी का माहौल बन गया था क्योंकि पट्टी पिरथी सिंह को वारिस मिल गया था . उनकी बरही के दिन बहुत बड़ा जश्न हुआ था .इलाके की सभी तवायफों ने बधाई गाई थी और इनाम पाया था . आजकल बच्चों के प्रति प्रेम का सबूत यह होता है कि उनको अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाये लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था . उन दिनों अपने बच्चों को गाँव से दूर भेजना कायथ करिन्दा का काम माना जाता था .परिवार में शिक्षा के प्रति उत्साह नहीं था. इसलिए पड़ोस के नरिंदा पुर गाँव में १८६६ में जो प्राइमरी स्कूल खुला था ,वहीं से प्राइमरी तक की ही उनकी पढ़ाई हुई थी .उनके पिता और बाबा भी नरिंदापुर ही पास थे .मेरे बाबू के काका ठाकुर राम आधार सिंह सुलतानपुर के मिडिल स्कूल में पढने गए थे . बाद में वही स्कूल माडल स्कूल बन गया था. उन दिनों सुल्तानपुर और दोस्तपुर में ही मिडिल स्कूल थे . दोस्तपुर जाने के लिए गोमती नदी पार करना पड़ता था इसलिए सुल्तानपुर को ही प्राथमिकता दी जाती थी .मेरे पिताजी बहुत दुलरुआ थे इसलिए उनको सुल्तानपुर नहीं भेजा गया . हालांकि उनके काका ,ठाकुर राम आधार सिंह ने मुझसे कई बार बताया कि जब यह चहारुम ही नहीं पास हुए तो मिडिल स्कूल में कैसे भेजे जाते. उन्होंने मिडिल स्कूल पढ़कर भी बहुत तीर नहीं मारा था . मेरे चचेरे बाबा जब मिडिल स्कूल में सुल्तानपुर पढने गए तो उनके साथ गाँव के ही दो नौजवान और गए थे . एक थे राम अवध सिंह जिनके पिता बरार ( विदर्भ ,महाराष्ट्र ) में कपास के खेत में चौकीदारी करते थे लिहाज़ उनके घर बाहरी पैसा आता था . इन लोगों के तीसरे सहपाठी थे काली सहाय सिंह . उनके पिता सरकारी नौकरी में थी . डाकखाने में चिट्ठीरसा थे. बहरहाल जो भी कारण रहे हों ,मेरे पिताजी ने मिडिल की पढ़ाई नहीं की .अगर उन दिनों हाई स्कूल तक पढ़ लिया होता तो शायद हमारे परिवार की तस्वीर बदल जाती लेकिन नहीं बदली.
जब बाबू २० साल के थे ,उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी . घर में अलगौझी हो गयी . बाबू के काका का परिवार अलग हो गया . बाबू के बाबा बड़े भाई थे लिहाज़ा वे ही ज़मींदार थे. लगान पूरा वसूल नहीं हो पाता था इसलिए लगान अदा करने के चक्कर में सीर खुदकाश्त के बहुत सारे खेत और बाग़ नीलाम हो जाते थे . खुद की खेती ठीक से नहीं होती थी इसलिए ज़मींदारी उन्मूलन के पहले ही हमारे परिवार में गरीबी आ गई थी . जब १९५१ में ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो छोटे ज़मींदारों के ऊपर तो वज्र जैसा पड़ा . हमारे इलाके के पटवारी,मुसई लाल थे ,उनसे मिलजुल कर ज़्यादातर लोगों ने ज़मींदार की ज़मीन अपने नाम शिकमी करवा ली और हमारे परिवार की हालत बहुत खराब हो गई.उस समय बाबू की उम्र सताईस साल की थी . उन्होंने कुछ ज़मीन तो मुक़दमा लड़कर और कुछ ज़मीन अन्य तरीकों से वापस ली लेकिन आर्थिक सम्पन्नता की बात हमारे घर में कभी नहीं थी . हां यह भी सच है कि बाबू ने कभी किसी के सामने सर नहीं झुकाया . जब पंचायती राज की व्यवस्था लागू हुयी तो १९५२ में गाँव के प्रधान बना दिए गए . करीब ३८ साल प्रधान रहे और एकाध बार को छोड़कर हमेशा निर्विरोध ही चुने जाते रहे. शिक्षा का अभाव था इसलिए तहसील के लेखपाल और कानूनगो हमारे यहाँ बड़े अफसर माने जाते थे . लड़कियों की शिक्षा पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता था इसलिए गाँव पूरी तरह से पिछड़ा हुआ था ..
आज़ादी के बाद की बहुत सारी योजनायें मेरे गाँव में कोई असर नहीं डाल सकीं . अपने उद्यम से ही लोग जो कर सकते थे ,वही किया . सामन्ती मानसिकता के रिश्तों में जकड़ा गाँव आज शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है . शहर की अमानवीयता तो आ रही है लेकिन आपसी रिश्तों में गंवई गर्मजोशी ख़त्म हो रही है . १९९१ में मेरे पिताजी की वही उम्र रही होगी जो मेरी अब है . बहुत ज़्यादा बीमार हो गए थे . मेरी दोनों बहनें, मेरे भाई और बहन के बेटे ने उनकी बीमारी में उनको बहुत सहारा दिया . ठीक हो गए थे लेकिन वह बात नहीं बची थी जो उनकी शख्सियत का अहम हिस्सा हुआ करती थी. वे जीवन भर सभी फैसले वे खुद करते रहे थे ,किसी की राय को अपने फैसलों के बीच में नहीं आने देते थे लेकिन बीमारी के बाद फैसले लेना ही छोड़ दिया था. मेरी बहनों को बहुत मानते थे लेकिन उनको उच्च शिक्षा नहीं दिलवाई थी. इसी मुद्दे पर मेरी मां से उनका मतभेद रहा करता था जो जीवन भर चला . उन्होंने गाँव या आसपास के किसी भी आदमी का कभी कोई नुक्सान नहीं किया लेकिन कभी भी किसी और की राय को महत्व नहीं दिया . हमेशा अपनी मर्जी के मालिक रहे . उनके जीवनकाल में हम भी अपनी ज़िंदगी को सुर्खरू करने के लिए संघर्ष करते रहे. जब हम लोगों के बच्चे बड़े हो रहे थे . शिक्षा दीक्षा में प्रवीणता पा रहे थे और इस बात की संभावना बन रही थी कि हमारे माता पिता के साथ साथ हमारी भी मनई की जिनगी हो जायेगी तो १९ फरवरी २००१ के दिन वे दुनिया छोड़ गए . आज उनकी पुण्यतिथि है .
जब बाबू २० साल के थे ,उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी . घर में अलगौझी हो गयी . बाबू के काका का परिवार अलग हो गया . बाबू के बाबा बड़े भाई थे लिहाज़ा वे ही ज़मींदार थे. लगान पूरा वसूल नहीं हो पाता था इसलिए लगान अदा करने के चक्कर में सीर खुदकाश्त के बहुत सारे खेत और बाग़ नीलाम हो जाते थे . खुद की खेती ठीक से नहीं होती थी इसलिए ज़मींदारी उन्मूलन के पहले ही हमारे परिवार में गरीबी आ गई थी . जब १९५१ में ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो छोटे ज़मींदारों के ऊपर तो वज्र जैसा पड़ा . हमारे इलाके के पटवारी,मुसई लाल थे ,उनसे मिलजुल कर ज़्यादातर लोगों ने ज़मींदार की ज़मीन अपने नाम शिकमी करवा ली और हमारे परिवार की हालत बहुत खराब हो गई.उस समय बाबू की उम्र सताईस साल की थी . उन्होंने कुछ ज़मीन तो मुक़दमा लड़कर और कुछ ज़मीन अन्य तरीकों से वापस ली लेकिन आर्थिक सम्पन्नता की बात हमारे घर में कभी नहीं थी . हां यह भी सच है कि बाबू ने कभी किसी के सामने सर नहीं झुकाया . जब पंचायती राज की व्यवस्था लागू हुयी तो १९५२ में गाँव के प्रधान बना दिए गए . करीब ३८ साल प्रधान रहे और एकाध बार को छोड़कर हमेशा निर्विरोध ही चुने जाते रहे. शिक्षा का अभाव था इसलिए तहसील के लेखपाल और कानूनगो हमारे यहाँ बड़े अफसर माने जाते थे . लड़कियों की शिक्षा पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता था इसलिए गाँव पूरी तरह से पिछड़ा हुआ था ..
आज़ादी के बाद की बहुत सारी योजनायें मेरे गाँव में कोई असर नहीं डाल सकीं . अपने उद्यम से ही लोग जो कर सकते थे ,वही किया . सामन्ती मानसिकता के रिश्तों में जकड़ा गाँव आज शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है . शहर की अमानवीयता तो आ रही है लेकिन आपसी रिश्तों में गंवई गर्मजोशी ख़त्म हो रही है . १९९१ में मेरे पिताजी की वही उम्र रही होगी जो मेरी अब है . बहुत ज़्यादा बीमार हो गए थे . मेरी दोनों बहनें, मेरे भाई और बहन के बेटे ने उनकी बीमारी में उनको बहुत सहारा दिया . ठीक हो गए थे लेकिन वह बात नहीं बची थी जो उनकी शख्सियत का अहम हिस्सा हुआ करती थी. वे जीवन भर सभी फैसले वे खुद करते रहे थे ,किसी की राय को अपने फैसलों के बीच में नहीं आने देते थे लेकिन बीमारी के बाद फैसले लेना ही छोड़ दिया था. मेरी बहनों को बहुत मानते थे लेकिन उनको उच्च शिक्षा नहीं दिलवाई थी. इसी मुद्दे पर मेरी मां से उनका मतभेद रहा करता था जो जीवन भर चला . उन्होंने गाँव या आसपास के किसी भी आदमी का कभी कोई नुक्सान नहीं किया लेकिन कभी भी किसी और की राय को महत्व नहीं दिया . हमेशा अपनी मर्जी के मालिक रहे . उनके जीवनकाल में हम भी अपनी ज़िंदगी को सुर्खरू करने के लिए संघर्ष करते रहे. जब हम लोगों के बच्चे बड़े हो रहे थे . शिक्षा दीक्षा में प्रवीणता पा रहे थे और इस बात की संभावना बन रही थी कि हमारे माता पिता के साथ साथ हमारी भी मनई की जिनगी हो जायेगी तो १९ फरवरी २००१ के दिन वे दुनिया छोड़ गए . आज उनकी पुण्यतिथि है .
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