शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी को गए 71 साल हो गए। 30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और हे राम कहते हुए वे स्वर्ग चले गए थे . 30 जनवरी के पहले भी उनकी जान लेने की कोशिश हुयी थी .बीस जनवरी 1948 के दिन भी उसी बिरला हाउस में बम काण्ड हुआ था ,जहां दस दिन बाद उनकी हत्या कर दी गयी . उनकी हत्या के बाद पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में डूब गयी थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा गांधी के नेतृत्व में ही आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात आर एस एस थी जिसकी सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की हत्या हुयी थी। हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं, उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी। बाद में वह छूट कर जेल से बाहर आया और उसने गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह लिखीं। आर एस एस के लोगों के ऊपर आरोप है की उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयां आदि भी बांटी। इस बात को आर एस एस वाले शुरू से ही गलत बताते रहे हैं लेकिन इतना पक्का है की आर एस एस ने प्रकट रूप से महात्मा गांधी की मृत्यु पर कोई दुःख व्यक्त नहीं किया उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने गोलवलकर को एक अंडरटेकिंग लेकर कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी तरह से किनारा कर लिया था। और भारतीय जनसंघ नाम की एक पार्टी को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में स्वीकार कर लिया था और इस तरह आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय को आर एस एस के नागपुर मुख्यालय से जनसंघ का काम करने के लिए भेजा गया था। बाद में वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए। 1977 तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और गांधी-नेहरू की राजनीतिक विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में गांधियन सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी को कम से कम एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .
महात्मा गांधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म को निर्धारित किया .बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी तो गांधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन आजकल फिर महात्मा गांधी को अपनाने की योजना पर काम चल रहा है और अब तो बीजेपी वाले खुले आम कहते पाए जाते हैं की महात्मा गांधी कांग्रेस की बपौती नहीं हैं . हालांकि आजकल बीजेपी वाले महात्मा गांधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है की महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी दूरियां थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी राज के बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे जबकि आर एस एस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मकसद हासिल करना चाहते थे। . वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और अपना ' सांस्कृतिक काम ' चला रहे थे .
गांधियन सोशलिज्म की असफलता के बाद दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को 2 अक्टूबर को शुरू किया . योजना यह थी की 30 जनवरी1998 के दिन इस अभियान का समापन करके महात्मा गांधी को अपनी विचारधारा का समर्थक साबित कर दिया जाएगा . 2 अक्टूबर की सभा में आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख , राजेन्द्र सिंह ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि गांधीजी भारतमाता के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि उनको सरकार ने भारतरत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि महात्मा गांधी के प्रति प्रेम के इस उभार में किसी योजना का हाथ नज़र आता है .संघ परिवार ने अपने सामाजिक कार्य से भारत के बंटवारे के दौरान बहुत ही सम्मान हासिल कर लिया था . लेकिन महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस के बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारी के कारण उन्हें सम्मान मिलना बंद हो गया था।महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें राजनीतिक सम्मान मिलना शुरू हुआ लेकिन उन्हें कुछ काबिल पुरखों की तलाश लगातार बनी हुयी थी। इसी प्रक्रिया में आर एस एस प्रमुख के अलावा बीजेपी के दोनों बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी गांधीजी को सदगुणों की खान मानने लगे। महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है . महात्मा गांधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की संघ की जारी मुहिम के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने आ गए जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा काट कर लौटे नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी नहीं बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था। . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर
एस एस वाले बहुत परेशानी में पड़ गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था " जब गोपाल गोडसे को बताया गया कि आडवानी ने दावा किया है कि नाथूराम का आर एस एस से कोई लेना देना नहीं था तो गोपाल गोडसे ने जवाब दिया " मैंने उनको यह कहकर फटकार दिया है की ऐसा कहना कायराना हरकत है .. हाँ यह आप कह सकते हैं की आर एस एस ने गांधी की हत्या का कोई प्रस्ताव नहीं पास किया था लेकिन आप उनसे (नाथूराम से ) सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकते। जब 1944 में नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम करना शुरू किया था तो वे आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह थे।"
नाथूराम गोडसे दूरी बनाने और अपनी विचारधारा को महात्मा गांधी की प्रिय विचारधारा बताने के लिए भी आर एस एस वालों ने बहुत काम किया है .नवम्बर 1990 में बीजेपी के महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह खबर छापी कि कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था।
महात्मा गांधी की शहादत के सत्तर से ज्यादा साल बाद वे और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं और वे लोग भी उनके प्रशंसक हो गए हैं जिनके नेताओं के ऊपर उनकी ह्त्या की साज़िश में शामिल होने के मुक़दमे चले वे भी उनको अपनाने में जुट गए हैं .
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