शेष नारायण सिंह
राजस्थान की करणी माता के नाम पर बनी एक सेना के हवाले से एक फिल्म का विरोध आजकल राजनीतिक चर्चा के केंद्र में है.बिना फिल्म देखे लाखों नौजवान सड़क पर आ गए और तोड़ फोड़ शुरू कर दी. कुछ नेता भी पैदा हो गए और फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग शुरू कर दी . मैंने कई बार इन नेताओं से राजपूत हित की बात करने की कोशिश की लेकिन वे फिल्म पर पाबंदी के अलावा कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थे. अब फिल्म बहुत सारे लोगों ने देख लिया है और आम तौर लोगों की राय यही है कि फिल्म में रानी पद्मिनी का कोई अपमान नहीं हुआ है और राजपूत गौरव को पूरी तरह से सम्मान दिया गया है .सवाल उठता है कि बिना फिल्म देखे और उसके बारे में बिना जानकारी हासिल किये इतनी बड़ी संख्या में नौजवान राजपूत लड़कों को सड़क पर लाने वाले अब अपने आप को क्या जवाब देंगें . अब यह सवाल पूच्छे जायेंगे कि आप ने इतने बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ का जो आयोजन किया उसके पीछे आपकी मंशा क्या थी. कहीं कोई गुप्त एजेंडा तो नहीं था. के वास्तव में आपको राजपूतों के गौरव का उतना ही ध्यान रहता है जितना उन बेरोजगार नौजवानों को इकठ्ठा करने के समय आपने दिखाई थी. रानी पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है. उनको ऐतिहासिक चरित्र माना जा सकता है और राजपूतों के एक बड़े वर्ग में उनको सम्मान का मुकाम हासिल है. अब उनके सम्मान से समझौता करने वाली फिल्म का विवाद ख़त्म हो जाएगा . क्या मौजूदा आन्दोलन के नेता अब भी उनके आवाहन पर मरने मारने के लिए सड़क पर आये लोगों के कल्याण के बारे में कुछ सोचेंगे .
आन्दोलन के दौरान राजपूतों के कई नेताओं से मुलाक़ाते होती रही थीं.उनसे जब ज़िक्र किया गया कि इन बेरोजगार लड़कों के लिए उनके दिमाग में क्या कोई योजना है . तो कई लोगों ने बताया कि सरकारी नौकरियों के रिज़र्वेशन के लिए आन्दोलन चलाया जाएगा . उनको भी मालूम है कि इस तरह की बात का कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है . लड़कों को किसी बेमतलब के झगडे में फंसाए रखना ही उद्देश्य है . ऐतिहासिक रूप से राजपूतों को शोषक और उत्पीड़क के रूप में चित्रित किया जाता रहा है . उनके तथाकथित उत्पीडन से मुक्ति के लिए ही दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों को आरक्षण दिया गया था . ज़ाहिर है उनके आरक्षण की मांग को बिना विचार किये ही खारिज कर दिया जाएगा . इसलिए बेरोजगार राजपूत नौजवानों को सरकारी नौकरी के अलावा किसी और तरह का रोज़गार दिलाने के बारे में सोचना होगा. इन नेताओं के पास अवसर है कि राजपूतों को सामान्य इंसान के रूप में भी पेश करने के लिए प्रयास करें और उनकी जो शोषक की छवि बनी हुयी है उसको तोड़ें और पूर्व ज़मींदारों से गरीब राजपूतों को अलग करके प्रस्तुत करें . आज की सच्चाई यह है कि दिल्ली और नोयडा के किसी लेबर चौक पर सुबह पांच बजे चले जाइए ,वहां, उत्तर प्रदेश ,बिहार,मध्य प्रदेश और राजस्थान से दिल्ली आये राजपूत लड़के काम के इंतज़ार में खड़े मिल जायेगें . और अगर उसी चौक पर ग्यारह बजे जाकर देहें तो क्चुह्ह नौजवान निराश खड़े मिले जायेगें क्योंकि मजदूरों की मंडी में उस दिन उनको काम नहीं मिल पाया.
मेरा भी जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ है लेकिन अपनी बिरादरी की पक्षधरता की बात करने से मैं बचता रहा हूँ. उत्तर प्रदेश में ज़मींदारी उन्मूलन के आस पास जन्मे राजपूत बच्चों ने अपने घरों के आस पास ऐसा कुछ नहीं देखा है जिस पर बहुत गर्व किया जा सके. अपने इतिहास में ही गौरव तलाश रही इस पीढी के लिए यह अजूबा ही रहा है कि राजपूतों पर शोषक होने का आरोप लगता रहा है . हालांकि शोषण राजपूत तालुकेदारों और राजओंने किया होगा लेकिन शोषक का तमगा सब पर थोप दिया जाता रहा है . आम राजपूत तो अन्य जातियों के लोगों की तरह गरीब ही है . मैंने अपने बचपन में देखा है कि मेरे अपने गांव में राजपूत बच्चे भूख से तडपते थे. मेरे अपने घर में भी मेरे बचपन में भोजन की बहुत किल्लत रहती थी. इसलिए राजपूतों को एक वर्ग के रूप में शोषक मानना मेरी समझ में कभी नहीं आया.. मेरे बचपन में मेरे गाँव में राजपूतों के करीब १६ परिवार रहते थे .अब वही लोग अलग विलग होकर करीब ४० परिवारों में बँट गए हैं . मेरे परिवार के अलावा कोई भी ज़मींदार नहीं था . सब के पास बहुत मामूली ज़मीन थी. कई लोगों के हिस्से में तो एक एकड़ से भी कम ज़मीन थी. तालाब और कुओं से सिचाई होती थी और किसी भी किसान के घर साल भर का खाना नहीं पूरा पड़ता था . पूस और माघ के महीने आम तौर पर भूख से तड़पने के महीने माने जाते थे. जिसके घर पूरा भी पड़ता था उसके यहाँ चने के साग और भात को मुख्य भोजन के रूप में स्वीकार कर लिया गया था. मेरे गांव में कुछ लोग सरकारी नौकरी भी करते थे हालांकि अपने अपने महकमों में सबसे छोटे पद पर ही थे. रेलवे में एक स्टेशन मास्टर ,तहसील में एक लेखपाल और ग्राम सेवक और एक गाँव पंचायत के सेक्रेटरी . तीन चार परिवारों के लोग फौज में सिपाही थे . सरकार में बहुत मामूली नौकरी करने वाले इन लोगों के घर से भूखे सो जाने की बातें नहीं सुनी जाती थीं . बाकी लोग जो खेती पर ही निर्भर थे उनकी हालत खस्ता रहती थी .
.उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में स्थित अपने गांव के हवाले से हमेशा बात को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे इंसान के लिए यह बात हमेशा पहेली बनी रही कि सबसे गरीब लोगों की जमात में खड़ा हुआ मेरे गाँव का राजपूत शोषक क्यों करार दिया जाता रहा है . मेरे गाँव के राजपूत परिवारों में कई ऐसे थे जो पड़ोस के गाँव के कुछ दलित परिवारों से पूस माघ में खाने का अनाज भी उधार लाते थे . लेकिन शोषक वही माने जाते थे. बाद में समझ में आया कि मेरे गाँव के राजपूतों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण शिक्षा की उपेक्षा रही है . जिन घरों के लोग पढ़ लिख गए वे आराम से रहने लगे थे . वरना पिछड़ेपन का आलम तो यह है कि २०१० में उत्तर प्रदेश सरकार ने जब सफाईकर्मी भर्ती करने का फैसला किया तो मेरे गाँव के कुछ राजपूत लड़कों ने दरखास्त दिया था. जबकि सफाई कर्मी का काम ग्रामीण राजपूती पहचान के लिए बहुत ही अपमानजनक माना जाता था. लेकिन गरीबी की मार ऐसी ज़बरदस्त होती है कि कोई भी अहंकार उसके सामने ज़मींदोज़ हो जाता है . जब गाँव से बाहर निकल कर देखा तो एक और बात नज़र आई कि हमारे इलाके में जिन परिवारों के लोग ,कलकत्ता,जबलपुर ,अहमदाबाद,सूरत या मुंबई में रहते थे उनके यहाँ सम्पन्नता थी. मेरे गाँव के भी एकाध लोग मुंबई में कमाने गए थे .वे भी काम तो मजूरी का ही करते थे लेकिन मनी आर्डर के सहारे घर के लोग दो जून की रोटी खाते थे . जौनपुर में मेरे ननिहाल के आस पास लगभग सभी संपन्न राजपूतों के परिवार मुंबई की ही कमाई से आराम का जीवन बिताते थे. २००४ में जब मुझे मुंबई जाकर नौकरी करने का प्रस्ताव आया तो जौनपुर में पैदा हुई मेरी माँ ने खुशी जताई और कहा कि भइया चले जाओ , बम्बई लक्ष्मी का नइहर है . बात समझ में नहीं आई . जब मुंबई में आकर एक अधेड़ पत्रकार के रूप में अपने आपको संगठित करने की कोशिश शुरू की तो देखा कि यहाँ बहुत सारे सम्पन्न राजपूत रहते हैं . देश के सभी अरबपति ठाकुरों की लिस्ट बनायी जाय तो पता लगेगा कि सबसे ज्यादा संख्या मुंबई में ही है . दिलचस्प बात यह है कि इनमें ज्यादातर लोगों के गाँव तत्कालीन बनारस और गोरखपुर कमिश्नरियों में ही हैं .कभी इस मसले पर गौर नहीं किया था. २०१२ में मुंबई यात्रा के दौरान कांदिवली के ठाकुर विलेज में एक कालेज के समारोह में जाने का मौक़ा मिला . वहां राष्ट्रीय राजपूत संघ के तत्वावधान में उन बच्चों के सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिनको २०११ की परीक्षाओं में बहुत अच्छे नंबर मिले थे. बहुत बड़ी संख्या में ७० प्रतिशत से ज्यादा नंबर पाने वाले बच्चों की लाइन लगी हुई थी और राजपूत समाज के ही सफल,संपन्न और वारिष्ठ लोगों के हाथों बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था. उस सभा में मुंबई में राजपूतों के सबसे आदरणीय और संपन्न लोग मौजूद थे.उस कार्यक्रम में जो भाषण दिए गए उनसे मेरी समझ में आया कि माजरा क्या है . मुम्बई में आने वाले शुरुआती राजपूतों ने देखा कि मुंबई में काम करने के अवसर खूब हैं . उन्होंने बिना किसी संकोच के हर वह काम शुरू कर दिया जिसमें मेहनत की अधिकतम कीमत मिल सकती थी. और मेहनत की इज्ज़त थी .शुरुआत में तबेले का काम करने वाले यह लोग अपने समाज के अगुवा साबित हुए. उन दिनों माहिम तक सिमटी मुंबई के लोगों को दूध पंहुचाने काम इन लोगों ने हाथ में ले लिया . जो भी गाँव जवार से आया सबको इसी काम में लगाते गए. आज उन्हीं शुरुआती उद्यमियों के वंशज मुंबई की सम्पन्नता में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है . साठ और सत्तर के दशक में जो लोग मुंबई किसी मामूली नौकरी की तलाश में आये ,उन्होंने भी सही वक़्त पर अवसर को पकड़ा और अपनी दिशा में बुलंदियों की तरफ आगे चल पड़े,. आज शिक्षा का ज़माना है . बारम्बार कहा जा रहा है कि भारत को शिक्षा के एक केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा. मुंबई के राजपूत नेताओं ने इस बयान के आतंरिक तत्व को पहचान लिया और आज उत्तर प्रदेश से आने वाले राजपूतों ने शिक्षा के काम में अपनी उद्यमिता को केन्द्रित कर रखा है .उत्तरी मुंबई में कांदिवली के ठाकुर ग्रुप आफ इंस्टीट्यूशनस की गिनती भारत के शीर्ष समूहों में होती है . इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे राजपूत नेताओं को मैं जानता हूँ जिन्होंने शिक्षा को अपने उद्योग के केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है . लगता है कि अब यह लोग शिक्षा के माध्यम से उद्यम के क्षेत्र में भी सफलता हासिल करेगें और आने वाली पीढ़ियों को भी आगे ले जायेगें .
फिर सवाल वहीं आकर बैठ जाता है कि श्री राजपूत करणी सेना के नेता लोग क्या राजपूत लड़कों को अगले किसी काल्पनिक संघर्ष में फंसाने के लिए तैयार करेंगे या उनके लिये उद्यमिता के विकल्पों पर विचार करने का अवसर उपलब्ध करायेंगें . मुंबई का जो उदाहरण दिया गया है उसमें कहीं भी किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है . अगर इन नौजवानों को सरकार से मिलने वाले किसी लालीपाप का लालच देकर अपने की चंगुल में फंसाए रखना उद्देश्य है तो उसमें दीर्घकालिक सफलता नहीं मिलेगी लेकिन अगर इतने बड़े पैमाने पर मोबिलाइज़ किये गए बेरोजगार नौजवानों की ज़िंदगी में कुछ अच्छा करने की कोशिश की जाए तो समाज का भला होगा .
No comments:
Post a Comment