शेष नारायण सिंह
भारत की राजनीतिक यात्रा में शोषित पीड़ित जनता को इज्ज़त की ज़िंदगी देने की बार बार कोशिश होती रही है. देश जातियों के खांचे में बंटा हुआ है .जाति की संस्था इस देश को हज़ारों वर्षों से अलग अलग सांचों में बांधे हुए है . शुरू में तो वर्ण व्यवस्था थी और उसमें जन्म से जाति को तय करने की बात कहीं नहीं कही गयी थी लेकिन बाद की सदियों में जन्म से ही जाति का निर्धरण होने लगा .उसके बाद से जाति इंसानी तरक्की के रास्ते में बाधा बनती रही . करीब आठ सौ साल पहले जब एक आधुनिक धर्म, इस्लाम का भारत में प्रचार प्रसार हुआ तो भी यहाँ जाति का बंधन टूटा नहीं बल्कि इस्लाम अपनाने वाले भी अपनी जातियां साथ लेकर गए . मुसलमानों में भी बहुत सारी जातियां बन गईं. दुनिया के विद्वानों का मानना है कि इस्लाम और सिख मजहब अपेक्षाकृत नए धर्म हैं इसलिए इनको आधुनिक मान्यताओं को जगह देनी चाहिए थी लेकिन जाति के मसले पर यह नए धर्म भी भारतीय समाज की कमजोरियों को साथ लेकर ही चले , जाति का शिकंजा हमारे समाज के विकास और एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा बना रहा . जाति की सबसे बड़ी बुराइयों में छुआछूत को माना जाता है . महात्मा गांधी ने छुआछूत को अपने आन्दोलन के प्रमुख आधारों में एक बनाया . उनके अस्सी साल पहले शुरू हुए प्रयासों को अब आंशिक सफलता मिलने लगी है . उनके समकालीन डॉ बी आर आम्बेडकर ने भी जाति के मुद्दे पर गंभीर चिंतन किया और जाति संस्था के विनाश को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास की पहली शर्त माना . लेकिन राजनीतिक धरातल पर कहीं कुछ हुआ नहीं . डॉ आंबेडकर के नाम पर राजनीति का धंधा करने वालों ने जाति के विनाश की बात तो दूर उसको संभालकर बनाये रखने में ही सारा ध्यान दिया . डॉ आंबेडकर के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं ने उनकी राजनीति के सबसे बुनियादी पक्ष का हमेशा विरोध किया. सवर्ण जातियों के विरोध की राजनीति से शुरुआत करके नेता लोग दलित जातियों को एकजुट करके वोट बैंक बना लेते हैं और उसके बाद उसी वोट बैंक की संख्या के आधार पर राजनीतिक सौदेबाजी करने लगते हैं . रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न गुटों, कांशी राम और मायावती की राजनीतिक यात्रा को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है .
आधुनिक राजनीतिक धरातल पर दलित जाति में जन्मा एक नया राजनीतिक नेता उभर रहा है . जिग्नेश मेवानी ने गुजरात के ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद राजनीतिक शक्तियों को एकजुट करने का अभियान शुरू किया था. आज देश के राजनीतिक क्षितिज पर जिग्नेश मेवानी को शोषित पीड़ित जातियों की एकजुटता का केंद्र माना जाने लगा है . अभी उत्तराखंड से खबर आई है कि जिग्नेश मेवानी के हल्द्वानी जाने की खबर उड़ गयी थी. जिले की पूरी पुलिस फ़ोर्स उनको तलाशने में जुट गयी . उधर जाने वाली हर गाडी की तलाश होने लगी . दिल्ली के जन्तर मन्तर पर जिग्नेश की सभा को तोड़ने के लिये सारी ताक़त लगा दी गयी . ऐसा लगता है कि जाति की राजनीति को ज़बरदस्त झटका देने की किसी योजना पर काम चल रहा है. जिस तरह से दलितों के उत्पीडन के केन्द्रों से जिग्नेश मेवानी की लोकप्रियता की ख़बरें आ रही हैं उससे लगता है कि जाति के विनाश की राजनीति एक बार फिर राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आने वाली है . दलितों के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने वाले अन्य नेता तो जाति को बनाए रखने की ही बात करते हैं लेकिन जिग्नेश की बातचीत में दूसरी बात निकलकर आ रही है . नैशनल दस्तक पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में जिग्नेश मेवानी ने कहा कि," जाति के विनाश के बिना, वर्ग संघर्ष एक वास्तविक वास्तविकता नहीं बन जाएगा और वर्ग संघर्ष के बिना जाति का विनाश नहीं किया जा सकता है। " इसका मतलब यह हुआ कि जाति और वर्ण आधारित शोषण का विरोध करने वाली सभी सियासी जमातों को एकजुट करने की कोशिश इस नौजवान नेता की तरफ से की जा रही है . जिससे जाति के विनाश की संभावना एक बार फिर बनना शुरू हो गयी है .
दुनिया भर के आधुनिक राजनीतिक और सामाजिक विचारक मानते हैं कि जाति भारतीय समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर आंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे डॉ आंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि जाति के विनाश होने तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और अपनी पार्टी को उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पंहुचाया .लेकिन डॉ अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली उनकी पार्टी की सरकार ने बाबासाहेब के सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया .
कांशी राम और मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया . बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर बने रहे . दलित जाति की अस्मिता को तो बनाये ही रखा अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया .जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी तो हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई थीं .डाक्टर आंबेडकर ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके.मायावती के मुख्यमंत्री रहते कई मंत्रियों से बात करने का मौक़ा मिलता था .एक अजीब बात देखने को मिलती थी कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। या बीजेपी का कोई नेता सावरकर की किताब," हिंदुत्व" का नाम न जानता हो .
कांशी राम और मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया . बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर बने रहे . दलित जाति की अस्मिता को तो बनाये ही रखा अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया .जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी तो हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई थीं .डाक्टर आंबेडकर ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके.मायावती के मुख्यमंत्री रहते कई मंत्रियों से बात करने का मौक़ा मिलता था .एक अजीब बात देखने को मिलती थी कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। या बीजेपी का कोई नेता सावरकर की किताब," हिंदुत्व" का नाम न जानता हो .
डॉ बी आर आंबेडकर की सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला . लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
जिग्नेश मेवानी की राजनीतिक यात्रा पर नज़र रखने की ज़रूरत है . यह मुकम्मल तरीके से नहीं कहा जा सकता कि वे राजनीतिक विमर्श को वह दिशा दे सकेंगे जो जाति के विनाश और सामाजिक बराबरी की बुनियादी शर्त है लेकिन उम्मीद तो फिलहाल बन रही है .
No comments:
Post a Comment