Thursday, January 25, 2018

१९८४ में सिखों के संहार के दिन दिल्ली में इंसानी मूल्यों की भी हत्या हुयी थी .



शेष नारायण सिंह

३१ अक्टूबर १९८४ के सिखों के नर संहार से सम्बंधित जांच को दोबारा खोले जाने की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक मंजूरी दे दी  है. करीब पौने दो सौ मामलों की फिर से जांच की जायेगी . वह दिन मेरी स्मृति में एक खौफनाक दिन के रूप में दर्ज है . ३१ अक्टूबर को सुबह अखबार देख रहां था कि मेरे दोस्त राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा जी को किसी ने गोली मार दी हैं . जिंदा हैं  और आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट  ले जाई गयी हैं .  इसके पांच महीने पहले आपरेशन ब्ल्यू स्टार हो चुका था.  पंजाब में आतंकवाद शिखर पर था . तुरंत शक हो गया कि  कोई खालिस्तानी आतंकवादी होगा. उन दिनों हम सफदरजंग इन्क्लेव में किराए के मकान में रहते थे. मैं १० मिनट के अन्दर आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट अस्पताल के इमरजेंसी में हाज़िर . सीधे अन्दर चले गए. बहुत कम लोग थे .अरुण नेहरु आये, गौतम कौल आये. फिर मंत्री नेता आने लगे. उस इलाके में कांग्रेस के सबसे बड़े दादा अर्जुनदास हुआ करते थे. मैं जानता था उनको. उनका चेला गोस्वामी आया . उसने अरुण नेहरू को किसी से बात करते सुन लिया था . उसने ही बताया कि मैडम की मौत हो चुकी है लेकिन अभी पब्लिक को बताया नहीं जाएगा.
करीब ४५ मिनट बाद ओ टी के बाहर जमा फालतू लोगों को भगा दिया गया . हम बाहर आ गए. बाहर बहुत सारे कांग्रेसी जमा थे. जगदीश  टाइटलर, सज्जन कुमार , ललित माकन , अर्जुन दास , एच के एल भगत, धर्मदास शास्त्री  सब अन्दर बाहर हो रहे थे. आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट का चौराहा उन दिनों इतनी भीड़ वाला इलाका नहीं था लेकिन ११ बजे तक बहुत ज़्यादा लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी. तरह तरह के कयास चल रहे  थे . लेकिन किसी को नहीं मालूम था कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी थी . हम भीड़ के बीच में घूमते रहे. करीब २ बजे अर्जुनदास बाहर आये  और अपने लोगों को कुछ समझाने लगे.  मिंटो रोड इलाके का एक  कांग्रेसी रमेश दत्ता भी वहीं अपने चेलों के साथ जमा  हुआ था . रमेश दत्ता की खासियत यह थी कि अगर किसी कांग्रेसी नेता के यहाँ कहीं भी कोई भी खुशी का माहौल होता तो वह ढोल बजाने वालों को लेकर वहां पंहुंच जाता. उसने एक संस्था नेहरू ब्रिगेड बना रखी  थी. अगर कहीं दुःख का माहौल होता तो वह रोने वालों को लेकर पंहुंच जाता . यहाँ  भी वह अपने रोने वालों के साथ आया था लेकिन सब को चुप करा रखा था क्योंकि  इंदिरा गांधी की मृत्यु की सूचना को अभी घोषित नहीं किया गया था. करीब दो बजे भीड़ में हरकत शुरू हुयी और ज़्यादातर लोग कहने लगे कि प्रधानमंत्री अब  जीवित नहीं हैं . इस बीच बीबीसी रेडियो पर उनकी मृत्यु की खबर आ चुकी थी. बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब ने  इंदिरा जी की लाश देख ली थी और बीबीसी बहुत ही भरोसे के साथ खबर चला रहा था. अब तक सबको पता चल चुका था कि इंदिरा  गांधी की सुरक्षा में तैनात सिख पुलिसकर्मियों ने  ही उनको मारा था. लेकिन अस्पताल के बाहर जुटी भीड़ में सिखों की संख्या भी खासी थी . किसी को इमकान ही  नहीं था कि  अगले चार पांच घंटो के अन्दर सिखों पर कहर बरपा होने वाला है .
उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न होता नहीं था. ताज़ा ख़बरों का मुख्य स्रोत टेलीफोन ही होता था. ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय उन दिनों हमारे घर के पड़ोस में ही रहते थे . वे तब एम आई टी के रोसर्च स्कालर थे , फील्ड स्टडी के लिए दिल्ली में रह रहे थे . एक स्कूटर था उनके पास . उसी स्कूटर से हम लोग  राजनीतिक दिल्ली में घूमते रहे. उन दिनों आकाशवाणी पर छः बजे हिंदी और अंग्रेज़ी समाचारों की बुलेटिन आती थी. पांच मिनट हिंदी में और पांच मिनट अंग्रेज़ी में . उसी बुलेटिन में खबर आ गयी कि  राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ  दिला दी गयी है .अब सारे देश को मालूम था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी है.
करीब साढ़े छः बजे हमने सफदरजंग इन्केल्व और  भीकाजी कामा प्लेस के बीच वाली सड़क पर एक सिख को पिटते देखा . आदत से मजबूर बीच बचाव करने पंहुंचा . उन लोगो ने उस सिख को गाली दी और मुझे बताया कि इसने इंदिरा जी को मार डाला . अब इस तर्क का कोई मतलब नहीं था . भागकर मैं सरोजनी नगर थाने गया . वहां का दरोगा हरमीत सिंह था . यह इमरजेंसी में हौज़ ख़ास का दरोगा रह चुका था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का इलाका उन दिनों हौज़ ख़ास थाने में ही पड़ता था. इन श्रीमानजी ने हमारे कई साथियों को गिरफ्तार किया था. हरमीत सिंह ने बताया कि पूरे इलाके में सिखों को मारा  जा रहा है .फ़ोर्स भेज दी गयी है .  हम वहां से जब वापस लौट रहे थे तो हुमायूं पुर के पास एक सिख को पकड़कर लोग मार रहे थे . देखते ही देखते उसके ऊपर एक बोतल से शायद शराब या पेट्रोल फेंका और उसको जला दिया . मैं अब घबडा गया था .
रात हो चुकी थी .हम घर आ गए . समझ में आ गया था कि सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है . घर के रास्ते में भी देखा कि कुछ न कुछ  हो रहा  है . सिखों के घर पहचान करके जलाए जा रहे थे .सबके मुंह पर एक ही नाम कि अर्जुन दास के लोग हैं . इंदिराजी की मौत का बदला ले  रहे हैं . मेरे घर से  थोड़ी दूर डी एल टी ए के  सामने बख्शी लिखा हुआ एक बहुत बड़ा मकान था.  उसको जलाने भी कुछ लोग पंहुचे थे लेकिन सुरक्षा वालों ने भगा दिया . शायद बाद में जला दिया क्योंकि जब हम सुबह उधर से निकले तो घर जल रहा था . हमने देखा कि उन दिनों सिखों के बारे में ज़्यादातर गैर सिख लोगों में अजीब बातें होती थीं. सिख आम तौर पर मेहनती और संपन्न होते थे लेकिन उन दिनों  उनको खालिस्तानियों के हमदर्द के रूप में देखा जाता था. एक अजीब बात यह भी थी कि मेरे मोहल्ले में ज्यादातर लोग सिखों के घरों के जलने से खुश थे . बहरहाल , सुबह मैं और आशुतोष स्कूटर पर बैठकर लाजपत नगर के विक्रम होटल के पीछे लाजपत भवन पंहुचे . वहां सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के दफ्तर में रोमेश थापर, कुलदीप नय्यर , धर्मा कुमार , आई आई टी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन ,जस्टिस राजिंदर सच्चर आदि सिख पीड़ितों को मदद पंहुचाने के काम में लगे हुए थे .पता लगा कि  जमुनापार त्रिलोक पुरी में बहुत बड़े पैमाने पर क़त्लो गारद हो रहा  है . एक टेम्पो पर कुछ राहत सामग्री रखी गयी . उसी में कुछ वालंटियर भी बैठे. वहां जाकर देखा कि सिखों के घर एक ही गली में एक तरफ हैं . कुछ घर जल चुके थे. कुछ घरों  में से  धीरे धीरे धुंआ निकल रहा था.घर भी क्या , बहुत छोटे छोटे दड़बानुमा  मकान .  वहां भी मोहल्ले के लोगों में पीड़ित लोगों के प्रति कोई ख़ास आत्मीयता नहीं थी. हमारे साथ जो सीनियर लोग थे उन्होंने  लूटमार कर रहे लोगों से बात करने की कोशिश की लेकिन ठग जैसे दिख रहे बदमाशों ने सब को डांट दिया. सड़क पर एक बुज़ुर्ग मिल  गए उन्होंने बताया कि इन लोगों को अगर रोकना है तो  केंद्रीय मंत्री एच के एल  भागत से बात करो. यह सब उनके ही आदमी हैं . यह इलाका पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र में पड़ता है और वहां के एम पी उन दिनों भगत जी ही थे. उसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं मालूम . एक स्कूल में पुलिस की सुरक्षा में छुपे हुए लोगों तक हमारे टेम्पो में गए लोग सहायता के लिए  लाये कपडे  , ब्रेड , दूध, दवाइयां आदि देकर बाहर आ गए.  पता लगा कि कीर्ति नगर में सबसे ज़्यादा नुक्सान हुआ है . जमुनापार से  कीर्तिनगर के रास्ते में हमने देखा  कि जनपथ होटल के पास वाले  टैक्सी स्टैंड पर  खड़ी सभी गाड़ियां जल गयी हैं . पूछने पर पता  लगा कि टैक्सी स्टैंड का लाइसेंस किसी सिख के पास था. सबसे हैरान कर देने वाला सीन रीगल बिल्डिंग में देखा.  ऊनी कपडे बनाने वाली किसी बड़ी कम्पनी की दुकान थी , वह जला दी गयी थी. लेकिन उसी बिल्डिंग में उसी कंपनी की एक दूसरी दुकान थी , उसमें कुछ नहीं हुआ था. पता लगा कि उसी दुकान वाले ने दूसरी दुकान जलवाई थी ,दूसरी दूकान का मालिक सिख था  और उनमें आपसी दुश्मनी थी.
पूरे शहर में दिन भर घूमते रहे . एक बात जो सबसे ज्यादा परेशानी पैदा कर रही थी , वह यह थी कि पुलिस कहीं भी किसी को रोक नहीं रही थी. जितनी दुकाने जला सको ,जलाओ . दूसरी बात जो हैरानी पैदा कर रही थी वह यह कि कांग्रेसी नेता इसको एक ज़रूरी काम बता रहे थे . आर एस एस वालों ने भी कहीं भी किसी को रोकने का काम नहीं किया . दिल्ली में बाद में चाहे जो हुआ हो लेकिन उस वक़्त आम तौर पर दिल्ली शहर में गैर सिख लोग इससे खुश थे . इंदिरा गांधी की मृत्यु  के बाद जो चुनाव हुआ , उसमें तो लगभग सभी पार्टियों का सफाया  हो  गया था . १९८४-८५ के लोक  सभा चुनाव में दिल्ली में कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियों का पूरी तरह से  सफाया हो गया . सिखों पर हुए अत्याचार को इंदिरा गांधी की उस छवि से जोड़कर देखा जा रहा था जिसके तहत वे  हिन्दुओं की पक्षधर के रूप में अपनी ख्याति बना चुकी थीं. शायद इसलिए दिल्ली के शहरी हिन्दुओं में सिखों के क़त्ले आम की वह निंदा नहीं हुयी जो होनी चाहिए थी. लोग  बेपरवाह थे .यह वही आबादी थी जिसने आपरेशन ब्ल्यू स्टार के तहत हुए अमृतसर में सेना के काम को सही ठहराया था और जरनैल सिंह भिंडरावाले से नफरत करते थे.

दिल्ली शहर में नवम्बर १९८४ में पीड़ित सिखों के साथ वही लोग खड़े थे जिनको आम तौर पर लिबरल  बुद्धिजीवी माना जाता  है . यह अलग बात  है बाद में सत्तासीन सभी वर्गों ने उनको सम्मान  से नहीं देखा  . कांग्रेस नेताओं ने लिबरल बुद्धिजीवियों को अपना दुश्मन माना . सत्ताधारी वर्गों ने सज्जन कुमार, लालित माकन, एच के एल भगत ,अर्जुन दास आदि  को ही सही माना . लिबरल पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने राजीव राजीव गांधी की घोर निंदा की थी क्योंकि उन्होंने कह दिया था  कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो कुछ प्रतिक्रिया तो होती ही है.  बाद में सिख वोटों के चक्कर में बहुत सारे लोग १९८४ के निंदक बन गए लेकिन उस वक़्त यही लिबरल लोग ही नज़र आते थे. यह वही लोग हैं  जो देश पर आये हर नैतिक संकट में न्याय के साथ खड़े होते हैं लेकिन हर दौर का शासक वर्ग इनको अपना दुश्मन मानता है .
आज भी यही लिबरल लोग सत्ताधीशों की नफरत का शिकार बन रहे हैं . उनको कम्युनिस्ट कहकर गाली दी जाती है . इनकी संख्या भी धीरे धीरे कम हो रही है . जो हैं भी वे सत्ता के आतंक से डर के मारे चुप रहते हैं . देश के बड़े शिक्षा केन्द्रों पर एक तरह के लोगों का क़ब्ज़ा हो रहा है. ज़ाहिर है सोच विचार पर भी इसका असर पडेगा लेकिन यह दुआ तो की ही जा सकती है कि फिर किसी पर  वैसा कहर न टूटे जैसा दिल्ली के सिखों पर नवम्बर १९८४ में बरपा हुआ था .

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