Thursday, July 22, 2010

अफगानिस्तान में भारत की विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं

शेष नारायण सिंह


प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह इस बात पर ब जिद हैं कि पाकिस्तान से रिश्ते सुधारना ज्यादा ज़रूरी है और उसके लिए वे ईमानदारी से कोशिश भी कर रहे हैं . लेकिन पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे लोगों की प्राथमिकता कुछ और है . उनकी कोशिश है कि भारत से रिश्ते ठीक तो किये जायेगें लेकिन पहले अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली जाए. इधर भारत की कोशिश है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के लिए पाकिस्तान को घेर कर हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को बेकार बना दे. क्योंकि अगर हाफ़िज़ सईद को आतंक के प्रोजेक्ट की चौधराहट से हटा दिया जाए तो पाकिस्तान में मौजूद भारत विरोधी आतंक का ढांचा बहुत ही कमज़ोर हो जाएगा. अब भारत की इच्छा को सम्मान देने के लिये तो पाकिस्तानी सेना अपने इतने महत्वपूर्ण सहयोगी की कुर्बानी तो देगी नहीं .पाकिस्तान ने देखा है कि आतंक की ब्लैकमेल के ज़रिये ही उसने अफगानिस्तान में अपना मकसद हासिल कर लिया और भारत को हाशिये पर लाने को मजबूर कर दिया. केंद्र में बी जे पी सरकार के दौरान बहुत ज्यादा असर रखने वाले कुछ कूटनीतिक चिंतकों की राय है कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ पख्तूनों की नाराज़गी का इस्तेमाल करना चाहिए और उनमें मौजूद तालिबान को भी अपने साथ लेने की कोशिश करनी चाहिए. जिस से पाकिस्तान को मजबूर हो कर भारत को अफगानिस्तान में कुछ स्पेस देना पड़े . लेकिन इस तरह की कूटनीति में भारत के हाथ कई बार जल चुके हैं और वह दुबारा वही गलती नहीं करना चाहता जो श्रीलंका में नटवर सिंह और रोमेश भंडारी की टोली ने केंद्र सरकार से करवा लिया था .डॉ मनमोहन सिंह को पक्का भरोसा है कि पख्तूनों को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करने की सोच से बचना हे एथीक होगा .

भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर तो विवाद शुरू से चल रहा है लेकिन दोनों के बीच के कूटनीतिक सम्बन्ध आजकल अफगान एजेंडे से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं . पाकिस्तान की कोशिश है कि अफगानिस्तान से भारत को दूर रखा जाए . और अपने इस मिशन में पाकिस्तान काफी हद तक सफल भी हो रहा है .रविवार को अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक व्यापार समझौता हुआ जिसके हिसाब से भारत पर वागा बार्डर के रास्ते कोई भी सामान अफगानिस्तान भेजने की मनाही है . समझौते में लिखा है कि अफगानिस्तान को इस बात की आज़ादी है कि वह वागा के रास्ते कोई भी सामान निर्यात कर सकता है लेकिन उसे उस रास्ते से कुछ भी अपने देश में लाने की अनुमति नहीं दी जायेगी .यह समझौता अमरीका के आशीर्वाद से किया गया है . जब समझौते पर दस्तखत हो रहे थे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमरीकी हितों की देखभाल करने वाले अमरीकी अफसर रिचर्ड हालब्रुक वहां मौजूद थे.इस समझौते पर कई वर्षों से काम हो रहा था. अफगानिस्तान से भारत को भगाने की पाकिस्तानी नीति की जीत का यह एक बड़ा मुकाम है . परंपरागत रूप से पाकिस्तान की मौजूदगी अफगानिस्तान में रहती रही है . लेकिन तालिबान के नेता मुल्ला उमर की सत्ता ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया था. ओसमा बिन लादेन की तलाश में अमरीकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान पंहुच गए थे और पाकिस्तानी हुकूमत के लिए वहां की सत्ता पर काबिज़ तालिबान को छोड़ देना मुश्किल था . तालिबान की सैनिक तबाही के बाद युद्ध के बाद बर्बाद हो चुके अफगानिस्तान को फिर से बसाने की कोशिश शुरू हो गयी. भारत की कोशिश थी कि अमरीका और तालिबान में दुश्मनी की वजह से वह अमरीकी आशीर्वाद से अफगानिस्तान में अपने एमौजूदगी मुकम्मल करे . इस दिशा में काम भी शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तानी सेना को यह नागवार गुज़र रहा था. उसको अफगानिस्तान पूरा का पूरा चाहिए. जानकार बताते हैं कि इसीलिये भारत के दूतावास समेत अन्य भारतीय ठिकानों पार आतंकवादी हमले कराये गए. इस बात में कोई शक़ नहीं है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और पाकिस्तानी सेना में गहरे सम्बन्ध हैं . वास्तविकता तो यह है कि तालिबान का गठन पाकिस्तानी सेना के सामरिक लाभ के लिए ही किया गया था . जब तक्तालिबान का क़ब्ज़ा अफगानिस्तान पर रहा , उसे पाकिस्तानी सेना का क़ब्ज़ा ही माना जाता था . इसलिए अमरीका के इस आग्रह को पाकिस्तानी सेना ने कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसके तहत अमरीका उम्मीद कर रहा था कि पाकिस्तान की सेना तालिबान को तबाह करने में अमरीकी सेना की मदद करेगी. . इस वक़्त दक्षिण एशिया में जो कूटनीतिक माहौल है उसमें अफगानिस्तान सबसे महत्व पूर्ण है . अमरीका पूरी तरह से अफगानिस्तान में गले तक डूबा हुआ है. भूराजनैतिक दबदबे के लिए चीन भी अफगानिस्तान में दखल चाहता है . उसकी कोशिश है कि वह पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान में अपने पाँव जमाये . इसीलिये वह पाकिस्तान को समझा रहा है कि ज्यादा से जादा अफगान प्रोएक्ट हथियाए . जहाना तक काम को पूरा करने की बात है , वह पाकिस्तान के बस की बात नहीं है ,उसे चीन पूरा कर देगा लेकिन ऐसा करके वह अफगानिस्तान में भारत को प्रभाव नहीं बढाने देगा और कुछ हद तक अमरीका को थाम सकेगा.

इतनी पेचीदा कूटनीतिक लड़ाई में अब तक की जो हालात हैं , उसमें सबसे ताक़तवर खिलाड़ी के रूप में पाकिस्तानी फौज के मुखिया ,जनरल अशफाक परवेज़ कयानी को देखा आ रहा है . पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार उनकी मुट्ठी में है . वे बीच रास्ते फैसले बदलवा देते हैं और प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को डांट तक देते हैं . भारत -पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत को जिस तरह से उन्होंने बेमतलब किया है उसे दुनिया ने देखा है . यह अलग बात है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी इस पूरी घटना के बाद एक जोकर के रूप में पेश किये जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेचारे की औकात ही वही है . ऐसी हालत में पाकिस्तान को दुरुस्त करने की कोशिश में वहां नए भस्मासुर पैदा करने की कोशिश से भारत को बच कर रहना चाहिए क्योंकि अगर तालिबान की मदद से पाकिस्तानी फौज अमरीका और भारत को डराना चाहती है तो यह बेवकूफी की कूटनीति है और इसका नुकसान बाद में पाकिस्तान को ही होगा .

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