अनहद की प्रियंका जायसवाल ने जब यह पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं ,तो मुझे लगा था कि अगर यह महिलाओं के सशक्तीकरण के आन्दोलन के जुलूसों का मुख्य गीत बन जाए तो सामाजिक परिवर्तन बहुत जल्दी आ जाएगा. मुझे नहीं मालूम कि यह किसकी रचना है ,प्रियंका ने बताया ही नहीं , इसलिए मैं इसे प्रियंका जायसवाल की रचना ही मानता रहूँगा .
मैं एक माँ
एक बहन
एक बेटी
एक अछी पत्नी
एक औरत हूँ
एक औरत जो न जाने कब से नंगे पाँव
रेगिस्तान की धदकती बालू मैं भागती रही है !
मैं सुदूर उत्तर के गाँव से आई हूँ
एक औरत जो न जाने कब से के धान खेतों मे,
और चाय के बागानों मे, अपनी ताकत से ज़यादा मेहनत करती आई है !
मैं पूरब के अँधेरे खंडहरों से आई हूँ
जंहा मैंने न जाने कब से नंगे पांव सुबह से शाम तक,
अपनी मरियल गाय के साथ, खलियानों मे दर्द का बोझ उठाया है
मैं एक औरत हूँ,
उन बंजारों मे से जो तमाम दुनिया मे भटकते फिरते हैं
एक औरत जो पहाड़ों की गोद मे बच्चे जनती है जिसकी
बकरी मैदानों मे कंही मर जाती है और वो बैन करती रह जाती हे
मैं एक मजदूर औरत हूँ
जो अपने हाथों से फेक्टरी में
देवकाय मशीनों के चक्के घुमती है
वो मशीने जो उसकी ताकत को
ऐन उसकी आँखों के सामने
हर दिन नोचा करती है
एक औरत जिसके खून से खूंखार कंकालों की प्यास बुझती है
एक औरत जिसका खून बहने से सरमायेदार का मुनाफा बढता है
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली मे,
एक शब्द भी ऐसा नहीं जो उसके महत्त्व को बयां कर सके
तुम्हारी शब्दावली केवल उस औरत की बात करती है
जिसके हाथ साफ हैं
जिसका शरीर नर्म है
जिसकी त्वचा मुलायम है
और जिसके बाल खुशबूदार हैं
मैं तो वो औरत हूँ
जिसके हाथों को दर्द की पैनी छुरियों ने घायल कर दिया
एक औरत जिसका बदन तुम्हारे अंतहीन
शर्मनाक और कमरतोड़ काम से टूट चुका है
एक औरत जिसकी खाल मे
रेगिस्तानो की झलक दिखाई देती है
जिसके बालों से फेक्टरी के धुंए की बदबू आती है !
मैं एक आज़ाद औरत हूँ
जो अपने कामरेड भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
मैदान पार करती है
एक औरत जिसने मजदूर के मजबूत हाथों की रचना की है
और किसान की बलवान भुजाओं की
मैं खुद भी एक मजदूर हूँ
मैं खुद भी एक किसान हूँ मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है
मेरी रग - रग में नफ़रत की आग भरी है
और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो
की मेरी भूक एक भ्रम है
और मेरा नंगापन एक ख्वाब
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्त्व को बयान कर सके
एक औरत जिसके सीने में
गुस्से से फफकते नासूरों से भरा एक दिल छिपा है
एक औरत जिसकी आँखों में आज़ादी की आग के लाल साये लहरा रहे हैं
एक औरत जिसके हाथ काम करते करते सीख गये हैं कि
अपने हक के लिए झंडा कैसे उठाया जाता है
आपकी पोस्ट आज चर्चा मंच पर भी है...
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html
Bahut sundar abhivyakti.
ReplyDeletewe need to realize this fact.
http://zealzen.blogspot.com/2010/07/blog-post_14.html
Kindly go through the above link, it's related with your post.
Regards,
Divya [zeal]
कैफी आजमी के शब्दों में -
ReplyDeleteतू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
बेहतरीन्………लाजवाब्……………शानदार्।
ReplyDeleteबेहतरीन कविता है...
ReplyDeleteThese are not Priyanka's words.
ReplyDeleteThese lines are by Safdar Hashmi (Jana Natya Manch, New Delhi).
And these lines are taken from the street play
"Aurat" (March, 1979)
Comment by Dr. Vellikkeel Raghavan
Central University of Kerala.
The Above Quoted lines are from
ReplyDeleteSafdar Hashmi's (Jana Natya Manch, New Delhi)
Street play "Aurat" (March, 1979).
Comment by Vellikkeel Raghavan
These are not Priyanka's words.
ReplyDeleteThese lines are by Safdar Hashmi (Jana Natya Manch, New Delhi).
And these lines are taken from the street play
"Aurat" (March, 1979)
Comment by Dr. Vellikkeel Raghavan
Central University of Kerala.