Thursday, December 17, 2020

नई कृषि नीति को जनहितकारी बनाना होगा, उद्योगपति की हितकारी नहीं


 

शेष नारायण सिंह  

 

नई कृषि नीति के खिलाफ किसानों का आन्दोलन दिल्ली की सीमाओं पर ही तीन हफ्ते से ज़्यादा हो गया है . केंद्र सरकार के नेता और मंत्री आन्दोलन को वह गंभीरता नहीं दे रहे है जो देनी चाहिये थी . शुरू में तो इस आन्दोलन को भी शाहीन बाग़ के आन्दोलन से जोड़ने की कोशिश की गयी ,कुछ नेताओं ने इस आन्दोलन को भी शाहीन बाग़ की तरह का आन्दोलन बता दिया लेकिन  जल्दी ही सद्बुद्धि आ गयी और उस अभियान को लगाम दे दी गयी.  शाहीन बाग़ में शामिल लोगों से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को कोई चुनावी नुक्सान नहीं होना था क्योंकि सी ए ए और एन आर सी के खिलाफ आन्दोलन कर रहे लोगों में बीजेपी का कोई  वोटर नहीं था. उसमें शामिल ज्यादातर मुसलमान थे, लेफ्ट थे और लिबरल थे. इन वर्गों में कोई भी बीजेपी को वोट नहीं देगा. उनको देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेंट या टुकड़े टुकड़े गैंग बताकर चुनावी फायदा लिया जा सकता था . लेकिन पंजाब से आये किसान आन्दोलनकारियों को खालिस्तानी कहना बहुत बड़ी भूल थी क्योंकि पंजाब का संपन्न किसान राज्य की सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक जीवन की मुख्यधारा होता है . सिख आन्दोलनकारियों को जैसे ही खालिस्तान समर्थक कहने की कोशिश की गई ,  सताधारी एन डी ए का सबसे पुराना सहयोगी अकाली दल अपनी इज्ज़त बचाने के लिए  सरकार से अलग हो गया. किसान आन्दोलन में शामिल एक गुट ने विभिन्न मुक़दमों में जेलों में बंद किये गए लिबरल और वामपंथियों को रिहा करने की मांग भी अपनी लिस्ट में जोड़ दिया . किसान संघर्ष समिति ने उस गुट  को तुरंत अपने आन्दोलन से दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया . मुराद यह है कि पंजाब के आन्दोलनरत किसानों को देशद्रोही  सांचे में फिट करने की कोई भी कोशिश बहुत ही गलत राजनीति का उदाहरण बन सकती थी लिहाजा उससे सरकार ने अपने आपको अलग कर  लिया . अब फिर बातचीत का सिलिसला शूरू करने की कोशिश चल रही है जो ठीक  है क्योंकि इस आन्दोलन को  शांत करने का रास्ता बातचीत की गलियों से ही गुजरता है .  सच्चाई यह  है कि हर आन्दोलन के हल का रास्ता बातचीत से ही  होता है . यह सरकार की सोच पर   निर्भर करता है कि बातचीत शुरू में ही कर ली जाए या  विवाद के बढ़ जाने के बाद की  जाये.

सरकार ने आन्दोलन में जमे हुए किसानों के अलावा बहुत सारे  किसान वर्गों से भी बातचीत शूरू कर दिया है . बातचीत के इस सिलसिले से बहुत लाभ  नहीं होने वाला है .समस्या का हल तो असली किसान नेताओं से बात करने से  ही निकलेगा   .अच्छी बात  यह है कि बातचीत के  वे  रास्ते बंद नहीं हुए हैं. इस बीच   एक ऐसी खबर आ गयी जिसका  किसान आन्दोलन की वापसी पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है . करनाल के एक  गुरुद्वारा साहब के एक आदरणीय संत बाबा राम सिंह ने  सिंघू बार्डर के पास बनाए गए आन्दोलन स्थल पर आत्महत्या कर ली .उनको सम्मान से उनके अनुयायी नानकसर वाले बाबा कहते थे . हालांकि पुलिस आत्महत्या के कारणों की जांच कर रही है लेकिन पता चला है कि उन्होंने एक सुसाइड नोट भी लिखा है जिसमें किसान आन्दोलन  के साथ हमदर्दी  जताई है . किसी संत का  आत्महत्या करके आन्दोलन का समर्थन करना एक ऐसा संकेत है जिसे सरकार को फ़ौरन नोटिस करना चाहिए और भाईचारे के माहौल में बातचीत करने की अर्जेंट पहल करनी चाहिए .

 

जहां तक किसान आन्दोलन की ज़रूरत की बात है उस पर बहस हो   सकती है लेकिन नई  कृषि नीति की आवश्यकता   को बहुत समय से महसूस किया जा रहा था .डॉ मनमोहन सिंह ने जब वित्तमंत्री के रूप में औद्योगिक  क्षेत्र में उदारीकरण का रास्ता खोला था तब से ही कृषि को अर्थव्यवस्था में बड़ा भागीदार बनाने की बात चल रही थी . वैसे भी १९६५-६६ की हरित क्रान्ति के बाद खेती  की तरफ सरकार की तरफ से कोई बड़ा  नीतिगत हस्तक्षेप नहीं हुआ था जिसकी  ज़रूरत बहुत बड़े पैमाने पर महसूस की  जा रही थी .  पता  नहीं क्यों  ऐसा हो नहीं पा रहा था क्योंकी गठबन्धन सरकार की  मजबूरियां बहुत सारे फैसलों में बाधक हो जाती हैं .मौजूदा सरकार ने हिम्मत करके नई कृषिनीति की घोषणा कर दी . ऐसा लगता है कि फैसला लेने के पहले ज़रूरी सलाह मशविरा नहीं हुआ .इसे सरकार की चूक मानी जायेगी क्योंकि उसने नीति को बनाने के पहले स्टेकहोल्डरों के साथ ज़रूरी सुर सलाह नहीं किया . उसी का नतीजा है कि इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा हो गया . आज देखा जा  रहा है कि सरकार के मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के बड़े  नेता ग्रामीण क्षेत्रों में  चौपाल करके किसानों को साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं . अगर यही काम  पहले कर लिया गया होता तो न तो आन्दोलन की नौबत आती और  न ही सरकार के संसाधनों का इस्तेमाल करके इतने बड़े पैमाने  पर लोगों  को समझाने बुझाने का अभियान  चलाना होता. वैसे सरकार के कृषि मंत्री एक और बड़ी गलती  कर रहे हैं . तरह तरह के लोगों को किसान नेता बताकर दिल्ली बुला रहे हैं और उनके साथ मीटिंग करके मीडिया के ज़रिये प्रचार कर रहे हैं . यह बेकार का आयोजन है . जिन लोगों के साथ यह बातचीत की जा रही है ,वे तो पहले से ही सरकार के साथ हैं . असली काम तो आन्दोलन कर रहे  किसानों को साथ लेने का है . जिसके लिए ज़रूरी  कोशिश  होनी चाहिए  . उनको भरोसे में लेकर ही बात आगे बढ़ सकती  है .अभी फिलहाल इस स्थिति को हासिल करने में समय लग  सकता  है. किसानों के आन्दोलनकारी नेताओं ने साफ़ कह  दिया है कि वे नई कृषि नीति के तीनों कानूनों की वापसी तक आन्दोलन  जारी रखेंगे और सरकार ने भी मजबूती से कह दिया है कि कानून तो किसी  हालत में वापस नहीं किये जायेंगे. यानी मामला बहुत ही मुश्किल दौर में हैं . हालांकि यह भी सच है कि दुनिया में कोई भी आन्दोलन  अनन्त काल तक नहीं चल  सकता .उसको ख़त्म करने के लिए दोनों पक्ष थोडा थोडा नरम पड़ते  हैं और आन्दोलन  समाप्त हो जाता है .

 

 किसानों के आन्दोलन को समाप्त करने और भाईचारे का माहौल  बनाने के  लिए पहल सरकार को ही  करनी पड़ेगी .नई कृषि नीति के तीनों कानूनों में थोड़ी बहुत खामियां हैं उनको ठीक  करने के बारे में सरकार को गंभीरता से विचार करना पडेगा .मुझे लगता है कि नई नीति में तीन ऐसे मुद्दे हैं जिनपर अगर सरकर विचार करे तो बात बन जायेगी . पहला मुद्दा तो यही है कि जो खेती अब  अलाभदायक हो चुकी है या कम लाभदायक हो चुकी है उसकी जगह अधिक  आर्थिक लाभ देने वाली खेती की  संस्कृति को शुरू किया  जाये. पंजाब और हरियाणा के किसानों ने खेती के ज़रिये सम्पन्नता  हासिल की है . बाज़ार आधारित खेती  के लिए एम एस पी  जैसी व्यवस्थाओं को ख़त्म करना पड़ेगा . बहुत अधिक पानी से उपजाई जाने वाली फसलों की जगह ऐसी फसलों को  पैदा करना होगा जिसमें पानी कम लगे लेकिन आर्थिक लाभ ज्यादा हो . इसके लिए पंजाब और और हरियाणा के किसानों को धान और  गेहूं की खेती से शिफ्ट करके ऐसी बागवानी और खेती की तरफ ले जाना होगा जहां पानी कम लगे और फसल की कीमत जायदा मिले .उनको गेहूं और धान से शिफ्ट करने के लिए कम से कम तीन साल देना पडेगा .उस तीन साल तक उनको आर्थिक रूप से दण्डित न करके किसी तरह की अस्थाई सब्सिडी देने की बात सरकार को स्वीकार कर लेना चाहिए . तीन साल बाद वही  किसान  गेहूं और धान छोड़कर अन्य फसलों को उपजाने में स्वयं  ही लग जायेगा .

मौजूदा कृषि नीति में  दूसरी बड़ी गलती है  यह है कि वह किसान और उद्योगपति को एक  दूसरे के  सामने खड़ा कर देती है . बाज़ार की अनिश्चिताओं  को झेलने के लिए  किसान को आगे करना  ठीक नहीं है . इस नीति में जो  अंतरनिहित तत्व हैं वे व्यापारी वर्ग को लाभ पंहुचाने के लिए बनाये गए लगते  हैं जब कि पूंजीवादी मानकों से भी यह सही नहीं है . इस नीति के ज़रिये ऐसा माहौल बनाना चाहिए बाज़ार को खुली छूट मिलती कि  वह अपना रास्ता खुद तय करके और कान्ट्रेक्ट की खेती की  दुनिया में नए उद्यमी पैदा हों . पुराने उद्यमियों को ही लाभ देने के मकसद से बनाया गया कोई भी क़ानून न्याय  नहीं दे सकता .

 

तीसरी बात ,इस नीति में कान्ट्रेक्ट की खेती को बढ़ावा देने की बात कही गयी है . कान्ट्रेक्ट की खेती की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि ज़मीन के मालिक के  हितों की सुरक्षा में न केवल सरकार  खडी हो  बल्कि यह  नज़र भी आये कि सरकार किसान के साथ है .उसके लिए प्रशासनिक और क़ानूनी  सुरक्षा कवच की व्यवस्था ज़रूरी है . ज़मीन के विवाद के मामले में  सरकार ने  एस डी एम की  अदालत का प्रावधान किया है .किसानों से कानूनी कार्रवाई का अधिकार  छीन लिया गया है .  यह बहुत सारे  झगड़ों को जन्म देगा . ग्रामीण भारत की जिसको मामूली जानकारी भी है उसे मालूम  है ज़मीन से जुड़े विवाद पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं और बहुत सारी कानून व्यवस्था की समस्याएं भी उसी से जन्म लेती हैं .इसलिए बातचीत के ज़रिये सरकार की तरफ से जो प्रस्ताव जाए उसमें यह व्यवस्था होनी चाहिए कि एस डी एम नहीं , सही न्यायिक  अदालतों में मामलों का निपटारा होने की व्यवस्था की जाए. अगर सरकार शुद्ध अंतःकरण से  नई कृषि नीति के कानूनों में यह तीन ज़रूरी बदलाव कर दे तो समस्या का समाधान  निकाला जा सकता है .

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