Wednesday, December 30, 2020

कोरोना के बाद तर्जे-हुकूमत में बदलाव की सम्भावना और उसकी दिशा

 

 

 


शेष नारायण सिंह

 

2020 बीत गया . इतना बुरा साल मैंने अपने जीवन में कभी  नहीं देखा था .दुनिया भर में कोरोना वायरस का  आतंक था . भारत में इस महामारी से बचाव की तैयारी थोडा विलम्ब  से शुरू हुई. जब अमरीका में कोरोना बढ़ चुका था तब तक भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री मानने को तैयार नहीं थे  कि अपने देश में कोई ख़तरा है .  11 मार्च 2020 को स्वास्थ्यमंत्री डॉ हर्षवर्धन ने  बयान दिया कि देश में कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . हालांकि उसी हफ्ते प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू की घोषणा की थी . बाद में 21 दिन का पूर्ण लॉक डाउन घोषित किया गया .आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि काश सरकार समय रहते चेत गयी होती तो कोरोना से जो तबाही आई है उसको कम किया जा सकता था . बाद में तो सरकार ने चेतावनी और सावधानी की अपील करना शुरू कर दिया .  स्कूल कालेज बंद किये गए .ट्रेनें रद्द  की गईं . लेकिन सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोग तरह तरह की  मूर्खताओं के ज़रिये दुनिया भर में देश के शासक वर्ग की खिल्ली  उड़वाते  रहे . सत्ताधारी  दल के समर्थक एक बाबा ने गौमूत्र की एक पार्टी आयोजित की . उसमें बहुत सारे लोग शामिल हुए और  कैमरों के सामने गौमूत्र पिया लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब तो साल बीत चुका है लेकिन कोरोना की चिंता बरकरार है , आर्थिक मोर्चे पर  भारी नुकसान हो  चुका है ,, स्वास्थ्य सेवाओं की कठिन  परीक्षा हो रही है . घर में बंद लोगों और बच्चों को तरह तरह की मानसिक प्रताडनाओं से गुजरना पड़ रहा है . ब्रिटेन से चलकर कोरोना का एक नया स्ट्रेन आ गया है . चौतरफा डर और दहशत का  आलम है .कोरोना के कारण किसी न  किसी प्रियजन की मृत्यु हो चुकी है . मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से यह साल बहुत ही बुरा रहा है . मेरे शुभचिंतक ललित सुरजन की मृत्यु मेरे लिए एक निजी आघात है . पिछले सात आठ वर्षों में मैंने जो भी अच्छी किताबें पढी हैं उनका ज़िक्र ललित जी ने ही किया था . मुझसे करीब चार साल  बड़े थे लेकिन सही अर्थों में बड़े भाई की भूमिका थी उनकी.  मैं उनके अखबार में काम करता हूँ लेकिन एक कर्मचारी के रूप में उन्होंने मुझे कभी नहीं देखा . उनकी विचारधारा लिबरल और डेमोक्रेटिक थी . सबको अवसर देने के पक्षधर थे . सामाजिक  पारिवारिक संबंधों को निभाने के जो सबसे बड़े मुकाम हैं ,ललित जी वहां विराजते थे . कोरोना काल में जब उनके कैंसर का पता चला तो विमान सेवाएँ बंद थीं. रायपुर में  कैंसर के इलाज की  वह व्यवस्था नहीं थी जो दिल्ली या मुंबई में उपलब्ध है  . उनके बच्चे उनको चार्टर्ड विमान से दिल्ली लाये. बीमारी की हालत में भी वे लगातार अपना काम करते रहे, लिखते रहे और पोडकास्ट के ज़रिये अपनी कवितायें देश को सुनाते रहे . कैंसर से मुक्त होने की दिशा में चल पड़े थे . उम्मीद हो गयी थी कि फिर सब कुछ पहले जैसा ही हो जाएगा  लेकिन  एकाएक  ब्रेन स्ट्रोक हुआ और बीती दो दिसंबर को चले गए . ललित सुरजन की मृत्यु का घाव 2020 का वह  घाव है  जो अगर भर भी गया तो निशान गहरे छोड़ जाएगा . मेरे मित्रों में राजीव  कटारा, दिनेश तिवारी , मगलेश डबराल कुछ ऐसे लोग इस मनहूस साल में छोड़ गए जिनकी कमी हमेशा खलेगी .

 

ग्रेटर नोयडा की अपनी कॉलोनी  से मैंने हज़ारों  मजदूरों को पैदल अपने  गाँव जाते देखा है . उन लोगों के दर्द को बयान करने की मैंने कई बार कोशिश की  है लेकिन बयान नहीं कर पाया . उन मजदूरों के पलायन के कुछ बिम्ब तो ऐसे हैं  जिनके बारे में अगर रात में याद आ जाये तो नींद नहीं  आती.  जिन तकलीफों से लोग घर गए हैं उसमें सरकारी गैरजिम्मेदारी साफ़ नज़र आती  है. अगर सरकार ने थोडा दिमाग लगाकर योजना बनाई होती तो शायद उतना बुरा न होता ,जितना हुआ . जो लोग  अपने घर नहीं गए , यहीं  रह गए उनके खाने पीने की जो तकलीफें हैं उनकी भी याद शायद ही  भुलाई जा सके . सरकारी राशन का इंतजार करते लोग, एकाध दर्ज़न केला देकर उनके साथ फोटो खिंचवाते असहिष्णु नेता , गरीबों के लिए आये राशन से चोरी करते छुटभैया नेता इस साल के कुछ ऐसे दृश्य हैं जो किसी को भी  विचलित कर  देगें .

 

कुछ बातें सकारात्मक भी हुई हैं .कोरोना के संकट के दौर में डरे हुए लोगों ने कुछ ऐसे काम भी किये हैं जिनको अगर जीवन की पद्धति में ढाल लें तो उनका अपना और समाज का बहुत भला होगा .  खामखाह बाज़ारों में घूमना बंद हुआ  है, शादी ब्याह के नाम पर फालतू के खर्च पर भी नियंत्रण देखा गया है . धार्मिक आयोजनों में जो भीड़  जुटाई जाती थी उसपर भी लगाम लगी  है . और भी बहुत सी सामाजिक आर्थिक बुराइयों से लोगों किनारा किया है .अगर लोग इसी को अपनी जीवन शैली के रूप में अपना लें तो चीजें सुधरेंगी .इस कोरोना काल में  जो सबसे ज़रूरी बात हुई  है वह यह कि स्वस्थ रहने को प्राथमिकता देने की जो तमीज कोरोना ने सिखाई है उसको अगर लोग अपनी आदत में शामिल कर  लें उसको स्थाई करने की ज़रूरत है . कोरोना की दहशत का नतीजा यह था कि लोग संभलकर रहे , ऊलजलूल चीज़ें नहीं खाईं और बहुत  लोगों से मिलना जुलना नहीं रखा . शायद इसी वजह से  इस साल वे  तथाकतित सीज़नल  बीमारियाँ नहीं हुईं.  खाने पीने में भी लोगों ने किफ़ायत बरती , फालतू की खरीदारी नहीं हुई शापिंग के शौक़ पर भी लगाम लगी रही . कोरोना के संकट के दौरान  मजबूरी में  सीखी गयी इन बातों का पालन करने से बहुत फायदा हो सकता है .

  वैश्विक स्तर पर 2020 में लोकतांत्रिक मूल्यों का जो ह्रास हुआ है वह अपना स्थाई प्रभाव छोड़ने वाला है .  दुनिया भर में तानाशाही ताकतें मज़बूत हुई हैं .  आज दुनिया में कम से कम पचास देश  ऐसे हैं जहां सत्ता पर  तानाशाहों का क़ब्ज़ा है. बहुत सारे शासकों के बीच तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं. साफ़ नज़र आ रहा है कि चुनाव  के वर्तमान तरीके लिबरल डेमोक्रेसी की स्थापना में नाकाम हो रहे  हैं . तुर्की का  उदाहरण दिया जा सकता  है .  वहां का शासक बाकायदा चुनाव जीतकर आया है लेकिन काम तानाशाहों वाला कर रहा है . ब्राजील में भी यही हाल है . असली या काल्पनिक संकट के नाम पर तानाशाही प्रवित्ति वाले सात्ताधीश मनमानी  करने लगते  हैं. कहने का मतलब यह है कि मौजूदा चुनाव पद्धति  सही अर्थों में लोकशाही निज़ाम  कायम करने में असफल साबित हो रही है .

 

राजनीतिक इतिहास पर  डालने पर पता चलता है कि  किसी भी राजनीतिक विचारधारा पर आधारित कोई भी शासन पद्धति  सत्तर साल के आसपास ही चल पाती है .1917 में लेनिन की अगुवाई में रूसी क्रान्ति हुयी थी लेकिन सत्तर साल बीतते बीतते वह सत्ता और राजनीति की एक कारगर विचारधारा के रूप में फेल हो गयी .बोल्शेविक क्रान्ति की विचारधारा पेरेस्त्रोइका और ग्लैसनास्त की बलि चढ़ गयी . जो वामपंथी विचारधारा आधे यूरोप और एशिया के एक हिस्से में राजकाज की विचारधारा थी ,वह खतम हो गयी . आज कहने को तो चीन में वामपंथी विचारधारा है लेकिन वह मार्क्सवाद के बुनियादी   सिद्धांतों से परे है.    शी जिनपिंग अपने को आजीवन तानाशाह पद पर स्थापित कर लिया है . आज जो  भी शासन व्यवस्था चीन में है वह आम आदमी के लिए तानाशाही  व्यवस्था ही है . सर्वहारा का अधिनायकत्व उसमें कहीं नहीं है .रूसी क्रान्ति के बाद लोकतंत्र के ज़रिये  सत्ता पाने का सिलसिला दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू  हुआ . दुनिया भर फैले राजशाही , तानाशाही और उपनिवेशवादी सत्ताधीशों के खात्मे का दौर शुरू हो गया . एशिया और अफ्रीका में गुलाम देशों की आजादी की बाढ़ सी आ गयी थी .आज की जो चुनाव पद्धति है वह बहुत  सारे  देशों ने उसी कालखंड में अपनाई और उसी के ज़रिये लोकतंत्र की स्थापना की . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है .लोकप्रिय चुनाव के बाद भी बहुत सारे शासक तानाशाह बन रहे हैं .  इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान चुनाव  पद्धति लोकशाही स्थापित करने में नाकाम साबित हो रही है .  इतिहास को मालूम है कि  फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद यूरोप में सामंती व्यवस्था पर कुठाराघात हुआ था  और औद्योगिक क्रान्ति का प्रादुर्भाव हुआ था , लोगों में बराबरी की संस्कृति का विकास हुआ लेकिन शताब्दी बीतने के साथ साथ राजनीतिक परिवर्तन की बातें माहौल में आना  शुरू हो गयी थीं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी बड़े बदलाव हुए थे . कोरोना ने भी  दुनिया भर की आर्थिक हालात पर ज़बरदस्त असर डाला है , इसके बाद भी बड़े बदलाव की   आहट साफ़ सुनाई पड़ रही है . शुरुआती दौर में चुनकर आये सत्ताधीशों की प्राथमिकता  जनकल्याण हुआ करती थी . लेकिन कोरोना काल में देखा जा रहा है कि चाहे तुर्की का अर्दोगन हो या चीन का शी  जिनपिंग  , सभी अपने आपको  शासन पद्धति  के केंद्र में रखने की  कोशिश कर रहे हैं .  यहाँ तक कि अमरीका में भी शासक में स्थाई  होने की बीमारी जोर पकड चुकी है .डोनाल्ड ट्रंप चुनाव हार चुके हैं लेकिन सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं . ज़ाहिर है बदलाव होगा .  बड़ा बदलाव होगा .  आगामी बदलाव दुनिया को किस दिशा में ले जाएगा उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता . उम्मीद की जानी चाहिए कि निर्वाचित शासकों में जो तानाशाही की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं ,अगला बदलाव उसको नाकाम करेगा और कोई अन्य बेहतर व्यवस्था  लागू होगी जिसका स्थाई भाव  लिबरल डेमोक्रेसी ही होगा  .

 

 

 

  

 

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