Sunday, September 2, 2018

एक भोले योद्धा को अलविदा जिसने पत्रकारिता की बुलंदियों के पैमाने तय किये .

Written on 23 August,2018

शेष नारायण सिंह


कुलदीप नय्यर  का  जाना पत्रकारिता के बुलंद आदर्शों की गाथा के इतिहास में एक  पूर्ण विराम है .  सत्तर साल की पत्रकारिता का जीवन आज समाप्त हो गया . उन्होंने 1947 में पत्रकारिता शुरू की थी .दिल्ली के उर्दू अखबार " अंजाम " से शुरुआत की और आज जब  सात दशक बाद हम उनको अलविदा कह रहे हैं तो दुनिया के बहुत सारे अखबारों में , बहुत सारी भाषाओं में उनके लेख छपते हैं .  भारतीय उपमहाद्वीप के सभी बड़े नेताओं को  उन्होंने करीब से देखा था. एक शावक रिपोर्टर के रूप में उन्होंने  महात्मा गांधी  की दिल्ली में होने वाली प्रार्थना सभा को कवर किया था . १९४७ में जब महात्मा गांधी  बंगाल के दंगाग्रस्त इलाकों से दिल्ली आये तो  नय्यर साहब के अखबार ने उनको महात्मा गांधी 'बीट' दे दिया. महात्मा जी की हत्या के दिन वे वहीं थे और अपने अखबार के लिए उस भयानक वारदात की रिपोर्ट लिखी थी.  महात्मा जी की  हत्या की सचाई उनके मन में जीवन  भर बार बार आती रही और वे उस तकलीफ से प्रेरणा लेते रहे . उन्होंने बार बार महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में कही गयी उस बात को दुहराया जब गांधी जी ने कहा था कि हिन्दू और मुसलमान मेरी दोनों आँखें हैं . अपने इतने विस्तृत जीवन में उन्होंने  इंदिरा गांधी , जयप्रकाश नारायण ,लाल बहादुर शास्त्री ,मुजीबुर्रहमान ,ज़ियाउल हक़ ,ज़ुल्फ़िकार  अली भुट्टो आदि का इंटरव्यू किया था. इस इलाके की आज़ादी के बाद की हर घटना पर नय्यर साहब की नज़र रहती थी.
मुल्क  के बंटवारे ने उनके ऊपर भारी असर किया था . नतीजा यह रहा कि पूरे जीवन वे हिंसा के खिलाफ और शान्ति की तरफ खड़े रहे . उनका जाना एक महान योद्धा का जाना है . लाहौर में   फोरमैन  क्रिश्चियन कालेज के छात्र के रूप में उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को करीब से देखा था, और गवर्मेंट कालेज लाहौर में एल एल. बी . के छात्र  के रूप में उन्होंने बंटवारे की आहट को देखा था और उसके खिलाफ हो गए थे. अपनी किताब Beyond the Lines में उन्होंने लिखा है कि,'  जब १३ सितम्बर  १९४७ के दिन ,मैंने बार्डर पार किया तो मैं धर्म के नाम पर इतना खून खराबा और तबाही देख चुका था कि मैंने ठान लिया था कि जो नया भारत हम बनाने जा रहे हैं वहां धार्मिक मतभेद के कारण किसी की मौत नहीं होगी. इसलिए जब मैंने १९८४ में सिखों का कत्लेआम और २००२ में गुजरात का खून खराबा देखा तो मैं बहुत रोया '"
 जीवन भर उन्होंने बंटवारे को नकार देने की गांधी की सीख का पालन किया लेकिन बंटवारा एक सच्चाई थी उसको पलटा नहीं जा सकता था. उनका सपना था  कि एक दिन पूरा दक्षिण एशिया एक यूनियन बन जाएगा , एक वीजा, एक मुद्रा और एक लोग . इस इलाके का हर इंसान जहां चाहेगा , काम करेगा, जहां  चाहेगा ,जाएगा . हालांकि यह सपना अब  पूरा होने वाला नहीं है लेकिन वे अपने सपनों को जिंदा रखने में विश्वास करते थे. सियालकोट में जहां उनका जन्म हुआ था उसकी बहुत दर्द भरी यादें  थीं.  एक बार बीबीसी के एक पत्रकार ने पाकिस्तान से लौटकर दिल्ली में उनसे बताना शुरू किया कि वह सियालकोट गया था और नय्यर मैंसन देखा .  इसके पहले कि वे कुछ आगे  बता सकते ,नय्यर साहब ने कह दिया कि बहुत तकलीफ होती है अपने 'घर ' के बारे में सोचकर . उसके बारे में कुछ मत  बताओ.
भारत की आज़ादी की  रक्षा की हर मुहिम में कुलदीप  नय्यर  के  हस्ताक्षर हैं .मैंने उनको सबसे पहले 1977 में देखा था जब नई दिल्ली के मावलंकर हाल में एक सार्वजनिक सभा हुयी थी . वे खुद जेल में रहकर आये थे और अपने अखबार में एक सम्पादकीय लिखा था   जिसका सार  यह था कि इमरजेंसी की ज्यादतियों के बाद बदले की भावना से काम  नहीं किया  जाना चाहिए . उसी सभा में उनकी मौजूदगी में बड़ोदा डाईनामाईट केस के अभियुक्त और समाजवादी नेता जार्ज फर्नान्डीज़ ने कहा कि अत्याचार को भूल जाने की ज़रूरत नहीं है लेकिन कुलदीप नय्यर अडिग रहे .  इमरजेंसी की ज्यादतियों पर उनकी किताब ,' जजमेंट ' एक बेजोड़ किताब  है . इमरजेंसी के  बारे में ,इमरजेंसी उठने के  तुरंत बाद  लिखी गयी उनकी किताब का कोई सानी नहीं है . इसके अलावा उसी दौर में जनार्दन ठाकुर की किताब 'आल द प्राइम मिनिस्टर्स मेन 'आयी थी . इन दो किताबों को पढ़ लेने के बाद आपातकाल के आतंक के बारे में सब कुछ पता चल जाता है . अजीब बात यह है कि जब प्रेस की सेंसरशिप लगाई गयी तो  बहुत सारे पत्रकारों ने सरकार और सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल के  सामने घुटने टेक दिए लेकिन  कुलदीप नय्यर ने कुछ  पत्रकारों का एक जुलूस लेकर सूचना मंत्रालय के फैसले का विरोध किया और जेल भेजे गए . बहुत सारे दबाव पड़े लेकिन उन्होंने प्रेस की आज़ादी की बात को सर्वोपरि रखा और मीसा बंदी के रूप में जेल की यातना सही. इंदिरा  गांधी और संजय गांधी को वे सदा ही लोकशाही के शत्रु के रूप में मानते रहे .
जब १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या हुयी तो मुझे उनको बहुत ही करीब से देखने का मौक़ा लगा . ३१ अक्टूबर १९८४ की शाम  से ही दिल्ली में कांग्रेसी मठाधीशों अर्जुन दास, ललित माकन, धर्मदास शास्त्री , जगदीश टाइटलर , एच के एल भगत और सज्जन कुमार के गुंडों ने सिखों में घर और   दुकान जलाना शुरू कर दिया था. देश के अन्य हिस्सों से भी इसी तरह की ख़बरें आ रही  थीं. इंदिरा गांधी का शव तीनमूर्ति भवन में रखा था, राजीव गांधी को ३१ अक्टूबर की शाम को ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी थी , दिल्ली पुलिस सड़क पर या तो निष्क्रिय  खडी थी या हत्यारों का सहयोग कर रही थी. बाकी पत्रकारों संपादकों को हर जगह खबर ही खबर दिख रही थी  लेकिन कुलदीप नय्यर अपने कुछ साथियों के साथ लाजपत नगर के सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के दफ्तर में सहायता कार्य को संगठित करने के लिए जुट गए थे  .  उनके साथियों में एक प्रोफेसर भी थीं. उनके पति सरकार में बड़े अधिकारी थे. उन्होने सुझाव दिया कि सरकार से भी मदद की बात  करते हैं . नय्यर साहब ने कहा कि अभी सरकार से कोई सहायता नहीं मिलेगी. क्योंकि सरकार की शह पर ही तो सब कुछ हो रहा है . अभी पीड़ित लोगों तक बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें पंहुचाना ही प्राथमिकता है . नय्यर साहब ने  साफ़ कहा कि अभी जिनके घर जले हैं , जिनका सब कुछ लुट गया है ,उन तक कुछ बहुत ज़रूरी बुनियादी सहायता पंहुचाना ज़रूरी है .
उनके व्यक्तित्व में अपनी बात को साफ़ तरीके से प्रस्तुत कर देने की अतुलनीय क्षमता थी.  एक पत्रकार के रूप में उन्होंने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है और बहुत सारे पत्रकारों के हीरो रहे हैं . दिल्ली में अभी दस दिन पहले अनिल सिन्हा के पोर्टल 'द्रोह काल'  के कार्यक्रम में उन्होंने मीडिया की मौजूदा दशा पर बात की थी. अकसर कहते थे कि अब सरकार को मीडिया को दबाने के  लिए आपातकाल  की तरह के सेंसरशिप की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि ज्यादातर टी वी चैनलों के पत्रकार सत्ताधारी पार्टी के कारिंदे की तरह काम कर रहे  हैं. कहते थे कि इंदिरा गांधी की  सेंसरशिप के समय पत्रकारों के एक बड़े वर्ग ने मास्ट हेड काला छापकर या सम्पादकीय की जगह खाली रखकर विद्रोह किया था लेकिन अब तो ज्यादातर बड़े मीडिया संस्थान सरकार के कारिदों की तरह काम कर रहे हैं ,इसलिए अब किसी तरह की सेंसरशिप की ज़रूरत नहीं है . जो काम इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर हासिल किया था ,उसको यह कुछ पत्रकारों को अपनी तरफ लेकर कर रही है .
कुलदीप नय्यर देश के बहुत ही आदरणीय अखबारों के सम्पादक  रहे, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सूचना सलाहकार का काम किया ,राज्य सभा के सदस्य  रहे, भारत के  ब्रिटेन में हाई कमिश्नर रहे लेकिन यह सब तो कोई भी हो जाता है .  मुझे लगता है कि कुलदीप को  इतिहास शान्ति के एक योद्धा के रूप में याद करेगा . सरहद के दोनों  तरफ उन्होंने  बंटवारे के समय जो खून खराबा देखा था , उसको  वे कभी नहीं भुला पाए .लेकिन उसके बाद भी उनके  अंदर बदला लेने की प्रवृत्ति कभी नहीं आई .  वे हमेशा शान्ति की बात करते थे . इसी सिलसिले में उन्होंने १९९२ में भारत-पाकिस्तान सीमा पर १४-१५ अगस्त की रात में अटारी चौकी पर मोमबत्ती जालकर शान्ति की पहल की शुरुआत की थी. सीमा के दोनों तरफ से शांति के कार्यकर्ता वहां हर साल इकठ्ठा होते हैं .इससे दोनों देशों की शान्ति  या झगड़ों में फर्क तो  नहीं पड़ता लेकिन शान्ति की बात होती रहती है . वहां जब हिन्दुस्तान - पाकिस्तान दोस्ती जिंदाबाद के नारे लगते हैं तो दुनिया  भर में जो लोग भी शान्ति की बात करते हैं उनको  उम्मीद की एक करण दिखाई  पड़ती  है .
नय्यर साहब को बचपन में उनके घर में भोला नाम से पुकारा जाता था लेकिन किस्मत को कुछ और मंज़ूर था . उनकी ज़िंदगी को किसी तरह से भोला नहीं कहा   जा सकता . शान्ति और लोकशाही की तलाश में उन्होंने बहुत टेढ़े मेधे रास्ते देखे थे.  आने वाली  नस्लें उनकी शख्सियत को आदर्श  मानेंगी और हम जैसे लोग इस बात पर गर्व करेंगें कि हमने कुलदीप नय्यर को देखा  है और उनके साथ काम किया  है .उन्होंने अपनी ज़िंदगी शान  से जिया . चाहे बार्डर पार करते हुए चारों तरफ की खूंरेजी हो या दिल्ली की सत्ता का आतंक हो नय्यर साहब ने कभी भी ज़िंदगी की परवाह  नहीं की. शायद इसीलिये उनको फैज़  का वह शेर बहुत पसंद था और वे उसको कभी कभी गुनगुनाते   थे .
 " जिस धज से कोई मकतल को चला, वह शान सलामत रहती है ,
यह जान तो आनी जानी है ,इस जान की कोई बात नहीं "

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