Sunday, June 3, 2018

कैराना के नतीजे साम्प्रदायिकता के खिलाफ अवाम का सन्देश हैं .




शेष नारायण सिंह

लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों का एक दौर और  पूरा हो गया.  इस बार भी बीजेपी को इन उपचुनावों में भारी नुकसान हुआ. राजनीतिक  विश्लेषकों में कैराना और नूरपुर के  उपचुनावों  को समझने समझाने का दौर दौरा चल रहा है . जाति के समीकरण सबसे प्रमुख हैं . लेकिन मुझे लगता है कि कैराना चुनाव ने जाति और धर्म के आधार पर चुनाव की व्याख्या को नकार दिया है . कैराना को धार्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला माना जाता है . २०१३ का भयानक दंगा  इसी  इलाके में  हुआ था जिसके बल पर पूरे देश में २०१४ के चुनावों के पहले बहुत बड़े पैमाने पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ था. उसी का नतीजा था कि देश भर में धार्मिक बहुसंख्या वाद की राजनीति परवान चढी थी . लेकिन इस बार  बहुसंख्यावाद की राजनीति झटका लगा है .. कैराना और नूरपुर के नतीजों के बाद यह बात बहुत ही  भरोसे के साथ कही जा सकती है कि अभी यह देश धार्मिक बहुसंख्यावाद की राजनीति को स्वीकार नहीं करेगा. जिस राज्य में चुनाव जीतेने के लिए   यह लगभग सभी पार्टियां कहने लगी थीं कि मुसलमानों के पक्षधर के रूप में दिखने से चुनावी नुकसान होता है, उसी राज्य में दो मुस्लिम उम्मीदवारों ने केंद्र और राज्य में सरकार चलाने वाली पार्टी के खिलाफ चुनाव जीतकर  यह साबित कर दिया है कि इस देश में हिन्दू एकता का   नारा देकर सत्ता पर काबिज़ होने का युग अभी नहीं  आया है . २०१३ और २०१४ के बारे में यह बात अब साफ़ तौर पर कही जा सकती है कि वह नार्मल नहीं था, आम जन गाफिल पड़ गया था और जब पता चला कि २०१३ के दंगे को क्यों इतनी व्यवस्था पूर्वक चलाया गया  था, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
२०१४ के लोकसभा चुनाव के पहले देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा था.  २०१४ के लोक सभा चुनाव के पहले देश के सामने एक नई राजनीतिक बिरादरी तैयार करने की कोशिश की जा रही थी. भारतीय जनता पार्टी के नेता हर कीमत पर राजनीतिक लड़ाई , धार्मिक एकता के आधार पर जीतने की कोशिश कर रहे थे. बीजेपी में वही माहौल था  जो  पार्टी की १९८४ की हार के बाद बना था. उन दिनों हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए पार्टी कमर कसती नज़र आती थी. उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गयाविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में बीजेपी की सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित होती रही  . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष   स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे बढ़ गयीं.और धर्मनिरपेक्ष राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे १९९० की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. २०१३ के मुज़फ्फरनगर दंगे के पहले बीजेपी में वही माहौल बन रहा था और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की  तैयारी थी. लाल कृष्ण आडवाणी  प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की उम्मीद लगाए हुए थे लेकिन उनके अपने लोगों ने उन्हें पीछे कर दिया .उस समय तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने नहीं आये थे लेकिन चर्चा ज़ोरों पर थी . उन दिनों गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन वे आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति के नेताओं के प्रिय बन चुके थे . देश में बहुत बड़े पैमाने पर धर्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा था . धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में एकता की बात तो  कहीं थी ही नहीं ज्यादातर पार्टियों को मुगालता था कि वे ही बीजेपी को हरा लेगें . लेकिन जब २०१४ का चुनाव हुआ तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी गैर मुस्लिम वोटों के बल पर बहुत ही मजबूती से सत्ता में आ गयी और अपने को उत्तर प्रदेश की राजनीति का नियंता समझने वाली पार्टियां बुरी तरह से हार गईं .
कैराना और नूरपुर उपचुनावों का महत्व  इसलिए भी है कि २०१३ के पहले और उसके बाद देश में जो साम्प्रदायिक माहौल इसी इलाके की घटनाओं के एतबार से बनाया गया था उसको इसी ज़मीन पर न केवल चुनौती दी गयी ,बल्कि उसको हरा भी दिया गया .  इस चुनाव में उत्तर प्रदेश के नए नेता, अखिलेश यादव की राजनीतिक सोच की क्षमता का भी इम्तिहान हुआ . सबको मालूम है कि फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों के पहले  उन्होंने ही बहुत सारी अडचनें तोड़कर मायावती से समझौता किया था और समाजवादी पार्टी के साथ बहुजन समाज  पार्टी के जनाधार को  जोड़ दिया था. नतीजा यह हुआ कि राज्य के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की सीटों से बीजेपी के उम्मीदवार हार गए थे. कैराना और फूलपुर में अखिलेश यादव की राजनीतिक समझदारी का असली इम्तिहान हुआ . जहां तक मायावती के साथ चुनाव लड़ने की बात है वह तो ,  फूलपुर और गोरखपुर में तय हो ही गया था , उसको अखिलेश यादव ने राज्यसभा और विधान सभा के चुनावों में और मजबूती प्रदान कर दी .  बीजेपी ने विधायकों में तोड़फोड़ कर के बहुजन समाज पार्टी के  उम्मीदवार भीमराव आंबेडकर को राज्यसभा में पंहुचने से तो रोक दिया लेकिन अखिलेश  यादव ने जिस तरीके से उनको जिताने के लिए काम किया उससे मायावती प्रभावित हुईं और उन्होंने मीडिया के ज़रिये अखिलेश यादव की तारीफ़ की . उसके तुरंत बाद हुए विधानपरिषद के चुनावों में उन्होंने भीमराव आंबेडकर को जिताकर उस विश्वास को और पुख्ता कर दिया .  मायावती के साथ उनका विश्वास का रिश्ता बन चुका था  इसलिए जब उन्होंने मायावती के सामने अजित सिंह और जयंत चौधरी को साथ लेने की राजनीतिक महत्ता की बात की तो  उनका विश्वास किया गया और कैराना से तबस्सुम बेगम को आजित सिंह की पार्टी की  उम्मीदवार बना दिया गया .
तबस्सुम बेगम को उम्मीदवार बनाकर अखिलेश यादव ने बड़ा रिस्क  लिया था . जिस इलाके में अभी एक साल पहले तक मुसलमान से दूरी बनाकर  रखना चुनाव  जीतने के  लिए ज़रूरी माना जाता था , वहीं पर मुसलमान उम्मीदवार को उतारना निश्चित रूप से अन्दर की राजनीतिक मजबूती का लक्षण है . नतीजे आने के बाद सभी कह  रहे हैं लेकिन उसके पहले यह  बात नहीं थी. बहरहाल उपचुनाव के  नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया  है कि देश अभी बहुसंख्यवाद की राजनीति को अपनाने को तैयार नहीं है . चुनावों के नतीजों के मतप्रतिशत को देखने से समझ में आ जाता  है कि कैराना और नूरपुर में जनता ने सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट दिया है . नूरपुर में  समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नईम उल हसन को पचास  प्रतिशत वोट मिले  जो  क्षेत्र की मुस्लिम आबादी से   बहुत ज़्यादा  है .यह इस बात का संकेत है कि धर्म की राजनीतिक करने वालों के हाथ निराशा लगी है .   . सत्ताधारी पार्टी की तरफ से २०१३ के दंगों, अलीगढ में जिन्ना  का तस्वीर और अन्य बहुत सारे मुद्दे उछाले  गए लेकिन सभी बेअसर रहे . किसानों की समस्याओं पर सत्ताधारी पार्टी से सवाल पूछे गए ,  नौजवानों की नौकरियों के बारे में सवाल पूछे गए और दुनिया जानती है कि इन  मुद्दों पर सरकार के पास कोई जवाब  नहीं है. आम आदमी के सवालों पर जब जनता एकजुट होती है तो देश की आज़ादी की बुनियादों पर बन रही इमारत और भी मज़बूत होती है . और सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि देश में सामाजिक एकता होगी तभी देश का विकास होगा .

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