Tuesday, November 7, 2017

एक बेहतरीन इंसान का जन्मदिन है आज , मुबारक हो सबीहा



दिल्ली के एक करखनदार परिवार में उसका जन्म हुआ था . मुल्क  के बंटवारे की तकलीफ को उसके  परिवार ने  बहुत करीब से झेला था. उसके परिवार के लोग जंगे-आज़ादी की अगली सफ़ में रहे थे. उनके पिता ने  हिन्दू कालेज के छात्र के रूप में बंटवारे के दौर में इंसानी बुलंदियों को रेखांकित किया था लेकिन बंटवारे के बाद  परिवार टूट गया था. कोई पाकिस्तान चला गया और कोई हिन्दुस्तान में रह गया . उसके दादा मौलाना अहमद सईद ने पाकिस्तान के चक्कर में पड़ने से मुसलमानों को आगाह किया था और जिन्ना का विरोध किया था . मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी .उसके बाद ही अंग्रेजों ने  हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. 
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब भारत में ही रहे और परिवार का एक बड़ा हिस्सा भी यहीं रहा लेकिन कुछ लोगों के चले जाने से परिवार  तो बिखर गया ही था.
आठ नवम्बर ११९४९ को दिल्ली के  कश्मीरी गेट मोहल्ले में उसका जन्म  हुआ था. परिवार पर आर्थिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा था लेकिन उसके माता  पिता ने हालात का बहुत ही बहादुरी से मुकाबला किया  अपनी पाँचों औलादों को इज्ज़त की ज़िंदगी देने की पूरी कोशिश की और कामयाब हुए. उसके सारे भाई बहन बहुत ही आदरणीय लोग हैं . जब दिल्ली में कारोबार लगभग ख़त्म हो गया तो डॉ जाकिर हुसैन और प्रो नुरुल हसन की   प्रेरणा से परिवार अलीगढ़ शिफ्ट हो गया . बाद में उसकी माँ को  दिल्ली में नौकरी मिल गयी तो बड़े बच्चे अपनी माँ के पास दिल्ली में आकर पढाई लिखाई करने लगे . छोटे अलीगढ में ही  रहे ' कुछ साल तक परिवार  दिल्ली और  अलीगढ के बीच झूलता रहा . बाद में सभी दिल्ली में आ  गए . इसी दिल्ली में आज से  चालीस साल  पहले मेरी उससे मुलाक़ात हुयी .

बंटवारे के बाद जन्मी  यह लडकी आज ( आठ नवम्बर )  अडसठ साल की हो गयी. जो लोग सबीहा को  जानते हैं उनमे से कोई भी बता देगा  कि उन्होंने सैकड़ों ऐसे लोगों की जिंदगियों को जीने लायक बनाने में योगदान किया है जो  अँधेरे भविष्य की और ताक  रहे  थे. वह किसी भी परेशान इंसान के मददगार के रूप में अपने असली  स्वरुप में आ  जाती  हैं . लगता है कि  आर्थिक अभाव में बीते अपने बचपन ने उनको एक ऐसे इंसान के रूप में स्थापित कर दिया जो किसी भी मुसीबतजदा इंसान को दूर से ही पहचान लेता है और वे फिर बिना उसको बताये उसकी मदद की योजना पर काम करना शुरू कर देती हैं .यह खासियत उनकी छोटी बहन में भी है . उनकी शख्सियत की यह खासियत मैंने पिछले चालीस  वर्षों में बार बार देखा .
दिल्ली के एक बहुत ही आदरणीय पब्लिक  स्कूल में आप आर्ट पढ़ाती थीं,  एक दिन उनको पता लगा कि बहुत ही कम उम्र के किसी बच्चे को कैंसर हो गया है . कैंसर की शुरुआती स्टेज थी . डाक्टर ने बताया कि अगर उस बच्चे का इलाज हो जाये तो उसकी ज़िंदगी बच सकती थी. अगले एक घंटे के अंदर आप अपने शुभचिंतकों से बात करके प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर चुकी थीं. बच्चे का इलाज हो गया . अस्पताल में ही जाकर जो भी करना होता था , किया . बच्चे की इस मदद को अपनी ट्राफी नहीं बनाया . यहाँ  तक कि उनको मालूम भी नहीं कि वह बच्चा कहाँ है . ऐसी अनगिनत मिसालें हैं . किसी की क्षमताओं को पहचान कर उसको बेहतरीन अवसर दिलवाना उनकी पहचान का हिस्सा है . उनके स्कूल में एक लड़का  उनके विभाग में चपरासी का काम करता था. पारिवारिक परेशानियों के कारण पढाई पूरी नहीं कर सका था . उसको  प्राइवेट फ़ार्म भरवाकर पढ़ाई पूरी करवाया और  बाद में वही लड़का बैंक के प्रोबेशनरी अफसर की परीक्षा में  बैठा और आज बड़े  पद पर  है .  उनके दफ्तर के  एक  अन्य सहयोगी की मृत्यु के बाद उसके घर गईं, आपने भांप लिया कि उसकी विधवा को उस  परिवार में परेशानी ही परेशानी होगी. अपने दफ्तर में उसकी  नौकरी  लगवाई. उसकी आगे की पढ़ाई करवाई और आज वह महिला स्कूल में  शिक्षिका है . ऐसे  बहुत सारे मामले हैं ,लिखना शुरू करें तो किताब बन जायेगी . आजकल आप बंगलौर के पास के जिले रामनगर के एक गाँव में विराजती हैं और वहां भी  कई लड़कियों को अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं .   उस गाँव की कई बच्चियों के माता पिता  को हडका कर सब को शिक्षा पूरी करने का माहौल बनाती हैं और उनकी फीस  आदि का इंतज़ाम  करती हैं .  
सबीहा अपनी औलादों के लिए कुछ भी कर सकती हैं , कुछ भी . दिल्ली के पास गुडगाँव में उनके बेटे ने अच्छा ख़ासा  घर बना दिया था लेकिन जब उनको लगा कि उनको बेटे के पास बंगलौर रहना ज़रूरी है तो उन्होंने यहाँ से सब कुछ ख़त्म करके बंगलोर शिफ्ट करना उचित   समझा लेकिन  बच्चों के सर  पर बोझ नहीं बनीं, उनके घर में रहना पसंद नहीं किया .अपना अलग घर बनाया और आराम से  रहती हैं. इस मामले में खुशकिस्मत हैं  कि उनकी तीनों औलादें अब बंगलौर में ही हैं . सब को वहीं काम मिल गया है .आपने वहां एक ऐसे गाँव में ठिकाना  बनाया जहां जाने  के लिए सड़क भी नहीं है.. मुख्य सड़क से  काफी दूर पर उनका घर है लेकिन वहां से हट नहीं सकतीं क्योंकि गाँव का हर परेशान परिवार अज्जी की तरफ उम्मीद की नज़र  से देखता है . सबीहा ने अपने लिए किसी से कभी कुछ नहीं माँगा लेकिन  जब उनको किसी की मदद करनी होती है तो बेझिझक मित्रों , शुभचिंतकों से  योगदान करवाती हैं . अपने  गाँव की बच्चियों से हस्तशिल्प के आइटम बनवाती हैं , खुद  भी लगी रहती हैं और बंगलौर शहर में जहां भी कोई प्रदर्शनी लगती है उसमें बच्चों के काम को प्रदर्शित करती हैं , सामान की बिक्री से  जो भी आमदनी होती है उसको उनकी फीस के डिब्बे में डालती रहती  हैं . उसमें से  अपने लिए एक पैसा नहीं लेतीं .उनके तीनों ही बच्चे यह जानते हैं और अगर कोई ज़रूरत पड़ी तो हाज़िर रहते हैं.  
 अपने भाई के एक  ऐसे दोस्त को उन्होंने रास्ता दिखाया  और सिस्टम से ज़िंदगी जीने की तमीज सिखाई जो दिल्ली महानगर में पूरी तरह से कनफ्यूज़ था . छोट शहर और गाँव से आया यह नौजवान दिल्ली में दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा था . रोज़गार के सिलसिले में दिल्ली आया था , काम तो छोटा मोटा मिल गया था लेकिन परिवार गाँव में था. वह अपनी पत्नी और दो  बच्चों को इसलिए नहीं ला रहा था कि रहेंगे कहाँ . आपने डांट डपट कर बच्चों और उसकी पत्नी को दिल्ली बुलवाया, किराये के मकान में  रखवाया और आज वही बच्चे अपनी ज़िन्दगी संभाल रहे  हैं, अच्छी पढाई लिखाई कर चुके हैं  . वह दिशाहीन  नौजवान भी  अब बूढा हो गया है और शहर में कई हल्कों  में पहचाना जाता है .
सबीहा में हिम्मत और हौसला बहुत ज्यादा है . आपने चालीस साल की उम्र में रॉक क्लाइम्बिंग सीखा और  बाकायदा एक्सपर्ट बनीं, अडतालीस साल की उम्र में कार चलाना सीखा .  चालीस की उम्र पार करने के बाद चीनी भाषा में  उच्च शिक्षा ली.  नई दिल्ली के नैशनल म्यूज़ियम इंस्टीच्यूट ( डीम्ड यूनिवर्सिटी ) से पचास साल की उम्र में पी एच डी किया . जब मैंने पूछा कि इतनी उम्र के बाद पी एच डी से क्या फायदा होगा ?  आपने कहा कि ,"यह मेरी इमोशनल  यात्रा है . मेरे अब्बू की इच्छा थी कि मैं  पी एच डी करूं. उनके जीवनकाल में तो नहीं कर पाई लेकिन अब जब भी मैं उसके लिए पढ़ाई  करती हूँ तो लगता है उनको श्रद्धांजलि दे रही हूँ ."
आज उसी बुलंद इन्सान का जन्मदिन है .जन्मदिन मुबारक हो सबीहा .



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