शेष नारायण सिंह 
महिलाओं के लिए संसद और विधान मंडलों में  ३३ प्रतिशत आरक्षण  के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है .अब वे अपने हक को हर हाल में लेने के लिए संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी हैं .करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके महिलाओं के तीन जत्थे दिल्ली पंहुचे थे और जब यह उत्साही महिलायें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से उनके आवास पर मिलीं तो वे बहुत प्रभावित हुईं और उन्होएँ अपने आप को इनके मिशन से  जोड़ दिया. लेकिन उन्होंने चेतावनी भी दी कि अभी लम्बी लड़ाई  है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें  मानने  पर मजबूर करती रही  हैं .अपने को  पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार  महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के  लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है  . लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है . सच्ची बात यह है कि २० हज़ार किलोमीटर की जागरूकता यात्रा करके लौटी इन औरतों को  जिसने देखा है , उसे मालूम है कि महिला आरक्षण का माला अब राजनीतिक प्रबंधन की सीमा से बाहर जा चुका है . लगता है कि इतिहास एक नयी दिशा में चल पड़ा है और आने वाली  नस्लें इन औरतों पर फख्र करेगीं . यह कोई तफरीह नहीं है , यहाँ इतिहास अंगडाई ले रहा है.
इसके पहले महिला आरक्षण कारवां ६ जून को दिल्ली पंहुचा था . पूरे भारत में करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके तीन काफिले जब दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में पंहुचे तो उनका बाजे गाजे के साथ  स्वागत किया गया. यह तीनों काफिले १८५७ की हीरो झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की बलिदान स्थली, झांसी से २० मई को चले थे. १८५७ में  मई के महीने में ही भारतीय इतिहास की इन वीरांगनाओं ने ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी . और साम्राज्यवादी सामन्ती सोच के सामने इन्होने वीरता का वरण  किया था और शहीद  हुई थीं. . भारत की आज़ादी की नींव में जिन लोगों का खून लगा है , यह दोनों उसमें सर-ए-फेहरिस्त हैं .  १८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में  ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है, वे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ  पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमान, सिख, ईसाई, बूढ़े ,बच्चे  नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी  के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने  भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी.  लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम  में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये  और देश वासियों की एकता  को तबाह करने की  पूरी  कोशिश की .  लेकिन आज़ादी  हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की  स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने  बराबरी के सपने को चनाचूर कर दिया . इनकी  पुरातन पंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़  इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से  जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की.  हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की  कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत  बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव  नहीं था और बिल पास हो गया . 
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी.  राजीव गाँधी ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीन लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को  आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले १२ वर्षों से महिला आरक्षण बिल  राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में  ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस , बी जे पी या  लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा  होने के बावजूद भी  कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्य सभा में बिल को पास  करा लिया गया है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोक सभा में होना है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना  चाहती  हैं . ऐसे माहौल में मानवाधिकारों के लिए   संघर्ष करने के  लिए बनायी गयी  संस्था, अनहद की अगुवाई  में करीब दो सौ महिला संगठनों के कार्यकर्ता सामने आये और चल पड़ा जागरूकता  का कारवां.  झांसी से चल कर करीब बीस हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके जो महिलायें दिल्ली पंहुची थीं , उनका उत्साह देखते बनता  था . राजस्थान में महिला अधिकारों की अलख जगाने वाली भंवरी देवी थीं , तो गुजरात पुलिस के हाथों  फर्जी इनकाउंटर में मारी गयी लड़की इशरत जहां  के माँ शमीमा और उसकी  बहन मुसर्रत भी थीं .  अनहद की शबनम हाशमी का दावा है कि जब पूरे देश में  जागरूक महिलाओं की ओर से आवाज़ उठेगी तो दिल्ली में बैठे सरकारी नेताओं के लिए महिलाओं के अधिकार को हड़प कर पाना बहुत मुश्किल होगा
 
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