शेष नारायण सिंह
तृणमूल कांग्रेस के पूर्व
नेता और बंगाल सरकार में मंत्री और ममता बनर्जी के करीबी भक्त रह चुके शुवेंदु
अधिकारी को जब बीजेपी में भर्ती किया गया था तो पार्टी को लगता था कि बहुत बड़ा तख्तापलट
हो गया है . जिस दिन वे भर्ती हुए थे उस दिन बहुत बड़े जश्न का आयोजन किया गया था .
उम्मीद की गयी थी कि सारे बंगाल में वे
तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को बीजेपी में ला देंगे लेकिन उनके पाला बदलते ही
ममता बनर्जी ने उनकी सीट से अपनी उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया . भवानीपुर की अपनी मज़बूत सीट छोड़कर उन्होंने
नंदीग्राम में ही अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया .
शुवेंदु अधिकारी ने भी तुरंत ऐलान कर दिया कि वे ममता को नंदीग्राम से पचास
हज़ार से ज़्यादा वोटों से हराएंगे और अगर न हरा सके तो राजनीति से संन्यास से लेंगे
. बीजेपी वालों ने शायद सोचा था कि नंदीग्राम में तो शुवेंदु का ही काम है उनके
लिए अपने क्षेत्र से जीतना बहुत आसान होगा
. आंकड़ों पर नज़र डालें तो साफ हो जाएगा कि
2009 के लोकसभा चुनाव से ही नंदीग्राम में
तृणमूल कांग्रेस को ज़बरदस्त बहुमत मिलता
रहा है .जिसमें मुख्य कार्यकर्ता के रूप में शुवेंदु अधिकारी शामिल होते
रहे हैं . 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी
के उत्थान के बावजूद भी तृणमूल को कोई
घाटा नहीं हुआ था . बीजेपी के
वोटों में वृद्धि हुई .वह वृद्धि लेफ्ट फ्रंट के वोटों का बीजेपी के खाते में आ जाने के कारण हुई थी. नंदीग्राम
में बीजेपी के वोटों में २५ प्रतिशत की वृद्धि हुयी थी जिसमें 22 प्रतिशत लेफ्ट फ्रंट से शिफ्ट होने
वाले वोटरों का योगदान था. इसके बावजूद तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी से 33 प्रतिशत की
बढ़त थी ..बीजेपी को उम्मीद थी कि शुवेंदु के साथ आ जाने से यह अंतर ख़त्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . बीजेपी में
शामिल होने से उनके वोटों का तीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाता तुरंत उनके खिलाफ ही हो
गया . चुनाव करीब आने के साथ साथ यह साफ़ हो गया कि ममता को हराना आसान नहीं है और
शुवेंदु अधिकारी उतने मज़बूत नहीं हैं जितने माने जा रहे थे . उनकी 2011 और 2016 की जीत में क्षेत्र के करीब
तीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा योगदान होता था . वे सभी ममता बनर्जी के साथ
हैं . अब ममता को नंदीग्राम का विधानसभा
चुनाव जीतने के लिए बाकी बच्चे
सत्तर प्रतिशत वोटों में से केवल 21
प्रतिशत की और ज़रूरत है जब कि शुवेंदु अधिकारी
को 51 प्रतिशत वोट मिलना ज़रूरी है . हालांकि वहां से सी पी एम की उम्मीदवार भी एक
शिष्ट महिला हैं , उनके साथ भी कुछ लोगों की सहानुभूति है लेकिन जिस तरह से शुवेंदु
अधिकारी ने हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण किया है उसके चलते लेफ्ट फ्रंट की उम्मीदवार
कोई बहुत फर्क डालने वाली नहीं साबित होंगी.
नंदीग्राम के कुल वोटों का 51 प्रतिशत लेने के लिए शुवेंदु अधिकारी को कुल हिंदू वोटों का 70 प्रतिशत से ज्यादा वोट
लेना पडेगा . यह तर्क के लिए बनाई गयी एक काल्पनिक स्थिति है लेकिन सच्चाई यह है कि लेफ्ट फ्रंट के
लिए आई एस एफ वाले मौलाना भी रैली कर चुके
हैं , कुछ लेफ्ट फ्रंट के वोट भी वहां हैं
जो उसके उम्मीदवार को मिलेंगे ही . इसलिए जीतने
वाले को 40 से 45 प्रतिशत वोट का लक्ष्य रखना पडेगा .
यह स्थिति ममता को भी पता है
और शुवेंदु अधिकारी को . ममता को मालूम है
कि नंदीग्राम या पूरे बंगाल में जीतने के लिए उनको कम से कम आधे हिन्दू वोट चाहिए
..शायद इसीलिये उन्होंने हिन्दुओं को खुश करने के लिए कई काम किये हैं. मीडिया को साथ
लेकर मंदिरों में जाना , मंच से चंडीपाठ करना अपने गोत्र को सार्वजनिक रूप से बताना आदि ऐसे काम हैं जिससे साफ पता चलता है कि मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी जानती हैं कि उनके खिलाफ सभी हिन्दुओं को लामबंद करने की कोशिश हो रही
है. उनके पुराने शिष्य , शुवेंदु अधिकारी ने उनको ‘ बेगम ममता ‘ और नंदीग्राम में मिनी
पाकिस्तान बनाने की कोशिश करने वाली बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने की पूरी
तैयारी कर ली है .लेफ्ट फ्रंट के खिलाफ जब ममता ने काम किया था और उनके बदमाशों को
सामना किया तह तो शुवेंदु अधिकारी ही उनके सेनापति थे . उन्होंने पिछले दस वर्षों में लेफ्ट फ्रंट वालों
को हिंसा का बार बार शिकार बनाया है .ममता को मालूम है कि अपनी उस प्रतिभा का शुवेंदु
पूरी तरह से इस बार भी प्रयोग करेंगे .
नंदीग्राम में शुवेंदु अधिकारी कभी मुसलमानों
के हीरो हुआ करते थे लेकिन अब वे उनको
हिंसा शिकार बनाने का माहौल बना रहे हैं . .
नंदीग्राम का इलाका वास्तव
में चावल उत्पादकों का गढ़ माना जाता है .
वहां किसानों के मुद्दे भी चुनाव में महत्वपूर्ण
हुआ करते थे लेकिन शुवेंदु अधिकारी ने चुनाव को पूरी तरह से हिन्दू बनाम मुस्लिम
बनाने की पूरी कोशिश की है . ऐसा लगता है
कि उनकी पार्टी को मालूम है कि वे धार्मिक
आधार पर चुनाव को पूरी तरह बांटने में नाकाम रहे
हैं. अमित शाह सहित सभी बड़े नेताओं
का मतदान के ठीक पहले वहां ज़मीनी स्तर का
प्रचार करना इस बात का साफ़ संकेत है . हालांकि बीजेपी के नेता और उनके समर्थक
विश्लेषक और चैनल इस बात का ज़बरदस्त प्रचार कर रहे हैं कि उन्होंने ममता बनर्जी को
नंदीग्राम में चार दिन तक चुनाव प्रचार करने के लिए मजबूर कर दिया लेकिन सच्चाई यह है कि केवल नंदीग्राम में बीजेपी
के बड़े नताओं को चुनाव के एक दिन पहले रोड शो करने को तो ममता ने मजबूर किया है .
बहरहाल सबको मालूम है कि नंदीग्राम का चुनाव सही मायनों में दोनों पक्षों के लिए
प्रतिष्ठा का चुनाव है . अगर बीजेपी वाले
मुख्यमंत्री को हराने में सफल हो जाते हैं तो उनकी बंगाल की राजनीति बहुत ही आसान हो जायेगी . शुवेंदु
अधिकारी सहित जो बड़ी संख्या में तृणमूल
कांग्रेस वाले बीजेपी में शामिल हुए हैं उनकी मदद से तृणमूल के बाकी कार्यकर्ताओं
को साथ लेने में बहुत मदद मिलेगी . लेकिन अगर
ममता जीत गयीं तो बीजेपी को झटका लगेगा क्योंकि अगर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार
दोबारा बनती है तो जैसा कि ममता और शुवेंदु अधिकारी ने पिछले
दस साल में लेफ्ट फ्रंट के कार्यकर्ताओं को हिंसा का शिकार बनाया है उसी तरह से बीजेपी के कार्यकर्ता निशाने
पर लिए जा सकते हैं . लेफ्ट फ्रंट के
ज़्यादातर कार्यकर्ता ममता और शुवेंदु अधिकारी की संयुक्त ताक़त और उनके गुंडों की पिटाई से बचने के लिए बीजेपी में जा चुके हैं
. अगर बीजेपी कमज़ोर पड़ती है तो वे लोग भी हिंसा से बचने के लिए अन्य तरीकों को
अपनाएंगे .उन तरीकों में तृणमूल की शरण जाना भी शामिल हो सकता है . शुवेंदु
अधिकारी ने नंदीग्राम से ममता की
उम्मीदवारी की घोषणा के बाद ऐलान किया था कि अगर वे चुनाव हार गए तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे . उनको संन्यास
लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि अगर वे
हार गए और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बन गयी तो उनको ममता किसी तरह की राजनीति लायक
छोड़ेंगी ही नहीं . उनका पूरा परिवार आज ममता बनर्जी की कृपा से राजनीतिक मलाई काट रहा
है . उनके परिवार के ज़्यादातर सदस्य लोकसभा विधानसभा और जिले की राजनीति में बड़े पदों पर हैं. वह सब छूट जाएगा . उनके हारने
के बाद बीजेपी के लिए भी उनका कोई ख़ास
उपयोग नहीं रह जाएगा क्योंकि पार्टी को
उनकी ज़रूरत बंगाल के बाहर बिलकुल नहीं पड़ेगी यानी उनको राजनीति से रिटायर होने की
जहमत नहीं उठानी पड़ेगी . वे दूध की मक्खी की तरह फेंक दिए जायेंगे.इसलिए जहां यह
चुनाव ममता बनर्जी के भविष्य की राजनीति की स्थिरता की लडाई है वहीं शुवेंदु अधिकारी के लिए यह लड़ाई एक राजनीतिक नेता के रूप में अस्तित्व
की भी लड़ाई है .
नंदीग्राम चुनाव के पिछले आंकड़े एक दिलचस्प कहानी बताते हैं .2016 के विधानसभा चुनाव में शुवेंदु
अधिकारी को ज़बरदस्त बहुमत मिला था . उनके लोगों को उम्मीद थी कि बहुमत के वे आंकड़े
उनके साथ ही चले जायेंगे लेकिन ऐसा नहीं
हुआ. उनकी जीत में सहयोग देने वाले मतदातों
का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों का था और वे अब उनके साथ नहीं हैं . वे उनको हराने के लिए एकजुट हैं . शुवेंदु अधिकारी की सोच में जो दूसरा तर्कदोष
था वह यह कि वे सभी हिन्दुओं को अपने साथ ले लेंगे लेकिन बंगाल में और वह भी नंदीग्राम जैसे जागरूक क्षेत्र में
सभी मतदाताओं को धार्मिक आधार पर बांटना
नामुमकिन है .
लेफ्ट फ्रंट सरकार की
भूमिअधिग्रहण नीति के खिलाफ जब बंगाल की जनता 14 साल पहले लामबंद हुई थी तो नंदीग्राम
ही उसके केंद्र में था .उसी आन्दोलन ने
ममता बनर्जी को सत्ता दिलवाई और शुवेंदु
अधिकारी को नेता बनाया . लेकिन उसके पहले भी इस गाँव की जागरूकता का डंका ब्रिटिश
साम्राज्य के सर पर बज चुका था. उस लड़ाई
में हिन्दू और मुसलमान साथ साथ थे . जब अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने ,’,भारत
छोड़ो ‘ का नारा दिया था तो उसकी धमक नंदीग्राम में बहुत ही ज़ोरदार तरीके से देखी
गयी थी. 30 सितंबर 1942 के दिन क़रीब दस
हज़ार लोगों का एक जुलूस नंदीग्राम के पुलिस थाने पर गया और उन्होंने थेन पर तिरंगा
झंडा फहरा दिया था . ब्रिटिश सैनिकों ने गोली चला दी जिसके कारण आठ लोग मारे
गए . भारत सरकार ने शहीदों की जो डिक्शनरी छापी है उसमें नंदीग्राम के आठों शहीदों के नाम हैं . मरने
वालों में शेख अलाउद्दीन , अजीम बख्श और
शेख अब्दुल भी थे. उन दिनों के अविभाजित मिदनापुर जिले , नंदीग्राम जिसका हिस्सा
है , में 1920 और 1930 के महात्मा गांधी के आन्दोलनों में भी हिन्दू-मुस्लिम एकता
की ज़बरदस्त जुगलबंदी देखने को मिली थी . मौजूदा चुनाव में उसी
नंदीग्राम में हिंदू-मुस्लिम विवाद पैदा करके चुनाव जीतने की शुवेंदु अधिकारी की कोशिश
कितना सफल होती है इस पर राजनीतिशास्त्र , समाजशास्त्र और इतिहास के जानकारों
की दृष्टि लगातर बनी रहेगी .