शेष नारायण सिंह
२२ मार्च को प्रधानमंत्री ने वह काम किया जो उनको फरवरी में ही कर देना चाहिए था क्योंकि जब तक कोरोना वायरस को खत्म नहीं किया जाएगा इससे बचा नहीं जा सकता . अब तो खैर इस बीमारी से मुकाबले के लिए देर से ही सही भारत सरकार ने युद्धस्तर पर कोशिश करना शुरू कर दिया है . बीस मार्च को प्रधानमंत्री के " देश को संदेश " के बाद लगा कि सरकार इस खतरनाक बीमारी को गंभीरता से ले रही है. पहली बार लगा कि प्रधानमंत्री देश की जनता को भी इस सरकार की मुहिम में शामिल करना चाहते हैं . वरना अब तक तो चुनावों के दौरान ही वे एक सौ तीस करोड़ देशवासियों की बात किया करते थे . उसके बाद इसी हफ्ते उन्होंने तीन हफ्ते के लिए पूरे देश के लॉक डाउन का भी ऐलान कर दिया . १५ अप्रैल तक देश में पूरी तरह से लॉक डाउन की घोषणा कर दी गयी है . अब यह साबित हो चुका है कि देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इतने बड़े पैमाने पर कोरोना वायरस के असर को नाकाम करने के लिए काफी नहीं हैं. देश में वेंटिलेटरों की भारी कमी है . यूरोप और अमरीका में वायरस के आने के साथ साथ वेंटिलेटर के उत्पादन की तैयारी बहुत बड़े पैमाने पर शुरू हो गयी थी. अपने यहाँ पुणे की एक कंपनी महामारी के इतने खतरनाक रूप ले लेने के बाद थोड़े बहुत वेंटिलेटर दे सकने की स्थिति में आयी है . वायरस से पीड़ित मरीजों की देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के लिए ज़रूरी पोशाक तक कई मेडिकल कालेजों में उपलब्ध नहीं है . वहां डाक्टर लोग एक मास्क लगाकर भगवान भरोसे काम कर रहे हैं . जो भी हो इस बीमारी मुकाबला तो करना ही है और सबसे महत्वपूर्ण तरीका यही है कि देश की जनता चौकन्ना रहे और कोविड-19 के मरीजों के सम्पर्क में ही न आये. एक गनीमत है कि इसका ज़हर हवा के ज़रिये नहीं फैल रहा है इसलिए अगर किसी भी मरीज़ को छूने या उसके बहुत करीब आने से बचा जा सके तो बीमारी पर काबू पाया जा सकता है .
अब इक्कीस दिनों की पूरी आबादी की कोरोनाकैद के बाद विषाणु को काबू में किया जा सकेगा ,यह उम्मीद हो गयी है . देश की आबादी के बड़े हिस्से को तबाही से बचाने के लिए यह ज़रूरी था . लेकिन इस बात में भी दो राय नहीं है कि सरकार ने बिना तैयारी के ही लॉक डाउन की घोषणा कर दी . जहां तक दवाओं. अस्पतालों , मेडिकल साजो-सामान की कमी की बात है उसके बारे में तो एक दिन या एक हफ्ते में कोई बड़ी नहीं तैयारी की जा सकती लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि लॉक डाउन को इतने रहस्यमय तरीके से क्यों घोषित किया गया . अगर थोड़ी तैयारी इसके लिए ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो क्या बिगड़ जाता . अगर उन्होने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग आज वहां रहकर भूखों मरने के लिए अभिशप्त हो गए . जो हज़ारों करोड़ रूपये का ऐलान आज किया है , वह उसी दिन भी तो किया जा सकता था जिस दिन से लॉक डाउन हुआ है. उसी दिन से फुटपाथ पर रहने वाले लोगों की ऊपर पुलिस कहर बन कर टूट पडी है. उनको ऊपर से हुकुम है कि कोई भी घर के बाहर नहीं नज़र आना चाहिए . उनका तो कोई घर ही नहीं है . वे तो कहीं भी तीन टप्पर डालकर पड़े रहते हैं. जब उनके ऊपर पुलिस का डंडा बरसना शुरू हुआ तो अपने छोट छोटे बच्चों ,औरतों को साथ लेकर वे लोग अपने गाँव की तरफ चल पड़े . बस ट्रेन आदि बंद कर दी गयी हैं लिहाजा वे पैदल ही चल पड़े . ख़बरें आ रही हैं कि सडकों पर पुलिस उनको पकड़कर पीट रही है . वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर की एक रिपोर्ट है कि कुछ मजदूर दिल्ली के हौज़ खास थाने गए और दरोगा से विनती की कि उनको जेल में बंद कर दिया जाए लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि आप लोगों ने कोई अपराध तो किया नहीं है जेल में क्यों बंद करें . एक अन्य केस में यमुना एक्सप्रेसवे पर जेवर के पास पैदल जा रहे करीब बीस मजदूरों को पुलिस ने मारा पीटा. अब खबर आ रही है कि कोरोना वायरस से प्रभावित अर्थव्यवस्था और गरीबों की मदद के लिए सरकार ने 1 लाख सत्तर हज़ार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा कर दी है . वित्त मंत्री ने गुरुवार को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अभी लॉकडाउन को 36 घंटे ही हुए हैं सरकार प्रभावितों और गरीबों की मदद के लिए काम कर रही है। इस योजना में गरीबों के साथ साथ कोरोना वायरस से लोगों को बचा रहे डॉक्टर्स, पैरामेडिकल स्टाफ को 50 लाख रुपये का इंश्योरेंस कवर भी दिया जा रहा है . सरकार ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा लेकिन यह सब बातें उन लोगों के लिए हैं जो लाभार्थी हैं जो लिखत पढ़त में गरीब हैं . इस पैकेज में उन लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो इस वक़्त सडकों पर हैं और पैदल अपने घर जा रहे हैं और कहीं भी उनका नाम रिकार्ड में नहीं है . सरकारी स्कीम में कंस्ट्रक्शन के काम में लगे मजदूरों के कल्याण का भी ज़िक्र है .
लेबर चौक पर खड़े होने वाले मजदूरों का कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता . लेबर चौक पर सुबह पांच बजे से ग्यारह बजे तक मजदूर इंतज़ार करते हैं . पांच से आठ बजे तक तो काम की उम्मीद रहती है लेकिन दस बजे के बाद उनके चेहरों पर जो हालात होते हैं उसको देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है . दिल्ली, नोयडा , गेटर नोयडा , गाज़ियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम में इस तरह के सैकड़ों लेबर चौक हैं .इन सभी चौकों को मिलकर यहाँ सुबह सुबह लाखों मजदूर इकठ्ठा होते हैं. तरह तरह के काम के लिए लोग यहाँ से मजदूर ले जाते हैं. जब कोई टेम्पो आकर रुकता है तो उसके साथ जाने के लिए एक साथ ही सैकड़ों लोग दौड़ पड़ते हैं अपनी ज़रूरत भर के मजदूर वह टेम्पो वाला साथ ले जाता है. जो लोग छूट जाते हैं उनके चेहरे पर निराशा की जो इबारत लिख उठती है वह घनीभूत पीड़ा की तस्वीर होती है . जो लोग निराश होकर दिल्ली से पैदल ही अपने गाँव की और जा रहे हैं उनमें लेबर चौक के मजदूरों की बड़ी संख्या है . लगता है कि सरकार ने लॉक डाउन की घोषणा करने के पहले इनके बारे में कोई विचार नहीं किया . क्योंकि जब प्रधानमंत्री ने २२ मार्च की रात आठ बजे कहा कि आप अपने घर के अन्दर ही रहिये तो इन लोगों की समझ में ही नहीं आया होगा कि रहना कहाँ है . फुटपाथ ही उनका घर है . या किसी खुले मैदान में पडी हुयी कुछ झोपड़ियां ही उन लोगों का ठिकाना होती हैं . उनमें तो उनका सामान ही रखा जाता है . रहना, सोना, नहाना , खाना तो वे खुले में ही करते हैं . इनके अलावा ठेके पर काम करने वाले और कैजुअल मजदूर भी रोज़ाना के हिसाब से मजदूरी पाते हैं . इनकी संख्या देश के कुल कामगारों की ८० से ९० प्रतिशत के बीच है . यह औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं होते . २०१७-१८ के आर्थिक सर्वे के अनुसार देश की ८७ प्रतिशत कम्पनियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं . जहाँ कैजुअल लेबर काम करते हैं . केंद्र सरकार की घोषणा में उनको तो शायद कुछ लाभ मिल जाए लेकिन फुटकर काम करने वालों का कोई पुछत्तर नहीं है .
अब ख़बरें आ रही हैं कि जगह जगह लोग फंसे हुए हैं . पत्रकार श्रुति व्यास की रिपार्ट है कि वसंत कुञ्ज के पास रंगपुर पहाड़ियों में झारखण्ड के कुछ सौ मजदूर अनाथ असहाय पड़े हैं . उनके पास रोटी के पैसे नहीं हैं. जब यह खबर सार्वजनिक हुयी तो श्रुति के ट्विटर पर आई खबर पर ही झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जवाब दिया कि उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से बात कर ली है और उनसे निवेदन किया है वे झारखण्ड के लोगों को किसी तरीके से घर भेजें .आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह से भी बात हुयी तो उन्होंने बताया कि वे दिल्ली सहित कई राज्यों के पुलिस अधिकारियों से संपर्क बनाये हुए हैं और कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह से लोगों को उनके गाँव तक भेजवाया जा सके .
यह तो दिल्ली के आस पास इलाकों का हाल है .इसी तरह की परेशानी मुंबई, पुणे , सूरत , अहमदाबाद , कोलकता आदि में भी होगा . अभी गुजरात के उपमुख्यमंत्री के पी आर ओ ने फेसबुक पर बहुत गर्व से घोषित किया कि उनके बॉस ने कार से जाते हुए देखा कि कुछ मजदूर सर पर अपनी गठरी आदि लादे राजस्थान की तरफ चले जा रहे हैं . उन्होंने अपनी कार रोकी और उन लोगों को राजस्थान की सीमा तक भेजने का इंतजाम किया . सवाल यह है कि उन उपमुख्यमंत्री महोदय ने सभी मजदूरों के लिए एक नीति बनाने की बात क्यों नहीं सोची .बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी का कार्यकर्ता इस तरह की विपदा में पड़े लोगों को खाना खिलाएं . यह बात क्यों की जा रही है. विपदा में डालने वाली बीजेपी की सरकार है और उनकी मुसीबत में धर्मधजी बनकर उनकी सहानुभूति बटोरने का अवसर बीजेपी के लोगों के हाथ आना क्यों ज़रूरी है . यह काम सरकार के कर्मचारी क्यों नहीं कर सकते .इसलिए प्रधानमंत्री महोदय को ही इस बात पर विचार करना पडेगा कि आठ बजे कोई बहुत बड़ी घोषणा करने के पहले तैयारी करना बहुत ज़रूरी है . नोटबंदी के ऐलान के समय भी ऐसा ही हुआ था .उस समय का तर्क तो समझ में आता है क्योंकि डर यह था कि सरकार के अन्दर के ही लोग नोट के जमाखोरों को खबर लीक कर देते तो उसका मकसद ही ख़त्म हो जाता . इस बार रहस्य बनाये रखने का कहीं कोई औचित्य नहीं है . नोटबंदी की मुसीबतों को तो मजदूरों के साथ ऊंचे लोगों ने भी झेला था लेकिन इस बार भूखों मरने की विपत्ति समाज के सबसे निचले पायदान वाले ही गले पडी है.