Monday, October 14, 2019

महात्मा गांधी लोक कला में ' गन्ही महत्मा ' बनकर प्रवेश करते थे


शेष नारायण सिंह


अवध में पहले हर  जाति की नाच  होती थी. गाँव में खेती बारी करने वाले लोग ही उसमें कलाकार होते थे . शादी ब्याह में खुद ही नाच लेते थे . पुरुष कलाकार ही गुज़रिया ( स्त्री कलाकार ) का रोल  करते  थे. आजकल दलित कहते  हैं  लेकिन आज के   साठ  साल पहले हरिजन शब्द सम्मान सूचक शब्द था लेकिन मेरे गाँव के बाबू साहबान चमार शब्द से ही काम चलाते थे.  नाऊ, कहार, धोबी सब जातियों की नाच होती थी लेकिन मुझे सतई बाबा की नाच ही सबसे अच्छी लगती थी . वे मृदंग बजाते थे . उनको सभी मिरदंगी कहते थे. उसी नाच में हमारे हलवाहे दूलम करेंगा बनते थे . उनका नाम हमने कभी नहीं लिया . उनको मेरे सभी भाई बहन   केवल फुफ्फा संबोधन से बुलाते भी थे और हमारी नज़र में  उनका नाम भी वही था.   वे मेरे गाँव के दामाद थे . हुआ यह कि गाँव के सबसे रईस दलित,  दुकछोर की बड़ी बिटिया जग्गी फुआ उनको ब्याही गयी थीं  . शादी तो चार साल की उम्र में  हो गयी थी लेकिन जब पन्द्रह साल की होने पर गौने गईं, यानी पहली बार ससुराल गईं तो उनको गाँव पसंद नहीं आया. दो चार दिन में वापस आ गईं . अपने दादा ( पिताजी ) को बता दिया कि अब हम  ससुरे न जाब. दुक्छोर बाबा गए और अपने दामाद को लेकर यहीं आ गए. घर के सामने वाले बाग़ में उनका भी घर बन गया . कोटे की हरवाही लगवा दी गई और हमारी जग्गी फुआ अपने घर में ही रह गईं. हरवाही में दो बिगहा जगीर मिल गयी . यानी खेतिहर भी हो गए. बखरी के हल से ही अपनी जगीर भी जोत लेने की सुविधा थी. इस तरह से वे गाँव के  दामाद हुए . बड़ी उम्र के लोग उनको गंवहियाँ कहते थे और छोटी उम्र के लोगों के फुफ्फा. बड़े ही खुशमिजाज़ इंसान थे . गाँव की नाच में करेंगा का काम मिला तो इज्ज़त भी खूब मिली. जब उनकी पीठ पर बोलवाई पड़ती थी तो बहुत तेज़ आवाज़ होती थी . हम लोगों को लगता था कि हमारे फुफ्फा को क्यों मारा जा रहा है लेकिन उसमें कलाकारी का कमाल था कि आवाज़ तो होती थी लेकिन चोट नहीं लगती थी. बोलवाई वास्तव में चमड़े का बना एक कोड़ा होता था लेकिन वह बिलकुल चपटा होता था. करेंगा की  जो मिर्जई होती थी, वह  मारकीन या गाढे के कपडे की होती थी .उसकी पीठ वाले हिस्से को काटकर गोल चमड़े की एक चकती लगा दी जाती थी . इस  सावधानी के चलते ही चोट नहीं लगती होगी लेकिन हमको गुस्सा लगता था कि हमारे फुफ्फा मारे जा रहे हैं. बहरहाल फुफ्फा को हम लोग बहुत मानते थे और वे भी हमको बहुत मानते थे. उनके अलावा पूरी नाच में  हमको सतई बाबा अच्छे लगते थे . जब मिरदंग बजाते थे तो हमारा बाल मन भी मुग्ध हो जाता था. 
मैंने पहली बार  गन्ही महत्मा का नाम उनसे ही   सुना था. वे मृदंग पर गन्ही महत्मा बजाते थे . बड़े होने पर और जौनपुर में स्व. मुखराम सिंह के साथ संगीत सुनने पर पता लगा कि जिसको  सतई बाबा गन्ही महत्मा कहते थे  वास्तव में  वह , " ता धिन धिन्ना " था . लेकिन महात्मा गांधी का नाम  ज़मींदारी के दौर में गरीबों के बीच मुक्तिदाता के रूप में स्थापित हो   चुका था और समाज के सबसे दलित और वंचित समाज ने अपनी कला के सबसे नायाब नमूने को  महात्माजी को समर्पित कर दिया था . ज़मींदारों के घरों में तो  आज़ादी की लड़ाई में शामिल लोगों को उत्पाती माना जाता था लेकिन गरीब लोग उनको सन बयालीस के बाद से ही मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार कर चुके थे .  दरअसल दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान war efforts के बहाने  अंग्रेजों ने ज़मींदारों के ज़रिये गाँवों में  खूब लूट मचाया था. शोषित पीड़ित जनता को उम्मीद थी कि गांधी जी उस लूट से मुक्ति दिलवा देंगें इसीलिये उनका प्रवेश लोक कलाओं में बड़े पैमाने पर हो चुका था. गाँव में सारंगी बजाकर भीख मांगने वाले जोगियों को भी मैंने बचपन में गांधी जी की शान में भजन गाते  सुना है . खलील की नौटंकी में भी गांधी बुड्ढे पर पूरा एक कसीदा पढ़ा जाता था .
आज़ादी के बाद जब पहला चुनाव हुआ तो इसी गरीब वर्ग ने अपनी उम्मीदों को साकार करने की उम्मीद में कांग्रेस के चुनाव निशान "  दो बैलों की  जोड़ी  " पर लगभग एकतरफा वोट दिया था. बडमनई की पार्टी उन दिनों स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ थी . हमारे इलाके में इन पार्टियों के उम्मीदवारों का कोई पुछत्तर नहीं था. मुझे बचपन की दुन्धली याद है जब , गाँव में भोंपू पर कांग्रेसी गाते  हुए निकल  जाते थे . नारा था ,  
" दी आज़ादी कांगरेस ने,  जंज़ीर गुलामी की तोड़ी,
मोहर हमारी वहीं लगेगी ,जहां बनी  बैलों की जोड़ी "
सन बासठ के चुनाव तक स्वतन्त्र पार्टी तो  भुला दी गयी थी लेकिन जनसंघ का उम्मीदवार नोटिस होता था . पार्टी बढ़ रही थी  .  लोकसभा और विधान सभा के चुनाव साथ साथ होते थे . बेचू सिंह लोकसभा और उदय प्रताप सिंह विधानसभा के लिए जनसंघ के उम्मीदवार थे . ठाकुरों के गाँव में इन्हीं लोगों को वोट दिए गए थे . कुछ बकलोल टाइप ठाकुरों को उम्मीद थी कि  जनसंघ जीत जायेगी तो ज़मींदारी फिर वापस आ जायेगी और उनको शूद्रों पर मनमानी करने का फिर मौक़ा मिलेगा . लेकिन उन दिनों आज़ादी के सभी हीरो कांग्रेस या सोशलिस्ट पार्टियों ही हुआ करते थे . अन्य किसी पार्टी के उम्मीदवार को ऊंची जातियों के अलावा कहीं  कोई पूछने वाला नहीं था.
१९६२ में चीन की लड़ाई और उसके बाद ६३ और  ६४ का सूखा चारों तरफ निराशा लेकर आया . इस बीच दिल्ली में १९६६ में गौहत्या विरोधी आन्दोलन हुआ , कुछ बाबा लोग मरे भी . उसके बाद अयोध्या, प्रयाग और धोपाप के तीर्थस्थानों में बाबाओं ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा  खोल दिया . उधर कांग्रेस भी कमज़ोर पड़ चुकी थी. जवाहरलाल नेहरू और शास्त्री जी की मृत्यु हो चुकी थी . इंदिरा गांधी को सिंडिकेट वाले कांग्रेसी मठाधीश गूंगी गुडिया के रूप में स्थापित कर चुके थे . अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रभावशाली वक्ता और नेता के  रूप में स्थापित हो चुके थे . इस सबके बाद भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव १९६७ में  हमारे यहाँ जनसंघ को कुछ हाथ नहीं लगा . बाद में  कांग्रेस को चौधरी चरण सिंह ने तोड़ दिया . कांग्रेस में अक्खड़ लोग किनारे किये जाने लगे .बड़े पैमाने पर  चापलूस भर्ती होने लगे और १९६९ के चुनाव में जनसंघ को पहली बार विधानसभा चुनाव में जीतने का मौक़ा मिला.  इस तरह गांधी जी का प्रभाव आम जन के दिमाग से बाहर हुआ . वैसे इसमें  सबसे बड़ा योगदान कांग्रेसियों का ही है . इन लोगों ने महात्मा गांधी , जवाहरलाल नेहरू , लाल बहदुर शास्त्री  का नाम लेना ही बन्द कर दिया . बैंको के सरकारीकरण के नाम पर कुछ दिन तो इंदिरा गांधी से फायदा हुआ लेकिन बाद  में कांग्रेस में चापलूस  कल्चर ने जड़ पकड लिया . आज जो  दुर्दशा है उसके लिए यही सब ज़िम्मेदार है .



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