शेष नारायण सिंह
चालीस साल किसी शहर की ज़िंदगी में कुछ नहीं होते लेकिन इंसान की ज़िंदगी में चालीस साल में ही सब कुछ हो जाता है .२० साल के आदमी की ज़िंदगी में सपनों की भरमार होती है , सब कुछ हासिल कर लेने की ललक होती है . अपने समय के सबसे अच्छे लोगों से भी बेहतर कुछ कर गुजरने की इच्छा होती है लेकिन जब वही इंसान चालीस साल बाद साठ का हो जाता है तो तरह तरह की यादें उसको घेर घेर कर उसकी गलतियाँ बता रही होती हैं .उसको याद दिला रही होती हैं कि कहां चूक हुई और वह बेचारा कुछ नहीं कर सकता . भारत के ग्रामीण इलाकों से दिल्ली और मुंबई में बहुत बड़े सपने लेकर आने वाले हमेशा इसी भ्रमजाल के शिकार होते मिल जाते हैं . मुंबई की खासियत यह है कि वह उस स्वप्नदर्शी इंसान को ज़्यादा भटकने नहीं देती क्योंकि बहुत कम समय में लोगों को पता लग जाता है कि उसके सपने ही गलत थे . उसको अपने सपने फिर से एडजस्ट करने की ज़रूरत का एहसास मुंबई शहर बहुत ही कठोरता से दिलवा देता है. नतीजा यह होता है कि वहां सडकों पर पागल जैसे दिखने वालों की संख्या अपेक्षाकृत होती है . जो लोग मुंबई की व्यापारिक दुनिया में कुछ बहुत बड़ा करने के सपने लेकर पंहुचे होते हैं उनको उनके गाँव जवार के लोग जो मुंबई में ही संघर्ष करके दो जून की रोटी कमा रहे होते हैं , ढर्रे पर ला देते हैं . कोई ड्राइविंग सीखकर टैक्सी चलाने लगता है , कोई ऑटो रिक्शा चलाने लगता है, कोई थोक बाज़ार में बोझा ढोने लगता है , कोई किसी दूकान पर कुछ काम करने लगता है. सिनेमा में हीरो बनने गए लोग किसी स्टूडियो में काम पा जाते हैं. कहीं स्पॉट ब्वाय हो जाते हैं , कहीं सेट बनाने वाले ठेकदार के यहाँ काम पा जाते हैं. कुछ लोग गोदी में छोटे मोटे काम करने लगते हैं . मुराद यह है कि अपनी रोटी कमाने लगते हैं . लेकिन दिल्ली में सब के लिए काम नहीं होता . उनके सपने मरते हैं , लेकिन फिर जिंदा हो जाते हैं . दिल्ली के कनाट प्लेस और संसद के आस पास के इलाकों में ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो कभी दिल्ली फ़तेह कर लेने के इरादे से शहर में आये थे और आज अजीबो गरीब ज़िंदगी जी रहे होते हैं. १९७६ में दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में एक रेड्डी साहब घूमते रहते थे . नार्थ एवेन्यू में सांसदों के लिए फ्लैट बनाए गए हैं जो उनको तब एलाट होते हैं जब वे चुनाव जीतकर यहां आते हैं. १९७६ में रेड्डी साहब दो फ्लैटों के बीच बनी हुयी सीढ़ियों के बीच की खाली जगह में एक खटिया बिछाकर पड़े रहते थे . लेकिन जब बाहर निकलते थे तो सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़ और टाई पहन लेते थे . उन्होंने एक बार बताया था कि क़रीब बाईस साल पहले जब १९५४ में वे तिरुपति के सांसद अनंतशयनम अयंगर के साथ दिल्ली आये थे तो वे दिल्ली में कोई बड़ी नौकरी करने के लिए आये थे . जब अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष हो गए तो उन तक रेड्डी साहब की पंहुच पर ही पाबंदी लग गयी . लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे .उन्होंने दिल्ली को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने के मंसूबा बना लिया और यहीं के होकर रह गए . उन दिनों आंध्र प्रदेश नाम का कोई राज्य नहीं था , आज का आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उन दिनों मद्रास राज्य का हिस्सा हुआ करते थे . अयंगर साहब के बाद में उधर से आने वाले किसी न किसी एम पी के साथ अटैच होते रहे लेकिन एक ऐसा मुकाम आया जब उनको लोगों ने दुत्कारना शुरू कर दिया . उसके बाद तो टाई बांधे नेता मंडी में घूमते रहना ही उनका धंधा हो गया . कभी कोई कुछ दे देता था ,उसी से गुज़र करते थे .इस तरह के बहुत सारे लोग राजनीति के इस बाज़ार में घूमते मिल जाते हैं. सुल्तानपुर से एक लड़का शायद १९७८ में दिल्ली आया था . ज़हीन समझदार लड़का. बी ए पास था , कहीं भी काम मिल सकता था लेकिन क्रांतिकारी विचारों से लैस था और क्रान्ति के काम में ही जीवन समर्पित कर दिया . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में दिन रात रहने लगा और वहीं अपनी इहलीला समाप्त कर दी.
चालीस साल पहले दिल्ली का कनाट प्लेस बहुत ही फैशनेबल बाज़ार हुआ करता था, आज भी है लेकिन अब चारों तरफ माल आदि खुल गए हैं , कनाट प्लेस के अलावा भी फैशन है . उन दिनों साउथ एक्सटेंशन और ग्रेटर कैलाश मार्केट भी फैशनबल होना शुरू हो चुके थे . करोल बाग़ और लाजपतनगर घरेलू सामन के बड़े ठिकाने थे , आज भी हैं . कनाट प्लेस में प्लाज़ा, रीगल , ओडियन और रिवोली सिनेमा बहुत ही महत्वपूर्ण लैंडमार्क हुआ करते थे . कनाट प्लेस आने वाली बसें रीगल या प्लाज़ा आया करती थीं. इसके अलावा मद्रास होटल और सुपर बाज़ार बसों के डेस्टिनेशन हुआ करते थे . इन जगहों पर भी बेमतलब घूम रहे लोगों की भरमार होती थी .ऐसे सैकड़ों लोगों को मैंने देखा है. १९७६-७७ में मुझे भी लगता था कि अगर कहीं कोई काम न मिला तो अपनी भी हालत ऐसी ही हो जायेगी . हम भी दिल्ली इसलिए आये थे कि अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देंगे , मेहनत मजूरी करके उनको ऐसी शिक्षा देगें जिसके बाद उनको आसानी से नौकरी मिल जाए और मेरी तरह की मजबूर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर न हों. हालांकि तब तक अपनी शिक्षा में भी कोई खोट नहीं दिखती थी क्योंकि १९७३ में एम ए पास करते ही एक मान्यताप्राप्त डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी थी ,उस दौर की अच्छी तनखाह थी .जब उस काम को छोड़कर दिल्ली आये तो समझ में आया कि शिक्षा कहाँ से ली गयी है , उसका भी महत्व है . जिन मंत्री जी ने मुझे सुल्तानपुर में वायदा किया था कि दिल्ली आ जाओ सब ठीक हो जाएगा , उनसे मुलाक़ात ही असंभव हो गयी. जब कभी उनके पी ए या अनुसुइया प्रसाद सिंह के सौजन्य से उनसे मुलाक़ात होती तो समझाते कि आर्ट साइड से एम ए की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है . बेकार है . दिल्ली में भारतीय विद्या भवन से कोई और पढ़ाई कर लो, फिर आसान हो जाएगा . अपने सपने भी बेवकूफी से भरे हुए थे . लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था और जिद थी कि फिर मास्टरी नहीं करेंगे. वरना १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार आयी तो वह अवसर आया था कि जिन लोगों को इमरजेंसी के दौरान किन्हीं कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था ,वे दरखास्त दे दें तो उनकी बात पर विचार करके नौकरी बहाल हो सकती थी लेकिन उस अवसर को भी मैंने कोई अवसर नहीं माना. मंत्री जी को मैंने अपनी मदद करने के काम से मुक्ति दे दी और हमने अपने सपने एडजस्ट कर लिया . उसके बाद मैंने अनुवाद करके रोटी कमाने का काम शुरू कर दिया .
शिवाजी स्टेडियम मेट्रो स्टेशन ( गुरुद्वारा बंगला साहिब ) से सेन्ट्रल पार्क पैदल जाते हुए , ४३ साल पहले की उसी रास्ते पैदल जाने की यादें ताज़ा हो गयीं. वही सड़क लेकिन ज़्यादा चमक दमक वाली , जहां बहुत पुराने कुछ क्वार्टर थे ,वहां आज एक बहुत ही बड़ी व्यापारिक इमारत खडी है . सड़क तक ग्रेनाईट लगी हुई है . उस सड़क पर लगे ग्रेनाईट पर , भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच गरीब आदमी सो रहा है . शायद रात में कोई काम किया हो , सो न पाया हो लिहाज़ा सो गया है . मैंने देखा कि इन चार दशकों में गरीब आदमी पहले की तरह फुटपाथ पर ही जमा हुआ है . उन सब के सपने होंगें. मेरे दोस्त फूल चंद बताया करते थे कि इन फुटपाथों पर सो रहे लोग यहाँ फटेहाल ज़िंदगी बिताने नहीं आये थे लेकिन जब साल दो साल ठोकर खाने और मांगकर खाने से ऊब गए तो कहीं कोई भी काम करके अपनी रोटी कमाने के लिए अपने उपाय कर रहे हैं . सपनों को एडजस्ट नहीं कर पाए तो इस हाल में आ गए हैं . फूलचंद मुझसे करीब दस साल पहले इस शहर में आये थे . फूलचंद भी दिल्ली में अपने परिवार की गरीबी घटाने और कमाकर दो पैसे घर भेजने के लिए ही आये थे . अपने बुलंद हौसलों के बल पर उसने तय किया कि अब अपनी मेहनत करके ही रास्ते तय किए जायेंगे. उन्होंने पान लगाने का सामान खरीदा , सब कुछ सौ रूपये से कम में ही आ गया , सारा सामान एक डेलरी ( टोकरी ) में रखा और कनाट प्लेस में घूम घूमकर पान बेचने लगे. रोज़ इतना कमाने लगे कि अपना खर्चा निकल जाए .१९७६ में जब मैं दिल्ली आया तो वे एक जमे हुए कारोबारी बन चुके थे , एन डी एम सी में घूस देकर पान का एक थड़ा ले चुके थे और उसी के सहारे अच्छी खासी आमदनी हो रही थी .मद्रास होटल के पीछे उनकी दूकान थी. वहीं से मैं रोज़ बस लेकर पटेल नगर उतर कर अपने ठिकाने पर जाया करता था. उनकी प्रेरणा से ही मैंने मंत्री जी की मदद न लेने का संकल्प लिया .मंत्री की मदद से किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बनने के अपने सपनों को वहीं ,उनकी दुकान के सामने बह रही नाली में दफन कर दिया था . वहीं उनकी दुकान पर ही एक दिन मुझे मेरे बचपन के दोस्त घनश्याम मिश्र मिल गए थे जिनको मैं वास्तव में तलाश रहा था . घनश्याम जे एन यू में रहते थे , हिंदी में एम ए की पढ़ाई कर रहे थे .उन्होंने मुझे बहुत लोगों से मिलवाया और मैं दिल्ली में पढ़े लिखे लोगों में घूमने घामने लगा. उनके साथ ही मैं अपने पुराने परिचित देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलने कोर्ट गया. डी पी त्रिपाठी , उन दिनों जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष थे , इमरजेंसी में जेल में बंद थे , पेशी के लिए जहां आजकल संसद मार्ग थाना है , वहीं आते थे . उन दिनों वहां कोर्ट हुआ करती थी. वहीं पर पेशी के लिए मदनलाल खुराना और अरुण जेटली भी आते थे . इन लोगों को भी मैं पहले से जानता था , इनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी . वहीं कोर्टयार्ड में सबके मिलने वाले आते थे . घनश्याम के साथ जे एन यू के बहुत सारे छात्र छात्राएं भी होते थे. कोर्ट की पेशी के बाद हम लोग यू एन आई कैंटीन में आकर दक्षिण भारतीय खाना खाते थे .
उसी समय के आस पास हिंदी की सरिता पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था , " हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास " .उस लेख को पढ़कर घनश्याम बहुत नाराज़ हुए और उसके बारे में झगडा करने के लिए मिश्र जी दिल्ली प्रेस गये थे. मुझे भी साथ ले गए . दिल्ली प्रेस के मालिक, विश्वनाथ जी से ही उनकी बात चीत हुई और बात बढ़ गयी . सेठ ने चुनौती दी कि आप इसका खंडन लिख कर लाइए , हम उसको भी छापेंगे और उसका पैसा भी देंगे. इसी बात पर मामला शांत हुआ लेकिन विश्वनाथ जी के व्यक्तित्व से मैं प्रभावित हुआ. इतनी बड़ी संस्था के मालिक थे ,करीब साठ साल की उम्र थी और पचीस साल के घनश्याम मिश्र से तुर्की बी तुर्की ऐसी बहस कर रहे थे जैसे दोनों एक ही क्लास के विद्यार्थी हों. उनके लिखकर लाने की चुनौती को मिश्र जी ने स्वीकार किया और मुझसे कहा कि, इस लेख को तैयार कर दो. मुझे अपने साथ जे एन यू ले गए . अपने कमरे में ही रखा , खाना खिलाया और रात भर में मैंने जो भी समझ में आया लिख दिया . अगले दिन हम दोनों फिर वहीं पंहुंच गए . हाथ से लिखे करीब छः पृष्ठ थे . लेखक का नाम घनश्याम मिश्र . विश्वनाथ जी को लेख पसंद आया . उन्होंने कहा कि उस लेख को वे अगले ही अंक में छाप देंगे. उसका मेहनताना उन्होंने तुरंत ही दे दिया एडवांस. हम लोग बहुत खुशी खुशी बाहर आये . थोड़ी दूर आने के बाद घनश्याम मिश्र ने अपने आपको गाली दी और बिना कुछ बोले फिर वापस विश्वनाथ जी के पास पंहुच गए . उनसे कहा कि लेख में कुछ गलती रहा गयी है . लाइए ठीक करना है . लेख वहीं मेज़ पर रखा था , मिश्र जी जी लेखक का नाम बदल दिया . अपना नाम काटकर मेरा नाम लिख दिया . और कहा कि रात भर जागकर इन्होने लिखा है . विश्वनाथ जी बहुत खुश हुए और उन्होंने दोबारा मेहनताना दिया . मिश्रा जी ने पहले वाला पैसा वापस करना चाहा लेकिन उन्होंने नहीं लिया . उन्होंने कहा कि आपका भी पैसा बनता है . बहस तो आपने ही किया था .बस वहीं मैंने फैसला कर लिया कि अब किसी नेता या मंत्री से मदद लिए बिना दिल्ली में ज़िंदगी गुजारी जायेगी . हालांकि घनश्याम मेरे सहपाठी १९६५ में नवीं कक्षा में ही थे लेकिन हाई स्कूल पास होने के बाद मुलाक़ात नहीं हुई थी . दिल्ली में आकर ही मिले जब मैं तिनके का सहारा ढूंढ रहा था .दिल्ली शहर में जिस तरह से वह आदमी मेरे मददगार के रूप में खड़ा रहा , वह मैं आजीवन नहीं भूलूंगा . बाद में तो लिख पढ़कर ही रोटी कामने के सिलसला शुरू हुआ तो वह आज तक जारी है . उसी समय आज के नामवर प्रकाशक हरिश्चंद्र शर्मा से भी हम और घनश्याम मिलने गए . तब हरीश भी , राधाकृष्ण प्रकशन में स्व ओम प्रकाश जी के सहयोगी के रूप में काम करते थे. आजकल तो एक प्रकाशन संस्थान के मालिक हैं . मेरी बदकिस्मती है कि पचास साल की उम्र में ही चौकिया पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के रीडर डॉ घनश्याम मिश्र का स्वर्गवास हो गया था . अगर वे जिंदा होते तो मैं उनके बारे में काफी बड़ा संस्मरण लिखने का सपना पाले हुए हूँ लेकिन अब नहीं लिखूंगा क्योंकि उनकी मंजूरी के बिना अपने दोस्त की सारी सच्च्चाइयां नहीं लिख सकता .
दिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .
१९७६ की दिल्ली में मेरे शुरुआती कुछ महीनेदिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .
शेष नारायण सिंह
चालीस साल किसी शहर की ज़िंदगी में कुछ नहीं होते लेकिन इंसान की ज़िंदगी में चालीस साल में ही सब कुछ हो जाता है .२० साल के आदमी की ज़िंदगी में सपनों की भरमार होती है , सब कुछ हासिल कर लेने की ललक होती है . अपने समय के सबसे अच्छे लोगों से भी बेहतर कुछ कर गुजरने की इच्छा होती है लेकिन जब वही इंसान चालीस साल बाद साठ का हो जाता है तो तरह तरह की यादें उसको घेर घेर कर उसकी गलतियाँ बता रही होती हैं .उसको याद दिला रही होती हैं कि कहां चूक हुई और वह बेचारा कुछ नहीं कर सकता . भारत के ग्रामीण इलाकों से दिल्ली और मुंबई में बहुत बड़े सपने लेकर आने वाले हमेशा इसी भ्रमजाल के शिकार होते मिल जाते हैं . मुंबई की खासियत यह है कि वह उस स्वप्नदर्शी इंसान को ज़्यादा भटकने नहीं देती क्योंकि बहुत कम समय में लोगों को पता लग जाता है कि उसके सपने ही गलत थे . उसको अपने सपने फिर से एडजस्ट करने की ज़रूरत का एहसास मुंबई शहर बहुत ही कठोरता से दिलवा देता है. नतीजा यह होता है कि वहां सडकों पर पागल जैसे दिखने वालों की संख्या अपेक्षाकृत होती है . जो लोग मुंबई की व्यापारिक दुनिया में कुछ बहुत बड़ा करने के सपने लेकर पंहुचे होते हैं उनको उनके गाँव जवार के लोग जो मुंबई में ही संघर्ष करके दो जून की रोटी कमा रहे होते हैं , ढर्रे पर ला देते हैं . कोई ड्राइविंग सीखकर टैक्सी चलाने लगता है , कोई ऑटो रिक्शा चलाने लगता है, कोई थोक बाज़ार में बोझा ढोने लगता है , कोई किसी दूकान पर कुछ काम करने लगता है. सिनेमा में हीरो बनने गए लोग किसी स्टूडियो में काम पा जाते हैं. कहीं स्पॉट ब्वाय हो जाते हैं , कहीं सेट बनाने वाले ठेकदार के यहाँ काम पा जाते हैं. कुछ लोग गोदी में छोटे मोटे काम करने लगते हैं . मुराद यह है कि अपनी रोटी कमाने लगते हैं . लेकिन दिल्ली में सब के लिए काम नहीं होता . उनके सपने मरते हैं , लेकिन फिर जिंदा हो जाते हैं . दिल्ली के कनाट प्लेस और संसद के आस पास के इलाकों में ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो कभी दिल्ली फ़तेह कर लेने के इरादे से शहर में आये थे और आज अजीबो गरीब ज़िंदगी जी रहे होते हैं. १९७६ में दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में एक रेड्डी साहब घूमते रहते थे . नार्थ एवेन्यू में सांसदों के लिए फ्लैट बनाए गए हैं जो उनको तब एलाट होते हैं जब वे चुनाव जीतकर यहां आते हैं. १९७६ में रेड्डी साहब दो फ्लैटों के बीच बनी हुयी सीढ़ियों के बीच की खाली जगह में एक खटिया बिछाकर पड़े रहते थे . लेकिन जब बाहर निकलते थे तो सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़ और टाई पहन लेते थे . उन्होंने एक बार बताया था कि क़रीब बाईस साल पहले जब १९५४ में वे तिरुपति के सांसद अनंतशयनम अयंगर के साथ दिल्ली आये थे तो वे दिल्ली में कोई बड़ी नौकरी करने के लिए आये थे . जब अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष हो गए तो उन तक रेड्डी साहब की पंहुच पर ही पाबंदी लग गयी . लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे .उन्होंने दिल्ली को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने के मंसूबा बना लिया और यहीं के होकर रह गए . उन दिनों आंध्र प्रदेश नाम का कोई राज्य नहीं था , आज का आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उन दिनों मद्रास राज्य का हिस्सा हुआ करते थे . अयंगर साहब के बाद में उधर से आने वाले किसी न किसी एम पी के साथ अटैच होते रहे लेकिन एक ऐसा मुकाम आया जब उनको लोगों ने दुत्कारना शुरू कर दिया . उसके बाद तो टाई बांधे नेता मंडी में घूमते रहना ही उनका धंधा हो गया . कभी कोई कुछ दे देता था ,उसी से गुज़र करते थे .इस तरह के बहुत सारे लोग राजनीति के इस बाज़ार में घूमते मिल जाते हैं. सुल्तानपुर से एक लड़का शायद १९७८ में दिल्ली आया था . ज़हीन समझदार लड़का. बी ए पास था , कहीं भी काम मिल सकता था लेकिन क्रांतिकारी विचारों से लैस था और क्रान्ति के काम में ही जीवन समर्पित कर दिया . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में दिन रात रहने लगा और वहीं अपनी इहलीला समाप्त कर दी.
चालीस साल पहले दिल्ली का कनाट प्लेस बहुत ही फैशनेबल बाज़ार हुआ करता था, आज भी है लेकिन अब चारों तरफ माल आदि खुल गए हैं , कनाट प्लेस के अलावा भी फैशन है . उन दिनों साउथ एक्सटेंशन और ग्रेटर कैलाश मार्केट भी फैशनबल होना शुरू हो चुके थे . करोल बाग़ और लाजपतनगर घरेलू सामन के बड़े ठिकाने थे , आज भी हैं . कनाट प्लेस में प्लाज़ा, रीगल , ओडियन और रिवोली सिनेमा बहुत ही महत्वपूर्ण लैंडमार्क हुआ करते थे . कनाट प्लेस आने वाली बसें रीगल या प्लाज़ा आया करती थीं. इसके अलावा मद्रास होटल और सुपर बाज़ार बसों के डेस्टिनेशन हुआ करते थे . इन जगहों पर भी बेमतलब घूम रहे लोगों की भरमार होती थी .ऐसे सैकड़ों लोगों को मैंने देखा है. १९७६-७७ में मुझे भी लगता था कि अगर कहीं कोई काम न मिला तो अपनी भी हालत ऐसी ही हो जायेगी . हम भी दिल्ली इसलिए आये थे कि अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देंगे , मेहनत मजूरी करके उनको ऐसी शिक्षा देगें जिसके बाद उनको आसानी से नौकरी मिल जाए और मेरी तरह की मजबूर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर न हों. हालांकि तब तक अपनी शिक्षा में भी कोई खोट नहीं दिखती थी क्योंकि १९७३ में एम ए पास करते ही एक मान्यताप्राप्त डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी थी ,उस दौर की अच्छी तनखाह थी .जब उस काम को छोड़कर दिल्ली आये तो समझ में आया कि शिक्षा कहाँ से ली गयी है , उसका भी महत्व है . जिन मंत्री जी ने मुझे सुल्तानपुर में वायदा किया था कि दिल्ली आ जाओ सब ठीक हो जाएगा , उनसे मुलाक़ात ही असंभव हो गयी. जब कभी उनके पी ए या अनुसुइया प्रसाद सिंह के सौजन्य से उनसे मुलाक़ात होती तो समझाते कि आर्ट साइड से एम ए की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है . बेकार है . दिल्ली में भारतीय विद्या भवन से कोई और पढ़ाई कर लो, फिर आसान हो जाएगा . अपने सपने भी बेवकूफी से भरे हुए थे . लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था और जिद थी कि फिर मास्टरी नहीं करेंगे. वरना १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार आयी तो वह अवसर आया था कि जिन लोगों को इमरजेंसी के दौरान किन्हीं कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था ,वे दरखास्त दे दें तो उनकी बात पर विचार करके नौकरी बहाल हो सकती थी लेकिन उस अवसर को भी मैंने कोई अवसर नहीं माना. मंत्री जी को मैंने अपनी मदद करने के काम से मुक्ति दे दी और हमने अपने सपने एडजस्ट कर लिया . उसके बाद मैंने अनुवाद करके रोटी कमाने का काम शुरू कर दिया .
शिवाजी स्टेडियम मेट्रो स्टेशन ( गुरुद्वारा बंगला साहिब ) से सेन्ट्रल पार्क पैदल जाते हुए , ४३ साल पहले की उसी रास्ते पैदल जाने की यादें ताज़ा हो गयीं. वही सड़क लेकिन ज़्यादा चमक दमक वाली , जहां बहुत पुराने कुछ क्वार्टर थे ,वहां आज एक बहुत ही बड़ी व्यापारिक इमारत खडी है . सड़क तक ग्रेनाईट लगी हुई है . उस सड़क पर लगे ग्रेनाईट पर , भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच गरीब आदमी सो रहा है . शायद रात में कोई काम किया हो , सो न पाया हो लिहाज़ा सो गया है . मैंने देखा कि इन चार दशकों में गरीब आदमी पहले की तरह फुटपाथ पर ही जमा हुआ है . उन सब के सपने होंगें. मेरे दोस्त फूल चंद बताया करते थे कि इन फुटपाथों पर सो रहे लोग यहाँ फटेहाल ज़िंदगी बिताने नहीं आये थे लेकिन जब साल दो साल ठोकर खाने और मांगकर खाने से ऊब गए तो कहीं कोई भी काम करके अपनी रोटी कमाने के लिए अपने उपाय कर रहे हैं . सपनों को एडजस्ट नहीं कर पाए तो इस हाल में आ गए हैं . फूलचंद मुझसे करीब दस साल पहले इस शहर में आये थे . फूलचंद भी दिल्ली में अपने परिवार की गरीबी घटाने और कमाकर दो पैसे घर भेजने के लिए ही आये थे . अपने बुलंद हौसलों के बल पर उसने तय किया कि अब अपनी मेहनत करके ही रास्ते तय किए जायेंगे. उन्होंने पान लगाने का सामान खरीदा , सब कुछ सौ रूपये से कम में ही आ गया , सारा सामान एक डेलरी ( टोकरी ) में रखा और कनाट प्लेस में घूम घूमकर पान बेचने लगे. रोज़ इतना कमाने लगे कि अपना खर्चा निकल जाए .१९७६ में जब मैं दिल्ली आया तो वे एक जमे हुए कारोबारी बन चुके थे , एन डी एम सी में घूस देकर पान का एक थड़ा ले चुके थे और उसी के सहारे अच्छी खासी आमदनी हो रही थी .मद्रास होटल के पीछे उनकी दूकान थी. वहीं से मैं रोज़ बस लेकर पटेल नगर उतर कर अपने ठिकाने पर जाया करता था. उनकी प्रेरणा से ही मैंने मंत्री जी की मदद न लेने का संकल्प लिया .मंत्री की मदद से किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बनने के अपने सपनों को वहीं ,उनकी दुकान के सामने बह रही नाली में दफन कर दिया था . वहीं उनकी दुकान पर ही एक दिन मुझे मेरे बचपन के दोस्त घनश्याम मिश्र मिल गए थे जिनको मैं वास्तव में तलाश रहा था . घनश्याम जे एन यू में रहते थे , हिंदी में एम ए की पढ़ाई कर रहे थे .उन्होंने मुझे बहुत लोगों से मिलवाया और मैं दिल्ली में पढ़े लिखे लोगों में घूमने घामने लगा. उनके साथ ही मैं अपने पुराने परिचित देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलने कोर्ट गया. डी पी त्रिपाठी , उन दिनों जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष थे , इमरजेंसी में जेल में बंद थे , पेशी के लिए जहां आजकल संसद मार्ग थाना है , वहीं आते थे . उन दिनों वहां कोर्ट हुआ करती थी. वहीं पर पेशी के लिए मदनलाल खुराना और अरुण जेटली भी आते थे . इन लोगों को भी मैं पहले से जानता था , इनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी . वहीं कोर्टयार्ड में सबके मिलने वाले आते थे . घनश्याम के साथ जे एन यू के बहुत सारे छात्र छात्राएं भी होते थे. कोर्ट की पेशी के बाद हम लोग यू एन आई कैंटीन में आकर दक्षिण भारतीय खाना खाते थे .
चालीस साल किसी शहर की ज़िंदगी में कुछ नहीं होते लेकिन इंसान की ज़िंदगी में चालीस साल में ही सब कुछ हो जाता है .२० साल के आदमी की ज़िंदगी में सपनों की भरमार होती है , सब कुछ हासिल कर लेने की ललक होती है . अपने समय के सबसे अच्छे लोगों से भी बेहतर कुछ कर गुजरने की इच्छा होती है लेकिन जब वही इंसान चालीस साल बाद साठ का हो जाता है तो तरह तरह की यादें उसको घेर घेर कर उसकी गलतियाँ बता रही होती हैं .उसको याद दिला रही होती हैं कि कहां चूक हुई और वह बेचारा कुछ नहीं कर सकता . भारत के ग्रामीण इलाकों से दिल्ली और मुंबई में बहुत बड़े सपने लेकर आने वाले हमेशा इसी भ्रमजाल के शिकार होते मिल जाते हैं . मुंबई की खासियत यह है कि वह उस स्वप्नदर्शी इंसान को ज़्यादा भटकने नहीं देती क्योंकि बहुत कम समय में लोगों को पता लग जाता है कि उसके सपने ही गलत थे . उसको अपने सपने फिर से एडजस्ट करने की ज़रूरत का एहसास मुंबई शहर बहुत ही कठोरता से दिलवा देता है. नतीजा यह होता है कि वहां सडकों पर पागल जैसे दिखने वालों की संख्या अपेक्षाकृत होती है . जो लोग मुंबई की व्यापारिक दुनिया में कुछ बहुत बड़ा करने के सपने लेकर पंहुचे होते हैं उनको उनके गाँव जवार के लोग जो मुंबई में ही संघर्ष करके दो जून की रोटी कमा रहे होते हैं , ढर्रे पर ला देते हैं . कोई ड्राइविंग सीखकर टैक्सी चलाने लगता है , कोई ऑटो रिक्शा चलाने लगता है, कोई थोक बाज़ार में बोझा ढोने लगता है , कोई किसी दूकान पर कुछ काम करने लगता है. सिनेमा में हीरो बनने गए लोग किसी स्टूडियो में काम पा जाते हैं. कहीं स्पॉट ब्वाय हो जाते हैं , कहीं सेट बनाने वाले ठेकदार के यहाँ काम पा जाते हैं. कुछ लोग गोदी में छोटे मोटे काम करने लगते हैं . मुराद यह है कि अपनी रोटी कमाने लगते हैं . लेकिन दिल्ली में सब के लिए काम नहीं होता . उनके सपने मरते हैं , लेकिन फिर जिंदा हो जाते हैं . दिल्ली के कनाट प्लेस और संसद के आस पास के इलाकों में ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो कभी दिल्ली फ़तेह कर लेने के इरादे से शहर में आये थे और आज अजीबो गरीब ज़िंदगी जी रहे होते हैं. १९७६ में दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में एक रेड्डी साहब घूमते रहते थे . नार्थ एवेन्यू में सांसदों के लिए फ्लैट बनाए गए हैं जो उनको तब एलाट होते हैं जब वे चुनाव जीतकर यहां आते हैं. १९७६ में रेड्डी साहब दो फ्लैटों के बीच बनी हुयी सीढ़ियों के बीच की खाली जगह में एक खटिया बिछाकर पड़े रहते थे . लेकिन जब बाहर निकलते थे तो सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़ और टाई पहन लेते थे . उन्होंने एक बार बताया था कि क़रीब बाईस साल पहले जब १९५४ में वे तिरुपति के सांसद अनंतशयनम अयंगर के साथ दिल्ली आये थे तो वे दिल्ली में कोई बड़ी नौकरी करने के लिए आये थे . जब अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष हो गए तो उन तक रेड्डी साहब की पंहुच पर ही पाबंदी लग गयी . लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे .उन्होंने दिल्ली को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने के मंसूबा बना लिया और यहीं के होकर रह गए . उन दिनों आंध्र प्रदेश नाम का कोई राज्य नहीं था , आज का आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उन दिनों मद्रास राज्य का हिस्सा हुआ करते थे . अयंगर साहब के बाद में उधर से आने वाले किसी न किसी एम पी के साथ अटैच होते रहे लेकिन एक ऐसा मुकाम आया जब उनको लोगों ने दुत्कारना शुरू कर दिया . उसके बाद तो टाई बांधे नेता मंडी में घूमते रहना ही उनका धंधा हो गया . कभी कोई कुछ दे देता था ,उसी से गुज़र करते थे .इस तरह के बहुत सारे लोग राजनीति के इस बाज़ार में घूमते मिल जाते हैं. सुल्तानपुर से एक लड़का शायद १९७८ में दिल्ली आया था . ज़हीन समझदार लड़का. बी ए पास था , कहीं भी काम मिल सकता था लेकिन क्रांतिकारी विचारों से लैस था और क्रान्ति के काम में ही जीवन समर्पित कर दिया . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में दिन रात रहने लगा और वहीं अपनी इहलीला समाप्त कर दी.
चालीस साल पहले दिल्ली का कनाट प्लेस बहुत ही फैशनेबल बाज़ार हुआ करता था, आज भी है लेकिन अब चारों तरफ माल आदि खुल गए हैं , कनाट प्लेस के अलावा भी फैशन है . उन दिनों साउथ एक्सटेंशन और ग्रेटर कैलाश मार्केट भी फैशनबल होना शुरू हो चुके थे . करोल बाग़ और लाजपतनगर घरेलू सामन के बड़े ठिकाने थे , आज भी हैं . कनाट प्लेस में प्लाज़ा, रीगल , ओडियन और रिवोली सिनेमा बहुत ही महत्वपूर्ण लैंडमार्क हुआ करते थे . कनाट प्लेस आने वाली बसें रीगल या प्लाज़ा आया करती थीं. इसके अलावा मद्रास होटल और सुपर बाज़ार बसों के डेस्टिनेशन हुआ करते थे . इन जगहों पर भी बेमतलब घूम रहे लोगों की भरमार होती थी .ऐसे सैकड़ों लोगों को मैंने देखा है. १९७६-७७ में मुझे भी लगता था कि अगर कहीं कोई काम न मिला तो अपनी भी हालत ऐसी ही हो जायेगी . हम भी दिल्ली इसलिए आये थे कि अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देंगे , मेहनत मजूरी करके उनको ऐसी शिक्षा देगें जिसके बाद उनको आसानी से नौकरी मिल जाए और मेरी तरह की मजबूर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर न हों. हालांकि तब तक अपनी शिक्षा में भी कोई खोट नहीं दिखती थी क्योंकि १९७३ में एम ए पास करते ही एक मान्यताप्राप्त डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी थी ,उस दौर की अच्छी तनखाह थी .जब उस काम को छोड़कर दिल्ली आये तो समझ में आया कि शिक्षा कहाँ से ली गयी है , उसका भी महत्व है . जिन मंत्री जी ने मुझे सुल्तानपुर में वायदा किया था कि दिल्ली आ जाओ सब ठीक हो जाएगा , उनसे मुलाक़ात ही असंभव हो गयी. जब कभी उनके पी ए या अनुसुइया प्रसाद सिंह के सौजन्य से उनसे मुलाक़ात होती तो समझाते कि आर्ट साइड से एम ए की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है . बेकार है . दिल्ली में भारतीय विद्या भवन से कोई और पढ़ाई कर लो, फिर आसान हो जाएगा . अपने सपने भी बेवकूफी से भरे हुए थे . लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था और जिद थी कि फिर मास्टरी नहीं करेंगे. वरना १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार आयी तो वह अवसर आया था कि जिन लोगों को इमरजेंसी के दौरान किन्हीं कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था ,वे दरखास्त दे दें तो उनकी बात पर विचार करके नौकरी बहाल हो सकती थी लेकिन उस अवसर को भी मैंने कोई अवसर नहीं माना. मंत्री जी को मैंने अपनी मदद करने के काम से मुक्ति दे दी और हमने अपने सपने एडजस्ट कर लिया . उसके बाद मैंने अनुवाद करके रोटी कमाने का काम शुरू कर दिया .
शिवाजी स्टेडियम मेट्रो स्टेशन ( गुरुद्वारा बंगला साहिब ) से सेन्ट्रल पार्क पैदल जाते हुए , ४३ साल पहले की उसी रास्ते पैदल जाने की यादें ताज़ा हो गयीं. वही सड़क लेकिन ज़्यादा चमक दमक वाली , जहां बहुत पुराने कुछ क्वार्टर थे ,वहां आज एक बहुत ही बड़ी व्यापारिक इमारत खडी है . सड़क तक ग्रेनाईट लगी हुई है . उस सड़क पर लगे ग्रेनाईट पर , भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच गरीब आदमी सो रहा है . शायद रात में कोई काम किया हो , सो न पाया हो लिहाज़ा सो गया है . मैंने देखा कि इन चार दशकों में गरीब आदमी पहले की तरह फुटपाथ पर ही जमा हुआ है . उन सब के सपने होंगें. मेरे दोस्त फूल चंद बताया करते थे कि इन फुटपाथों पर सो रहे लोग यहाँ फटेहाल ज़िंदगी बिताने नहीं आये थे लेकिन जब साल दो साल ठोकर खाने और मांगकर खाने से ऊब गए तो कहीं कोई भी काम करके अपनी रोटी कमाने के लिए अपने उपाय कर रहे हैं . सपनों को एडजस्ट नहीं कर पाए तो इस हाल में आ गए हैं . फूलचंद मुझसे करीब दस साल पहले इस शहर में आये थे . फूलचंद भी दिल्ली में अपने परिवार की गरीबी घटाने और कमाकर दो पैसे घर भेजने के लिए ही आये थे . अपने बुलंद हौसलों के बल पर उसने तय किया कि अब अपनी मेहनत करके ही रास्ते तय किए जायेंगे. उन्होंने पान लगाने का सामान खरीदा , सब कुछ सौ रूपये से कम में ही आ गया , सारा सामान एक डेलरी ( टोकरी ) में रखा और कनाट प्लेस में घूम घूमकर पान बेचने लगे. रोज़ इतना कमाने लगे कि अपना खर्चा निकल जाए .१९७६ में जब मैं दिल्ली आया तो वे एक जमे हुए कारोबारी बन चुके थे , एन डी एम सी में घूस देकर पान का एक थड़ा ले चुके थे और उसी के सहारे अच्छी खासी आमदनी हो रही थी .मद्रास होटल के पीछे उनकी दूकान थी. वहीं से मैं रोज़ बस लेकर पटेल नगर उतर कर अपने ठिकाने पर जाया करता था. उनकी प्रेरणा से ही मैंने मंत्री जी की मदद न लेने का संकल्प लिया .मंत्री की मदद से किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बनने के अपने सपनों को वहीं ,उनकी दुकान के सामने बह रही नाली में दफन कर दिया था . वहीं उनकी दुकान पर ही एक दिन मुझे मेरे बचपन के दोस्त घनश्याम मिश्र मिल गए थे जिनको मैं वास्तव में तलाश रहा था . घनश्याम जे एन यू में रहते थे , हिंदी में एम ए की पढ़ाई कर रहे थे .उन्होंने मुझे बहुत लोगों से मिलवाया और मैं दिल्ली में पढ़े लिखे लोगों में घूमने घामने लगा. उनके साथ ही मैं अपने पुराने परिचित देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलने कोर्ट गया. डी पी त्रिपाठी , उन दिनों जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष थे , इमरजेंसी में जेल में बंद थे , पेशी के लिए जहां आजकल संसद मार्ग थाना है , वहीं आते थे . उन दिनों वहां कोर्ट हुआ करती थी. वहीं पर पेशी के लिए मदनलाल खुराना और अरुण जेटली भी आते थे . इन लोगों को भी मैं पहले से जानता था , इनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी . वहीं कोर्टयार्ड में सबके मिलने वाले आते थे . घनश्याम के साथ जे एन यू के बहुत सारे छात्र छात्राएं भी होते थे. कोर्ट की पेशी के बाद हम लोग यू एन आई कैंटीन में आकर दक्षिण भारतीय खाना खाते थे .
उसी समय के आस पास हिंदी की सरिता पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था , " हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास " .उस लेख को पढ़कर घनश्याम बहुत नाराज़ हुए और उसके बारे में झगडा करने के लिए मिश्र जी दिल्ली प्रेस गये थे. मुझे भी साथ ले गए . दिल्ली प्रेस के मालिक, विश्वनाथ जी से ही उनकी बात चीत हुई और बात बढ़ गयी . सेठ ने चुनौती दी कि आप इसका खंडन लिख कर लाइए , हम उसको भी छापेंगे और उसका पैसा भी देंगे. इसी बात पर मामला शांत हुआ लेकिन विश्वनाथ जी के व्यक्तित्व से मैं प्रभावित हुआ. इतनी बड़ी संस्था के मालिक थे ,करीब साठ साल की उम्र थी और पचीस साल के घनश्याम मिश्र से तुर्की बी तुर्की ऐसी बहस कर रहे थे जैसे दोनों एक ही क्लास के विद्यार्थी हों. उनके लिखकर लाने की चुनौती को मिश्र जी ने स्वीकार किया और मुझसे कहा कि, इस लेख को तैयार कर दो. मुझे अपने साथ जे एन यू ले गए . अपने कमरे में ही रखा , खाना खिलाया और रात भर में मैंने जो भी समझ में आया लिख दिया . अगले दिन हम दोनों फिर वहीं पंहुंच गए . हाथ से लिखे करीब छः पृष्ठ थे . लेखक का नाम घनश्याम मिश्र . विश्वनाथ जी को लेख पसंद आया . उन्होंने कहा कि उस लेख को वे अगले ही अंक में छाप देंगे. उसका मेहनताना उन्होंने तुरंत ही दे दिया एडवांस. हम लोग बहुत खुशी खुशी बाहर आये . थोड़ी दूर आने के बाद घनश्याम मिश्र ने अपने आपको गाली दी और बिना कुछ बोले फिर वापस विश्वनाथ जी के पास पंहुच गए . उनसे कहा कि लेख में कुछ गलती रहा गयी है . लाइए ठीक करना है . लेख वहीं मेज़ पर रखा था , मिश्र जी जी लेखक का नाम बदल दिया . अपना नाम काटकर मेरा नाम लिख दिया . और कहा कि रात भर जागकर इन्होने लिखा है . विश्वनाथ जी बहुत खुश हुए और उन्होंने दोबारा मेहनताना दिया . मिश्रा जी ने पहले वाला पैसा वापस करना चाहा लेकिन उन्होंने नहीं लिया . उन्होंने कहा कि आपका भी पैसा बनता है . बहस तो आपने ही किया था .बस वहीं मैंने फैसला कर लिया कि अब किसी नेता या मंत्री से मदद लिए बिना दिल्ली में ज़िंदगी गुजारी जायेगी . हालांकि घनश्याम मेरे सहपाठी १९६५ में नवीं कक्षा में ही थे लेकिन हाई स्कूल पास होने के बाद मुलाक़ात नहीं हुई थी . दिल्ली में आकर ही मिले जब मैं तिनके का सहारा ढूंढ रहा था .दिल्ली शहर में जिस तरह से वह आदमी मेरे मददगार के रूप में खड़ा रहा , वह मैं आजीवन नहीं भूलूंगा . बाद में तो लिख पढ़कर ही रोटी कामने के सिलसला शुरू हुआ तो वह आज तक जारी है . उसी समय आज के नामवर प्रकाशक हरिश्चंद्र शर्मा से भी हम और घनश्याम मिलने गए . तब हरीश भी , राधाकृष्ण प्रकशन में स्व ओम प्रकाश जी के सहयोगी के रूप में काम करते थे. आजकल तो एक प्रकाशन संस्थान के मालिक हैं . मेरी बदकिस्मती है कि पचास साल की उम्र में ही चौकिया पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के रीडर डॉ घनश्याम मिश्र का स्वर्गवास हो गया था . अगर वे जिंदा होते तो मैं उनके बारे में काफी बड़ा संस्मरण लिखने का सपना पाले हुए हूँ लेकिन अब नहीं लिखूंगा क्योंकि उनकी मंजूरी के बिना अपने दोस्त की सारी सच्च्चाइयां नहीं लिख सकता .
दिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .
दिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .
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