Saturday, October 19, 2019

कश्मीर : नेहरू, शेख अब्दुल्ला और श्यामा प्रसाद मुखर्जी



शेष नारायण सिंह

आज जम्मू-कश्मीर की सियासत में बहुत बड़ा उथल पुथल चल रहा है  संविधान के अनुच्छेद ३७० के असर को ख़त्म कर दिया गया है और  राज्य को किसी और राज्य की तरह बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है . अभी फिलहाल लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है और पूरे राज्य की जगह पर दो केंद्र शासित राज्य बना दिए गए  हैं . जम्मू-कश्मीर ऐतिहासिक रूप से हमेशा से भारत का हिस्सा रहा है . हालांकि यह भी सच है कि राजनीतिक एकता समय समय पर नहीं रही लेकिन सांस्कृतिक एकता रही  है. कल्हण की राजतरंगिणी के समय से तो कश्मीर का भारत से बहुत ही क़रीबी सम्बन्ध रहा है . १९४७ में जो समस्याएं पैदा हुईं उनकी जड़ में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह की सबसे गैर ज़िम्मेदार भूमिका रही है . हालांकि बाद में शेख अब्दुल्ला का भी रवैया बहुत ही अजीब हो गया था और जो जवाहरलाल नेहरू उन पर पूरी तरह से विश्वास कर रहे थे उनको ही शेख अब्दुल्ला के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी पड़ी और उनको गिरफ्तार भी करना पडा . जम्मू-कश्मीर की राजनीति में  आजादी  का सन्दर्भ बिलकुल अलग है . राजा हरसिंह के राज में भी जनता अपने को गुलाम  मानती थी और रणजीत सिंह के राज में भी . लेकिन जब सरदार पटेल ने राजा से जम्मू -कश्मीर के विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत करवा लिया तो वहां के हिन्दू,मुसलमान और बौद्धों ने अपने को आज़ाद माना था. जम्मू-कश्मीर अंग्रेजों के डायरेक्ट अधीन तो कभी रहा नहीं इसलिए उनकी आज़ादी १५ अगस्त १९४७ के दिन नहीं हुई. उनकी आज़ादी तब हुयी जब अक्टूबर १९४७ में राजा हरिसिंह ने उनका पिंड छोड़ दिया और जम्मू-कश्मीर आज़ाद  भारत का हिस्सा हो गया .लेकिन आज हालात बिलकुल अलग हैं .जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया थाऔर भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ है. कश्मीर में पिछले ३० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओंमहात्मा गाँधी जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को अपना माना था. पिछले ७० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया . पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहें . लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टूबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.कश्मीर को  स्वतंत्र देश बनाने का  महाराजा का आइडिया जिन्ना को पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा को अंधरे में रख कर  पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी.  बातचीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और राजा के अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जब हमले का पता चला तब राजा हरिसिंह की समझ में जिन्नाह की  तिकड़मबाज़ी आई . उनके प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू ने गुस्से में उनको भगा दिया . शेख अब्दुल्ला दिल्ली में ही थे .उन्होंने नेहरू का गुस्सा शांत कराया . मेहरचंद महाजन को औकातबोध हुआ और सरदार पटेल ने वी पी मेनन को भेजकर राजा से  विलय के कागज़ात पर दस्तखत करवाया जिसे  २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया.  सरदार पटेल ने हवाई ज़हाज से भारत की फौज़ को तुरंत रवाना कर दिया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
यहाँ तक तो सब कुछ ठीक था लेकिन उसके बाद बातें बिगड़ना शुरू हो गयीं . लड़ाई चल ही रही थी कि भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर पाकिस्तानी हमले का मामला जवाहरलाल नेहरू १ जनवरी १९४८ के दिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गए . अपने इस फैसले पर खुद वे भी बाद में पछताए . एक देश के रूप में तो भारत आज  तक अफसोस कर रहा है .पाकिस्तान  इसी मौके का इंतज़ार कर रहा था. उसने भारत पर तरह तरह के आरोप लगाना शुरू कर दिया . जवाहरलाल नेहरू को अपनी गलती  का अंदाजा हो गया . ब्रिटेन की सरकार ने मामले को बहुत बड़ा विस्तार दे दिया . बात पाकिस्तानी हमले की हो रही थी लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रभाव और अमरीका की मदद लेकर इसको भारत-पाकिस्तान  विवाद की शक्ल दे दिया .सरदार पटेल इसके पक्ष में नहीं थे लेकिन जवाहरलाल नेहरू को अंगेजों की इन्साफ भावना पर बहुत भरोसा था  . २१ अप्रैल १९४८ के दिन एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पास कर दिया . इस प्रस्ताव में पाकिस्तान को अपने कबायली लड़ाके वापस लेने को नहीं कहा गया . भारत को अपमानित करने के लिए भारत और पाकिस्तान को बराबर माना  गया .भारत में  चारों तरफ तल्खी ला माहौल बन गया . उन दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई प्रतिनिधि एन गोपालस्वामी अय्यंगर हुआ करते थे .उन्होंने सरकार के पास जो नोट भेजा उसमें लिखा है कि ," मैं अपनी सरकार को यह सलाह कभी नहीं दूंगा कि वह कोई मामला सुरक्षा परिषद में लाये  " जवाहरलाल नेहरू को इस बात की गंभीरता का अनुमान पूरी तरह से हो गया था . बहुत बाद में  जब अमरीका की सरकार भारत को कुछ  दोस्ती के संकेत देने की कोशिश कर रही थी और अमरीका में भारत की राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित के ज़रिये कुछ सन्देश भेजने की कोशिश कर रही थी तो नेहरू ने एक सख्त सात टेलीग्राम विजयलक्ष्मी पंडित के पास १० नवम्बर १९५२ को भेजा. उसमें लिखा था , " किसी गलत बुनियाद पर कोई भी सही फैसला नहीं हो सकता . अमरीका ने  हमारे साथ अन्याय किया है पहले उस अन्याय को ठीक करें तब आगे की बात की जायेगी ." अमरीकी  विदेश विभाग को भी जवाहरलाल ने बहुत ही साफ शब्दों में  समझा दिया था कि भारत के प्रति अमरीकी रवैय्या  दुश्मनी पूर्ण रहा है .हम सबकी इच्छा है कि दोनों देशों के बीच  दोस्ती कायम हो लेकिन इस अमरीकी रुख के बीच वह संभव नहीं है . ( नेहरू का पत्र ,जी एल मेहता के नाम ) .

कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला एक स्थाई तत्व  हमेशा से ही रहे  हैं. शुरू में वे पूरी तरह से महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के साथ थे . लेकिन बाद में उनके नज़रिए में  भारी बदलाव आ गया . सबको मामूल है कि शेख अब्दुल्ला पर जवाहरलाल को बहुत ही अधिक भरोसा था.  शेख अब्दुल्ला कश्मीरी हिन्दू मुसलमान सबके  हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता था  . लेकिन  बाद में उनमे भारी बदलाव आ गया . वे खुद को  बहुत ही बड़ा मानने लगे थे . एक समय था जब नेहरू मानते थे कि शेख अब्दुल्ला ही कश्मीर को संभाल सकते थे .जवाहरलाल नेहरू १३ नवम्बर १९४७ को राजा हरसिंह को लिखा था कि ," अगर कोई आदमी कश्मीर में सब  कुछ ठीक कर सकता है तो वह  है शेख अब्दुल्ला . उनकी विश्वसनीयता और दिमाग के संतुलन पर मुझे पूरा भरोसा है. मामूली बातों में तो  वे छोटी मोटी गलती कर सकते हैं लेकिन बड़े फैसलों में वे  चूकेंगें नहीं  ऐसा मुझे विश्वास है .कश्मीर की  किसी परेशानी का हल शेख के बिना नहीं हासिल किया जा सकता ."
शुरू में ऐसा लगता  था कि  शेख अब्दुल्ला भारत और उसके प्रधानमंत्री के प्रति पूरी तरह समर्पित थे .यह नेहरू का भी सोचना था लेकिन  नेहरू को अनुमान ही नहीं था कि शेख साहब एक ऐसे कश्मीर की कल्पना कर रहे थे तो भारत से पूरी तरह आज़ाद होगा. इस बात की संभावना इसलिए भी जोर पकड रही थी कि दिल्ली में कुछ अमरीकी अधिकारियों से बातचीत में उन्होंने कहा था कि आज़ादी अच्छी चीज़ है. इसी बातचीत में उन्होंने ब्रिटेन और अमरीका को कश्मीर के विकास में सहभागी के रूप में आमंत्रित करने के भी संकेत दिए थे . हद तो तब हो गयी जब नेहरू को पता लगा कि शेख अब्दुल्ला सरदार पटेल और नेहरू के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश कर रहे थे . हुआ यों कि शेख ने कहीं बयान दे दिया कि कुछ लोग कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते  थे. सरदार पटेल ने इस बात का बहुत बुरा माना और अपनी नाराजगी जताई . लेकिन नेहरू अभी भी बात को टालते नज़र आये . उन्होंने ४ अक्टूबर १९४८ को सरदार पटेल को एक चिट्ठी लिखकर बात को संभालने की कोशिश की . चिट्ठी में लिखा कि ," मुझे विश्वास है कि शेख  अब्दुल्ला बहुत ही साफगोई से बात करते हैं . उनकी सोच में स्पष्टता की कमी है और बहुत सारे नेताओं की तरह तरह बोलते बोलते कुछ भी बोल जाते  हैं .वे इस बात से बहुत चिंतित रहते हैं कि कहीं उनके लोग पाकिस्तानी प्रोपेगैंडा के शिकार होकर पाकिस्तान के प्रभाव में न आ जाएँ .मैंने उनको साफ़ कह दिया है कि उनकी यह समझ अपनी जगह  ठीक है लेकिन उनको अपनी बात को संभाल कर कहना चाहिए ."
 शेख अब्दुल्ला  नेहरू की बात को समझने के लिए तैयार नहीं थे . अब तो उनके और जवाहरलाल के बीच मतभेद इस क़दर बढ़ गए कि जनवरी १९४९ में जवाहरलाल को उनसे अपील करनी पडी कि हर बात को प्रेस में बोलने से बाज़ आयें और किसी विवाद को बातचीत से हल करने की आदत  डालें. " लेकिन इसके बाद भी हालात सुधरे नहीं . नेहरू ने  फरवरी १९४९ में कृष्ण मेनन को लिखा कि शेख अब्दुल्ला और केंद्र सरकार के बीच कोई समझदारी ही नहीं है . भारत में अमरीकी  राजदूत ने  इसी समय के आसपास श्रीनगर की यात्रा की और उनसे बातचीत के बाद तो शेख अब्दुल्ला को लगने लगा कि ब्रिटेन और अमरीका कश्मीर को स्वत्रन्त्र देखना चाहते  हैं. अमरीकी राजदूत की पत्नी श्रीमती लॉय हेंडरसन और सी आई ए के भारत में तैनात कुछ अफसरों ने शेख अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षा को खूब हवा दी .शेख अब्दुल्ला ने १९५० में  संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनधि सर ओवन डिक्सन को यह सुझाव दिया था कि उनकी इच्छा है  कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नेताओं से बातचीत करके स्वतंत्र कश्मीर की  बात को वे आगे बढ़ाएंगे .यह सब बातें पब्लिक डोमेन में आ चुकी थीं और चर्चा हो रही थी. शेख अब्दुल्ला प्रेस से बात करने से बाज़ नहीं आ रहे थे और कृष्ण मेनन भी तुरंत जवाब दे रहे थे . नेहरू बहुत ही खिसिया गए थे . उन्होंने कहा कि जब इस तरह के दोस्त हों तो बात कैसे संभल सकती है . लेकिन शेख अब्दुल्ला बात को आगे बढाते जा रहे थे . उनको भारत सरकार से सलाह लेना भी मंज़ूर नहीं था. . खीजकर जवाहरलाल ने उनको ४ जुलाई १९५० के दिन एक पत्र लिखा . यह पत्र उपलब्ध है . लिखते हैं ,"  मैं समझता हूँ कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि अगर आपके और हमारे बीच किसी मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण मतभेद हो तो मैं विवाद से अलग हो  जाउंगा . ... मुझे बहुत अफसोस है कि आपने ऐसी पोजीशन ले ली  है कि हमारी किसी दोस्ताना सलाह को भी आप कोई महत्व नहीं देते और उसको दखलंदाजी मानते हैं. अगर ऐसी बात है को व्यक्तिगत रूप से मुझे कुछ नहीं कहना है ." शेख अब्दुल्ला सरदार पटेल के मातहत अफसरों की शिकायत जवाहरलाल से करते रहते थे और सरदार की शिकायत जवाहरलाल नेहरू को बर्दाश्त नहीं थी. 

शेख अब्दुल्ला की अपनी जिद के चलते बात  बिगडती जा रही थी . गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने नेहरू से बताया कि वल्लभ भाई ( सरदार पटेल ) सोचते  हैं कि शेख अब्दुल्ला को डील करना नेहरू का ही काम है. सच्ची बात यह है  दिल्ली के हर अधिकारी और नेता यही समझता था . शेख दिन पर दिन मुश्किल पैदा करते जा रहे थे .उन्होंने ११ अप्रैल १९५२ के  दिन  रणबीरसिंह पुरा में एक भाषण दे दिया जिसमें जवाहरलाल और उनके मतभेद बहुत ही खुलकर सामने आ गए . भाषण में उन्होंने भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे के बराबर साबित करने की कोशिश की और भारतीय अखबारों को खूब कोसा . जवाहरलाल नेहरू ने उनके इस गैरजिम्मेदार बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दीएक तरह से उसको नज़रंदाज़ ही किया . जब नेहरू की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो शेख की समझ में आ गया कि प्रधानमंत्री नेहरू नाराज़ हैं . उसके बाद उन्होंने अपनी तरफ से ही सफाई देना शुरू कर दिया . एक बयान जारी करके कहा कि प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है .  उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रेस ट्रस्ट वालों  ने उनकी सरकार से कुछ आर्थिक सहयोग माँगा था . जब मना कर दिया गया तो उनके पीछे पड़ गए हैं .  शेख अब्दुल्ला के इस के बाद के  बयान भी इसी तर्ज के हैं . इन सबके कारण जवाहरलाल को बहुत  दिक्क़तें पेश आईं. इतने परेशान हो गए कि उन्होंने शेख को २५ अप्रैल १९५२ के दिन एक चिट्ठी लिखी और उसमें लिखा कि वे शेख साहब से इस सम्बन्ध में कोई  बात नहीं करना चाहते . उन्होने यहाँ तक कह दिया कि वे उनसे किसी भी मसले पर बात नहीं करना चाहते . लिखा कि मेरी नज़र में आप ही कश्मीरी अवाम के प्रतिनिधि थे लेकिन आपने इस तरह के बयानात देकर मुझे  बहुत तकलीफ पंहुचाई है . व्यक्तिगत रूप से शेख अब्दुल्ला इस सबके बाद भी दोस्ती की बात करते थे  लेकिन  अपनी गैरजिम्मेदार राजनीति  के लिए बिलकुल अफ़सोस नहीं जताते थे . नेहरू की परेशानी यह  थी कि सरदार  पटेल का स्वर्गवास हो चुका था. जब तक सरदार जीवित थे कश्मीर के राजा या शेख अब्दुल्ला की ऊलजलूल बातों को संभाल लेते  थे लेकिन अब नेहरू अकेले पड़ गए थे . अगस्त १९५२ तक कश्मीर की हालत यह हो  गयी थी कि वह न तो स्वतंत्र थान वहां शान्ति थी और न ही वहां के हालात सामान्य थे.  उथल पुथल का माहौल था .
शेख अब्दुल्ला के अजीबोगरीब  रुख का नतीजा था कि जम्मू के इलाकों में हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों को शेख के बहाने जवाहरलाल पर हमला करने का मौक़ा मिल रहा था . १९५२ के दिसंबर तक यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि देश भर में शेख अब्दुल्ला मुद्दा बनते जा रहे थे . जम्मू में प्रजा परिषद का शेख अब्दुल्ला और उनकी सरकार के खिलाफ  आन्दोलन चल रहा  था. वह पूरी तरह साम्प्रदायिक आन्दोलन था . प्रजा परिषद को हिन्दू महासभा के  पुराने नेता  श्यामा प्रसाद मुखर्जी  की नई पार्टी  जनसंघअकाली दल हिन्दू महासभा और आर एस एस का समर्थन मिल रहा था. हालत बहुत ही नाजुक हो गयी थी . अब इस आन्दोलन के निशाने पर जवाहरलाल नेहरू आ गए थे . शेख के हवाले  से बढ़ रहे आन्दोलन में गौहत्या और  पूर्वी बंगाल ( अब बंगलादेश ) से आये शरणार्थियों के मुद्दे भी जोड़ दिए गए थे . सिख नेता सरदार तारा सिंह ने एक ऐसा बयान दे दिया था जिससे लगता था कि वे नेहरू की ह्त्या का आह्वान कर रहे थे .  ऐसा लगने लगा था कि एक बार फिर वही हालात पैदा हो  जायेंगें जो बंटवारे के वक़्त थे और क़त्लो-गारद का माहौल बन जाएगा . अगर फौरन कार्रवाई न की गयी और हालात के और भी बिगड़ने का खतरा रोज़ ही बढ़ रहा था .  जवाहरलाल ने खुद संकेत दिया कि वे हर मोर्चे पर असफल नज़र आ रहे थे . उनके आदेशों का पालन नहीं हो रहा था . उन्होंने आदेश दिया कि जहां भी उपद्रव हो रहा हो उसको फ़ौरन रोका  जाए लेकिन कोई असर नहीं हो रहा था क्योंकि नए गृहमंत्री  कैलाशनाथ काटजू  में वह बात नहीं थी जी सरदार पटेल में थी . बहुत सारे अफसर काटजू साहब की बात ही नहीं सुनते थे .  सोशलिस्ट पार्टी के लोग भी जवाहरलाल के खिलाफ हो गए थे. उन्होंने  सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं आचार्य जे बी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण से अपील किया कि इस आन्दोलन का समर्थन मत करो क्योंकि यह धर्मनिरपेक्ष राजनीति के खिलाफ है . जयप्रकाश नारायण ने  टका सा जवाब दे दिया कि साम्प्रदायिकता के विरोध का मतलब यह नहीं है कि समस्या के निदान की नेहरू की तरकीब का समर्थन किया जाए . उन दिनों जयप्रकाश नारायण अपने को नेहरू से ज्यादा काबिल समझते थे. उधर नेहरू ने जो बुनियादी ग़लती की वह यह थी कि वे साम्प्रदायिक आन्दोलन को रोकने के लिए शेख अब्दुल्ला की सरकार को  सेकुलर और राष्ट्रहित में बता रहे थे  .उनके अलावा  और कोई भी  इस बात को मानने के लिए  तैय्यार नहीं था. जम्मू के आन्दोलन को श्यामा प्रसाद मुखर्जी बहुत ही सलीके से  जवाहरलाल की धुलाई करने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे और उन्होंने  संसद के उस अधिकार को चुनौती देना शुरू कर दिया था जिसके कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा और अधिकार दिया गया था . श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने  जवाहरलाल को ३ फरवरी १९५३ को  एक बहुत ही सख्त चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था कि ,” आपकी गलत नीतियों और अपने विरोधियों की राय को नज़रन्दाज़ करने की आपकी आदत के कारण ही आज देश बर्बादी के मुहाने पर खड़ा है .” इस मौके पर जवाहरलाल खुद जम्मू का दौरा करना चाहते थे लेकिन शेख साहब ने इस बात को पसंद नहीं किया .नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से कहा कि समस्या विकराल है और उसका समाधान लोगों के दिल और दिमाग को जीत कर हासिल किया जाना चाहिए . दमन का रास्ता ठीक नहीं है .लेकिन शेख उनकी बात मानने को तैयार नहीं  थे. एक मुकाम ऐसा भी आया जब साफ़ लगने लगा कि शेख अब्दुल्ला बुरी तरह से कन्फ्यूज़ हो गए हैं . नेहरू ने १ मार्च ,१९५३ को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को एक पत्र में बताया कि शेख साहब कन्फ्यूज़ हो गए हैं . उनके ऊपर तरह तरह के दबाव पड़ रहे हैं और वे उसी में बुरी तरह से फंसते जा रहे हैं . वे किसी पर विश्वास नहीं कर रहे  हैं लेकिन ऐसे लोगों के बीच घिर गए हैं जो उनको उलटा सीधा पढ़ा रहे हैं . हालांकि वे उनपर विश्वास नहीं करते लेकिन उनकी बात  को मानकर कोई न कोई गलत क़दम उठा लेते हैं . मुझे डर है कि इस दिमागी हालत में शेख कोई ऐसा काम कर बैठेंगे जो बात को और बिगाड़ देगा .’  मौलाना आज़ाद को  पत्र लिखने के बाद जवाहरलाल ने शेख अब्दुल्ला को भी उसी दिन एक बहुत ज़रूरी पत्र लिखा . उन्होंने लिखा कि ,” केवल इतना ही काफी नहीं है कि हम यह इच्छा करें कि सब ठीक हो  जाए . उसके लिए कुछ करना भी चाहिए . नतीजा अपने हाथ में नहीं है लेकिन समस्या के हल की कोशिश करना तो हमारे   हाथ में है .” शेख अब्दुल्ला ने इस पत्र का कोई जवाब ही नहीं दिया .
नेहरू की सबसे बड़ी कमजोरी उस वक़्त का लाचार गृह मंत्रालय था .गृहमंत्री कैलाशनाथ काटजू भी अपने प्रधानमंत्री की सलाह मानने को तैयार नहीं थे . इस आशय का एक पत्र भी उन्होंने १९ अप्रैल १९५३ को नेहरू के पास भेज दिया था . उधर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने आंदोलन को बहुत ही तेज़ कर दिया था .  गृहमंत्री   काटजू कुछ भी करने को तैयार नहीं थे  . यहाँ तक कि उनके भरोसे के मित्र और केंद्रीय मंत्री ,रफ़ी अहमद किदवई ने नेहरू को लिखा कि आपने अपने इर्द गिर्द ऐसे लोगों को जमा कर रखा है जिनको सभी रिजेक्ट कर चुके हैं .उनका संकेत कैलाशनाथ काटजू की तरफ था. इस बीच श्यामा प्रसाद मुखर्जी बिना किसी परमिट के जम्मू-कश्मीर चले गए . और शेख अब्दुल्ला ने नेहरू की एक न मानी और उनको गिरफ्तार कर लिया . उन्होंने नेहरू को श्रीनगर आने की दावत दी. जवाहरलाल वहां गये और शेख अब्दुल्ला ने उनको समझाया कि पूरी  स्वायत्तता और पूर्ण विलय के बीच का कोई रास्ता नहीं है . जम्मू-कश्मीर का  भारत में पूर्ण विलय कम्मू-कश्मीर के लोग मानेगें नहीं इसलिए केवल एक रास्ता बचता है कि राज्य को पूर्ण स्वायत्तता दे दी जाए. पूर्ण स्वायत्तता से शेख अब्दुला का मतलब आज़ादी ही था. नेहरू ने समझाया कि और भी बहुत से रास्ते हैं लेकिन शेख अब्दुल्ला और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं  थे जबकि उनकी वह हैसियत नहीं थी जो पहले हुआ करती थी  शेख  साहब अपनी पार्टी में भी अलग थलग पड़ रह  थे . नेहरू ने उनको और अन्य कश्मीरी नेताओं को समझाया कि वे कामनवेल्थ सम्मलेन में जा रहे हैं . उनके लौटने तक यथास्थिति बनाये रखा जाए. लेकिन भविष्य में कुछ और लिखा था . काहिरा में नेहरू को पता लगा कि २३ जून’५३ को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जेल में ही मृत्यु हो गयी . उसके बाद तो सब कुछ बदल गया .  शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त हुयी और वे भी गिरफ्तार हुए . लेकिन जवाहरलाल के मन में किसी के लिए तल्खी नहीं थी. बाद में उनको जब लगा कि कश्मीर की  समस्या का समाधान शेख अब्दुल्ला के बिना नहीं हो सकता तो उन्होंने शेख को रिहा किया और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाकर वहां के नेताओं से बात करने की प्रेरणा दी लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था  . शेख साहब पाकिस्तान गए . २७ मई १९६४ के दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. लेकिन इसके साथ ही नेहरू युग भी ख़त्म हो गया .

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