शेष नारायण सिंह
आज के सौ साल पहले असहयोग आंदोलन की शुरुआत हो गयी थी. उस समय महात्मा गांधी की उम्र पचास साल थी . दुनिया के जनांदोलनों के इतिहास में असहयोग आन्दोलन का मुकाम बहुत ऊंचा है. अंग्रेजों की वादाखिलाफी को रेखांकित करने के लिए महात्मा गांधी ने पूरे देश को तैयार कर दिया था लेकिन कुछ वक़्त बाद आन्दोलन हिंसक हो गया और चौरी चौरा का हिंसक काण्ड हो गया , आन्दोलन के नेता खुद महात्मा गांधी थे . उन्होंने बिना कोई वक़्त गँवाए आन्दोलन को वापस ले लिया . उस फैसले के बाद लोगों की मनोभावना पर बहुत ही उलटा असर पड़ा लेकिन गांधी जी को मालूम था कि हिंसक आन्दोलन को दबा देना और उसको ख़त्म कर देना ब्रिटिश सत्ता के लिए बाएं हाथ का खेल है . १८५७ में जिस तरह से हिंसक विरोध को अंग्रेजों ने नेस्तनाबूद किया था , वह १९१९ के नेता को मालूम था . उसके बाद से गांधी जी लगातार प्रयोग करते रहे. कांग्रेस जो सीमित आबादी तक की पंहुच वाली पार्टी थी उसको गांधीजी जनसंगठन का रूप दे रहे थे . इस के लिए वे शास्वत संवाद की स्थिति में रहते थे. १९१९ के आन्दोलन की तैयारी में भी उनकी सभी से संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता को बहुत ही बारीकी से देखा और समझा गया है . असहयोग आन्दोलन के गांधीजी के प्रस्ताव का कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन में देशबंधु चितरंजन दास ने ज़बरदस्त विरोध किया था. उसके बाद नागपुर में उस प्रस्ताव को पक्का किया जाना था. सी आर दास ने तय कर लिया था कि गांधीजी के प्रस्ताव को हर हाल में फेल करना है. इसीलिये नागपुर जाने के पहले उन्होंने कांग्रेस के बहुत सारे डेलीगेट बनाए और सब को कलकत्ता से लेकर नागपुर गए . सबको गांधी जी के प्रस्ताव का विरोध करना था लेकिन जब गांधी जी ने अपना प्रस्ताव रखा तो वही सी आर दास गांधी के प्रस्ताव के पक्ष में हो गए और उन सारे लोगों से गांधी के पक्ष में मतदान करने के लिए कहा जिनको नागपुर लाये थे. ज़ाहिर है प्रस्ताव लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया क्योंकि कलकत्ता से नागपुर के बीच में गांधी के सबसे बड़े विरोधी मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका ख़त्म हो चुकी थी. और अब सी आर दास अब गांधी के समर्थक थे .
हमने देखा है कि लोगों को अपनी बात समझा देने की क्षमता , गांधी की शख्सियत की सबसे बड़ी ताक़त थी. गांधी , संवाद की विधा के सबसे बड़े ज्ञाता हैं . उनके कार्य के हर पहलू के बारे में खूब लिखा गया है ,बहुत सारे शोध हुए हैं लेकिन यह एक पक्ष ऐसा है जिसपर उतना शोध नहीं हुआ जितना होना चाहिए था. महात्मा गांधी के हर आन्दोलन की बुनियाद में अपनी बात को कह देने और सही व्यक्ति तक उसको पंहुचा देने की क्षमता की सबसे प्रमुख भूमिका होती थी . गांधी जी को पत्रकार के रूप में तो पूरी दुनिया जानती है ,उस विषय पर बातें भी बहुत हुई हैं . उन्होंने जिन अखबारों का संपादन किया , वे किसी भी जन आन्दोलन के बीजक के रूप में जाने जाते हैं लेकिन पत्रकारिता से इतर भी महात्मा ने सम्प्रेषण के क्षेत्र में काम किया है. संवाद की तरकीबों को उन्होंने ललित कला के रूप में विकसित किया लेकिन उनके इस पक्ष के बारे में जानकारी अपेक्षाकृत कम है . हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भारत में उनके क़दम रखने के साथ ही देखी जा सकती है . उनकी भारत दर्शन की यात्राएं ,देश की जनता से संवाद स्थापित करने के सन्दर्भ में ही देखी जानी चाहिए . भारत में उनकी राजनीति की शुरुआत चम्पारण के उनके प्रयोगों से मानी जाती है . उन्होंने वहां तरह तरह के प्रयोग किये . उस इलाके की किसी भी भाषा को गांधी जी नहीं जानते थे . मैथिली, भोजपुरी, हिंदी ,मगही , कैथी आदि की जानकारी गांधी जी को बिलकुल नहीं थी लेकिन उस चंपारण में एक ऐसा भी समय आया जब उस इलाके की जनता और वहां के नेता, वहां के अँगरेज़ अफसर , वहां के नील के कारोबारी , वहां के किसान वही समझते थे जो गांधी जी उनको समझाना चाहते थे. अभी कुछ साल पहले देश के बड़े पत्रकार और गान्धीविद , अरविन्द मोहन ने मोतिहारी में रहकर गांधी जी के चम्पारण के प्रयोगों का गंभीर अध्ययन किया है . उस अध्ययन को उन्होंने कुछ किताबों के ज़रिये सार्वजनिक भी किया है . अभी शायद और भी कुछ लिखा जाना है लेकिन जितना काम सार्वजनिक डोमेन में आ चुका है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका काम अपने आप में एक बेहतरीन अकादमिक धरोहर है . महात्मा गांधी की रोज़ की गतिविधियों ,चिट्ठी पत्री, बातचीत ,सन्देश आदि को आधार बनाकर महात्मा गांधी की जिस डायरी की अरविन्द मोहन ने पुनर्रचना की है वह राजनीतिक अध्ययन प्रणाली के लिए मील का पत्थर है . उस डायरी को पढ़कर महात्मा जी की संवाद को सबसे बुलंद मुकाम तक पंहुचाने की क्षमता को जानने का जो अवसर मुझे मिला ,वह मेरे जीवन का बहुत ही अच्छा अनुभव है . कई बार ऐसा हुआ कि गांधी मार्ग में नियमित रूप से छप रही डायरी को पढ़ते हुए ऐसा लगता था कि जैसे महात्मा गांधी ने खुद ही उस डायरी को वहीं कहीं मोतीहारी में बैठकर लिखा हो. अरविन्द के चंपारण प्रोजेक्ट के बाद उनकी जो भी पुस्तकें आदि छपी हैं वे आने वाली पीढ़ियों को बहुत सहायता करेंगीं और वे गांधी जी को अच्छे तरीके से समझ सकेंगे . ऐसा मुझे विश्वास है . अरविन्द मोहन की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब, " प्रयोग चंपारण " की कई प्रतियां मैंने नौजवानों को जन्मदिन आदि पर भेंट की हैं और उन सब का कहना है कि गांधी जी को अब वे पहले से अच्छी तरह से समझ सकते हैं . मोतीहारी जाकर गांधी जी को वहां जाकर उनको बिहार के सबसे बड़े वकीलों, ब्रज किशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद आदि का जो साथ मिला वह अपने आप में गांधी की संवाद शैली का उदाहरण है . ब्रजकिशोर बाबू , उस इलाके के सबसे बड़े वकीलों में शुमार थे . एक मुक़दमा लेने के पहले उसको सुनने के लिए भी फीस लेते थे . और वह फीस १९१६ में दस हज़ार रूपये होती थी . इतिहास और अर्थशास्त्र के विद्यार्थी इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि आज के रूपयों में अगर इस रक़म को बदला जाए तो यह कितना होगा. वही बृजकिशोर प्रसाद मोतीहारी में बैठकर नील की खेती करने वाले किसानों के बयान लिखा करते थे . जब वे गांधी के यहां गए तो सारे नौकर चाकर उनके साथ गए थे. लेकिन तीन महीने के अन्दर गांधी ने उनको समझा दिया और सब वापस भेज दिए गए . राजेन्द्र प्रसाद ,आचार्य जे बी कृपलानी ,रामनवमी प्रसाद, धरणीधर प्रसाद जैसे लोग अपनी आरामदेह ज़िंदगी छोड़कर महात्मा गांधी के साथ लगे रहे और वह सभी काम करते थे जो गांधी जी कहते थे . वहां अपना खुद का सारा काम सबको खुद ही करना पढता था जिसमें बर्तन मांजने से लेकर कपडे धोने तक का काम शामिल था. इन सभी लोगों के पास वापस जाकर अपनी ज़िंदगी को आराम से बसर करने का विकल्प था लेकिन गांधी का सबसे ऐसा संवाद स्थापित हो गया कि कोई भी वापस जाने की बात सोच ही नहीं सकता था. यह सारी जानकारी अरविन्द मोहन की चंपारण वाली किताबों में है और मुझे लगता है कि गांधी की राजनीति और उनकी शैली को समझने की कोशिश करने वाले हर व्यक्ति को उन किताबों पर एक नज़र ज़रूर डाल लेना चाहिए .
जो गांधीजी ने चंपारण में किया वह स्थापित ब्रितानी सत्ता को दी गयी चुनौती थी . स्थापित सत्ता ही तानाशाही को चुनौती देने का गांधी जी का तरीका हर कालखंड में रामबाण की तरह असर करता है . आज़ादी की लड़ाई में १९१९ से १९४७ तक के इतिहास ने हर मोड़ पर देखा गया है कि उनकी बात को हमेशा ही बहुत ही गंभीरता से लिया जाता रहा है . १९२० ,१९३० और १९४२ के उनके आंदोलनों को देखा जाए तो उनके समर्थकों में ही एक बड़ा वर्ग था जो उनके नतीजों के बारे में सशंकित था . उनको लगता था कि जिन नतीजों की उम्मीद महात्मा गांधी कर रहे थे उनको हासिल नहीं किया जा सकता था . लेकिन जब १९२० का आन्दोलन शुरू हुआ और हिन्दू मुसलमान , सिख , ईसाई सभी उनके साथ जुड़ गए , किसान मजदूर गांधी के साथ खड़े हो गए . अकबर इलाहाबादी ने गांधी के इसी दौर में कहा था कि , " मुश्ते-खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं/ बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं ."
१९२० के आन्दोलन के बाद अंग्रेजों को आम भारतीय जनमानस के बीच गांधी की अपील की ताक़त समझ में आ गई थी . अँगरेज़ ने साफ़ देखा कि हिन्दू-मुसलमान एक हो गया है , मजदूर किसान एक हो गया है . शहरी ग्रामीण सब गांधी के साथ हैं . जिस बांकपन से गांधी ने चौरी चौरा के बाद आन्दोलन को वापस लिया था वह अपने आप में गांधी के आत्मविश्वास और अपनी बात को स्वीकार करवाने की क्षमता का परिचायक है . १९३० के आन्दोलन में जब उन्होंने दांडी यात्रा की योजना बनाई तो देश के गांधी समर्थक बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी शंका से भरा हुआ था कि क्या नमक सत्याग्रह से वे नतीजे निकलेंगें जिसकी कल्पना गांधी जी ने की थी. उनके बड़े समर्थक मोतीलाल नेहरू ने करीब बीस पृष्ठ की चिट्ठी लिखी और दावा किया कि दांडी यात्रा से कुछ नहीं होने वाला है . गांधीजी ने पोस्टकार्ड पर एक लाइन का जवाब लिख दिया कि " आदरणीय मोतीलाल जी, करके देखिये " उसके बाद मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में नमक क़ानून तोड़ने की घोषणा की और गिरफ्तार कर लिए गए . उन्होंने गांधीजी को तार भेजा जिसमें लिखा था, " आदरणीय गांधी जी, करने के पहले ही देख लिया ." बाद में तो खैर , पूरी दुनिया ने देखा कि उस सत्याग्रह ने ब्रितानी सत्ता को इतना बड़ा आइना दिखा दिया कि उनको गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट लाकर मामले को शांत करने की कोशिश करनी पड़ी . इस बीच भारत के नेताओं में जो लोग अंग्रेज़ी राज के वफादार लोग थे उन सबको भी गांधी को नाकाम करने के लिए सक्रिय कर दिया गया था लेकिन जनता ने वही सुना जो गांधी सुनाना चाहते थे . बाकी लोग उस समय के इंटेलिजेंस ब्यूरो के अफसरों के हुक्म के गुलाम ही बने रहे . १९४२ में भी भारत छोड़ो के नारे की उपयोगिता पर भी कांग्रेस के अंदर से ही सवाल उठाए जा रहे थे . लेकिन गांधी जी ने किसी की नहीं सुनी . आज़ादी की लड़ाई के सभी बड़े नेताओं को अहमदनगर किले की जेल और महात्मा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस में बंद कर दिया गया . १९४५ में जब जेल से लोग बाहर आये तो कई नेताओं की हिम्मत चुनाव में जाने की नहीं थी लेकिन जब लोग भारत के शहरों और गाँवों में निकले तो उन्होंने देखा कि लगता था कि गांधी ने हर घर में सन्देश पंहुचा दिया था कि अंगेजों को भारत छोड़कर जाना है . कुछ इलाकों में अंग्रेजों की कृपापात्र मुस्लिम लीग को भी सफलता मिली लेकिन पूरे देश में गांधी का डंका बज रहा था. पूरा देश गांधी के साथ खड़ा हो गया था .
इतना बड़ा जनांदोलन महात्मा गांधी इसलिए चला सके क्योंकि उनकी जनता से संवाद स्थापित करने की क्षमता अद्भुत थी . संवाद स्थापित करने की दिशा में तरह तरह के प्रयोग महात्मा गांधी की विरासत का हिस्सा है . उनके जाने के बाद उसका प्रयोग बार बार होता रहा . महात्मा गांधी के बाद के दो दशकों तक तो पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे बहुत सारे दिग्गज थे जिन्होंने उनके काम को रिपोर्ट किया था , उनके जीवनकाल में उनके बारे में लिखा पढ़ा था लेकिन सत्तर का दशक आते आते राजनीति में भी और पत्रकारिता में भी महात्मा गांधी के साथ काम कर चुके लोग हाशिये पर जाने लगे थे . राजनीति में भी और पत्रकारिता में भी सत्ता के केंद्र की चाटुकारिता का फैशन चल पड़ा था . इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा था और चापलूसी का फैशन राजनीतिक आचरण में प्रवेश कर चुका था . इमरजेंसी के बाद जेल से बाहर आये और जनता पार्टी के सूचना प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवानी की बात उस वक़्त की मीडिया को रेखांकित भी कर देती है. इमरजेंसी में जब सेंसरशिप की बात हुयी तो उन्होंने पत्रकारों से मुखातिब होकर कहा था कि आपसे स्थापित सत्ता की तरफ से झुकने को कहा गया था और आप रेंगने लगे थे ( You were asked to bend but you started crawling ) . गांधी के रास्ते से दूर हो रहे समाज और राजनीति के इसी दौर में इमरजेंसी लगी थी. लेकिन उसके पहले गांधी के चम्पारण के साथी बृजकिशोर बाबू के दामाद और गांधी के असली अनुयायी , जयप्रकाश नारायण ने स्थापित सत्ता के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया था . उस आन्दोलन ने बिहार की सरज़मीन से देशव्यापी रूप पकड़ना शुरू किया था . आज के बिहार के बहुत सारे वरिष्ठ नेता उन दिनों छात्र थे . उन लोगों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन के हरावल दस्ते में शिरकत की थी. अठारह मार्च १९७५ के दिन एक हज़ार आदमियों का जो जुलूस पटना की सडकों पर निकला था उसमें आज के हमारे मनीषी ,कुमार प्रशांत भी शामिल हुए थे . मैंने पटना में इंसानी बुलंदी के उस पर्व को नहीं देखा था लेकिन करीब पांच साल पहले कुमार प्रशांत ने उस वक़्त के माहौल को कलमबंद करके जनसत्ता अखबार में छापा था . मेरा मन तो कहता है कि उनके पूरे लेख को ही यहाँ उद्धृत कर दूं .बहरहाल उसके कुछ अंश उद्धृत किये बिना अपनी बात नहीं कह पाउँगा . कुमार प्रशांत के उस कालजयी लेख की शुरुआती पंक्तियाँ देश के उस समय के माहौल को साफ़ बयान करती हैं . लिखते हैं ," छब्बीस जून, 1975 वह तारीख है जहां से भारतीय लोकतंत्र का इतिहास एक मोड़ लेता है। सत्ता की चालें-कुचालें थीं सब ओर और सभी हतप्रभ थे, लेकिन कोई बोलता नहीं था। राजनीति चाटुकारों से और समाज गूंगों से पट गया था। 1973-74 में गुजरात में युवकों ने एक चिनगारी फूंक तो डाली थी लेकिन वह रोशनी कम और आग ज्यादा फैला रही थी। बिहार में भी युवकों ने ही इस सन्नाटे को भेदने का काम किया था लेकिन सन्नाटा टूटा कुछ इस तरह कि पहले से भी ज्यादा दमघोंटू सन्नाटा घिर आया! तब कायर चुप्पी थी, अब भयग्रस्त घिघियाहट भर थी। और ऐसे में उस बीमार, बूढ़े आदमी ने कमान संभाली थी। वर्तमान उसे कम जानता था, इतिहास उसे जयप्रकाश के नाम से पहचानता था और राष्ट्रकवि दिनकर उसके लिए यही गाते हुए इस दुनिया से विदा हुए थे: कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है/ ज्वाला को बुझते देख कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है!
वैसा ही हुआ! वह मौत के बिस्तर से उठ कर, हम समझ पाए कि न समझ पाए, हमें साथ लेकर क्रांति-कुंड में कूद पड़ा! अठारह मार्च को पटना की सड़कों पर बमुश्किल हजार लोग ही तो उतरे थे- हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर पट्टी बंधी थी। उन हजार लोगों ने भी अपना-अपना शपथपत्र भरा था जिसकी पूरी जांच जयप्रकाश ने की थी। पहली लक्ष्मण-रेखा तो यही खींची थी कि उन्होंने कि आपका संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं होना चाहिए। तो कांग्रेसी सत्ता की अपनी कुर्सी से और विपक्षी विपक्ष की अपनी कुर्सी से बंध कर रह गए थे। पटना शहर की मुख्य सड़कों से गुजर कर, सत्ता की हेकड़ी और प्रशासन की अकड़ को जमींदोज कर, कोई तीन घंटे बाद जब क्षुब्ध ह्रदय है/ बंद जबान की तख्ती घुमा कर हम सभी जमा हुए तो मुंह पर बांधी अपनी पट्टी खोल कर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु लंबे समय तक खामोश ही रह गए! मैंने पानी का गिलास लेकर कंधा छुआ तो कुछ देर मुझे देखते ही रहे, फिर बोले: प्रशांतजी, ऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! और खामोशी में लिपटा वह निनाद अगले ही दिन जिस गड़गड़ाहट के साथ फटा, क्या उसकी कल्पना थी किसी को! मतलब तो क्या पता होता, जिस शब्द से भी किसी का परिचय नहीं था वह क्रांति शब्द- संपूर्ण क्रांति- सारे माहौल में गूंज उठा। उस वृद्ध जयप्रकाश नारायण ने न जाने कौन-सी बिजली दौड़ा दी थी कि सब ओर रोशनी छिटकने लगी थी।´"
जयप्रकाश नारायण ने महात्मा गांधी की संवाद स्थापित करने की केवल एक तरकीब पटना की सडकों पर मार्च १९७५ की उस शाम प्रयोग किया था और हमारे साहित्य की एक आला और नफीस आवाज़ ने बात को समझा दिया था . जब फणीश्वर नाथ ' रेणु ' ने कहा कि," प्रशांतजी, ऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! " तो वे गांधी की संवाद शैली की ही बात कर रहे थे . यही सन्नाटा , चौरी चौरा के बाद भी महसूस किया गया था ,यही सन्नाटा दांडी गाँव में जब एक मुट्ठी नमक उठाया गया था, तब भी था और यही सन्नाटा जब १९४२ में जब आगा खान पैलेस में इस पृथ्वी के सबसे बड़े मर्दे-मोमिन ने अपने साथी और सचिव महादेवभाई देसाई की अंत्येष्टि की थी तब भी था . ९ अगस्त १९४२ को महात्मा गांधी और अन्य स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी गिरफ्तार हुए थे , महादेवभाई देसाई और कस्तूरबा गांधी को महात्मा गांधी के साथ पुणे के आगा खान पैलेस में रखा गया था . हफ्ते भर बाद ही महादेवभाई देसाई की मृत्यु हो गयी थी . महात्मा गांधी ने उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया , चारों तरफ सन्नाटा था लेकिन मुझे लगता है कि वहीं तय हो गया था कि गांधी ने पूरे देश को सन्देश दे दिया था कि अँगरेज़ को अब जाना ही पडेगा .
महात्मा गांधी ने अपनी बात हमेशा बिना किसी बाजे गाजे के , बिना किसी भाषाई श्रृंगार के कही . साधारण भाषा में जो भी उन्होंने कहा .उसका वही असर हुआ जो वे चाहते थे .स्व हरिदेव शर्मा ने तीन मूर्ति पुस्तकालय में अपने पास आने वाले लोगों को बार बार यह बात बताई थी कि महात्मा गांधी की बातें साधारण से साधारण भाषा में कही जाती थी लेकिन उनका भावार्थ उस तक बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से पंहुचता था जिसको लक्ष्य करके वह बात कही गयी थी . उन्होंने ही बताया था कि जलियांवाला बाग़ के नरसंहार की जांच करने के लिए कांग्रेस ने एक कमेटी गठित की थी. उस कमेटी के सेक्रेटरी गांधी जी थे. वहां से आकर जो रिपोर्ट उन्होंने लिखी वह ब्रितानी संसद और समाज तक पंहुची ,उसके आधार पर लन्दन के अखबारों में ख़बरें लिखी गयीं और जनरल डायर जैसे आततायी की सारी पोल खुल गयी . मुराद यह कि महात्मा गांधी जब जो कहना चाहते थे उसको उसी तरीके से कहते थे और उसका असर बहुत ही सटीक होता था.
फणीश्वर नाथ 'रेणु' ने जिसको निनाद करता सन्नाटा नाम दिया था ,वह वास्तव में गांधी के सत्याग्रह का स्थाई और संचारी भाव , दोनों ही था. इस निनाद करते सन्नाटे को जहां भी आततायी और अहंकारी सत्ता के मुकाबिल संघर्ष करना पड़ा ,वहां इस्तेमाल किया गया है . दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला का उदाहरण दुनिया के सामने है . लेकिन अमरीका में जो रंगभेद के खिलाफ संघर्ष हुआ उसमें भी गांधी के संवाद स्थापित करने के तरीकों का बार बार बार इस्तेमाल हुआ है . गांधी के जाने के करीब पन्द्रह साल बाद अमरीका में भी प्रयोग में लाया गया . अमरीका में रंगभेद के खिलाफ बहुत समय से आन्दोलन चलता रहा था . लेकिन पचास और साठ के दशक में रेस्तराओं, बसों और शिक्षा संस्थाओं में गैरबराबरी के खिलाफ ज़बरदस्त आन्दोलन चला . कई बार आन्दोलन हिंसक हो जाता था और क्लू,क्लाक्स, क्लान नाम के दक्षिणपंथी श्वेतों के संगठन के गुंडे ,बदमाशी करते थे . जवाब में अफ्रीकी-अमरीकी भी हिंसक हो जाते थे . नतीजा यह होता था कि आन्दोलन को हिंसा के नाम पर तोड़ दिया जाता था . साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में यह आन्दोलन अपने निर्णायक दौर में पंहुच गया . अमरीका के दक्षिणी राज्य ,टेनेसी की राजधानी नैशविल का वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय श्वेत अहंकार का केंद्र हुआ करता था. उसमें काले लोगों को प्रवेश तक नहीं किया जाता था . सरकारी हस्तक्षेप के कारण कुछ छात्रों का प्रवेश होता था लेकिन उनको बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था .. उसी विश्वविद्यालय में अफ्रीकी मूल के अमरीकी छात्रों ने रंगभेद के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की . नैशविल शहर में ही फिस्क विश्वविद्यालय है जहां केवल काले लोग पढ़ते थे . इन दोनों विश्वविद्यालय के छात्रों के आन्दोलन चल रहे थे लेकिन सरकार में श्वेत प्रभुता के चलते इनको हिंसक करार देकर सरकारी कार्रवाई का शिकार बना दिया जाता था . इस बीच नागपुर से मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों का अध्ययन करके वापस अमरीका गए जेम्स मोरिस लॉसन जूनियर ने आन्दोलन को पूरी तरह से गांधी के विचारों में रंग दिया . वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के सिलसिले में भारत आये थे लेकिन जब लौटकर गए तो पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की ताक़त के जानकार बनकर लौटे थे . नैशविल जाकर उन्होंने वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय के डिविनिटी स्कूल में दाखिला ले लिया था और धार्मिक शिक्षा में शोध कार्य कर रहे थे यहां उन्होंने सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कांफ्रेंस के माध्यम से अहिंसक आन्दोलन की शिक्षा देना शुरू किया .यहाँ उन्होंने छात्रों के आदोलन के नेताओं डियान नैश, जेम्स बेवेल, बर्नार्ड लाफायेट, मैरियन बैरी और जॉन लेविस को बाकायदा अहिंसक आदोलन चलाने के गांधीवादी तरीकों की शिक्षा दी . इन्हीं छात्र छात्राओं ने १९५९ और ६० में नैशविल की दुकानों में नैशविल सिट-इन का आन्दोलन चलाया . इस बीच जेम्स लासन को वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया . इन्हीं छात्र नेताओं ने संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण में चले फ्रीडम राइड, मिसीसिपी फ्रीडम समर,१९६३ के बर्मिंघम चिल्ड्रेन्स क्रुसेड , १९६३ के सेल्मा वोटिंग राइट्स आन्दोलन, १९६६ के वियतनाम युद्ध विरोधी आन्दोलन आदि का नेतृत्व किया . इन छात्रों के नेतृत्व में हुए बहुत ही महत्वपूर्ण आन्दोलनों में एक १९६३ का वाशिंगटन मार्च का आन्दोलन है. इसी आन्दोलन में इन छात्रों ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर को आमंत्रित किया था उसके बाद वे आन्दोलन का सहयोग करते रहे . जेम्स लासन ने ही कमिटी ऑफ़ मूव टू इक्वलिटी की स्थापना की और इसी कमिटी के तहत हुए कार्यक्रम में मार्टिन लूथर किंग ने अपना आखिरी भाषण ,माउन्टेनटॉप स्पीच दिया था . मुराद यह है कि अमरीका में गैरबराबरी का जो संघर्ष पचास और साठ के दशक में हुआ उसमें पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की धमक देखी जा सकती है . इतने बड़े आन्दोलन के बारे में दुनिया भर में जानकारी एक पत्रकार ने पंहुचायी . डेविड हल्बर्ट्सम नाम के इस पत्रकार ने हारवर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ दिन किसी अखबार में काम किया लेकिन बाद में उन्होंने नैशविल टेनेसियन नाम के अख़बार में रिपोर्टर का काम शुरू कर दिया . नैशविल में सिट-इन का आन्दोलन शुरू हो चुका था . जेम्स लासन जूनियर के चेलों के साथ रहते हुए उन्होंने ख़बरें लिखना शुरू किया . वे वहीं अपनी खबरों के निर्माताओं के बीच में रहते थे और सौ फीसदी सच्ची ख़बरें दुनिया तक पंहुच रही थी. वहां के छात्र नेता धीरे धीरे बड़े होते गए , वाशिंगटन की राजनीति में सक्रिय होते गए , कुछ लोग तो सेनेट और अमरीकी कांग्रेस के सदस्य भी हुए लेकिन उनके बीच रहकर जो ख़बरें लिखी गयीं वे भावी इतिहास की गवाह बनने वाली थीं. बाद में अपनी उन्हीं रिपोर्टों के आधार पर डेविड हल्बर्ट्सम ने एक उपन्यास भी लिखा जो उनकी ख़बरों को अमर करने की क्षमता रखता है .' चिल्ड्रेन ' नाम का यह उपन्यास आज भी अमरीकी उपन्यासों में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . यह एक उदाहरण है कि संवाद की स्थिति बनाये रखने से पत्रकारिता अमर होने की क्षमता रखती है .
अपने देश में भी आज़ादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद के वर्षों में पत्रकारिता में संवाद की स्थिति शास्वत बनी रही . बहुत सी ऐसी रिपोर्टें हैं जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को बदल कर रख दिया . ऐसी ही एक रिपोर्ट असम के नेल्ली के नरसंहार की है .इंडियन एक्सप्रेस के एक रिपोर्टर शेखर गुप्ता और हेमेन्द्र नारायण की उस रिपोर्ट ने असम में घुसपैठियों के खिलाफ चल रहे असम के छात्रों के आन्दोलन को देश की राजनीति के केंद्र में ला दिया था . कहते हैं कि असम समझौते के करीब दो साल पहले आई इस अखबारी रिपोर्ट ने पूर्वोत्तर भारत की राजनीति को एक नई दिशा दी थी. भागलपुर में लोगों को अंधा किये जाने वाली रिपोर्ट भी पत्रकारिता के एक मानदंड के रूप में देखी जाती है . महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री , अब्दुल रहमान अंतुले की इंदिरा प्रतिभा प्रतिष्ठान की रिपोर्ट , बिहार आन्दोलन की १९७४ की दिनमान में छपने वाली रिपोर्टें, हिन्दू अखबार में छपी बोफर्स की ख़बरें सही और ऐतिहासिक ख़बरों की श्रेणी में आती हैं . आज़ादी के बाद से अब तक ऐसी हजारों ख़बरें हैं जो डूबकर लिखी गयी हैं और रिपोर्टर और उसके विषय के बीच संवाद की स्थिति का नतीजा हैं .लेकिन इन दिनों अजीब स्थिति है . पत्रकारिता एकतरफा दिशा में बह रही है . चुनावों के दौरान देश में राजनीतिक गतिविधियाँ सबसे ज्यादा होती हैं लेकिन चौबीस घंटे की टेलिविज़न खबरों के दौर में हालांकि समाचार तो हमेशा आते रहते हैं लेकिन अधिकतर समाचार एकतरफा होते हैं. ज़मीन की सच्चाई की खबर आमजन तक पंहुचती ही नहीं है . इसके कारणों पर गौर करना पडेगा. पहले के चुनावों में ज़मीन से रिपोर्टिंग खूब होती थी . हर क्षेत्र में अखबारों के संवाददाता होते थे . उनका आम आदमी से लगातार संवाद बना रहता था . देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में होने वाली सभी गतिविधियों पर मुकामी स्तर पर चर्चा होती थी और सच्ची ख़बरें अखबार तक पंहुचती थीं लेकिन अब वैसा नहीं है . अब टेलिविज़न चैनल के मुख्यालय से कुछ स्टार पत्रकार हर महत्वपूर्ण केंद्र पर जाते हैं , वहां सेट लगाए जाते हैं . कुछ लोगों को श्रोता के रूप में बुला लिया जाता है . और दिल्ली से गए पत्रकार या एंकर अपना ज्ञान सुनाते हैं. जनता की आवाज़ के नाम पर आस पास की बाज़ारों आदि में घूम घाम रहे कुछ लोगों की बाईट रिकार्ड कर ली जाती है और उसी के आधार पर देश दुनिया की जानकारी परोस दी जाती है . यह उचित नहीं है और पत्रकारिता के नीतिशास्त्र के हिसाब से अक्षम्य है .सामाजिक स्तर पर भी संवादहीनता आज की पत्रकारिता का स्थाई भाव होता जा रहा है .बंधुआ मजदूरी आदि के बारे में जानकारी उस समय के पत्रकारों के कारण ही सामने आई थीं. महिलाओं का शोषण, बच्चों की शोषण की ख़बरें भी आजकल चुन कर लिखी जा रही हैं . यह इसलिए है कि खबरों के काम में लगे लोग संवादहीनता की स्थिति के शिकार हो चुके हैं और एकतरफा मनमानी की शैली में ख़बरों का निर्माण कर रहे हैं . ख़बरों के निर्माण करने की इस आदत से बचना होगा . इस देश की आज़ादी के साथ साथ बहुत सारे सामाजिक परिवर्तनों के पुरोधा महात्मा गांधी के जीवन को आदर्श मानने से बात बन सकती है क्योंकि गांधी ने बार बार कहा था कि ." मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है ". महात्मा गांधी जीवन भर आम आदमी से संवाद की स्थिति में बने रहे . शायद इसीलिये जब दिल्ली में देश आज़ाद हो रहा था, अंगेजों का यूनियन जैक उतर कर तिरंगा स्थापित हो रहा था तो महात्मा गांधी बंगाल के उन गाँवों में मौजूद थे जहां आजादी के बाद का खूनी इतिहास लिखा जा रहा था . उन लोगों से उन्होंने संवाद बनाए रखा था . और जब अंग्रेजों ने भारतीयों को सत्ता सौंप पर अपना रास्ता पकड़ा तो दिल्ली में अपने प्रार्थना प्रवचनों के माध्यम से गांधी जी संवाद की स्थिति को बनाए रखा .
संवादहीनता आज की पत्रकारिता निश्चित रूप से मौजूद है .उसको समाप्त करके एकतरफा संवाद की बीमारी से बचना पड़ेगा . और हर स्तर पर संवाद का माहौल बनाना पड़ेगा . उसको समाप्त करके अगर शास्वत संवाद की स्थिति बनाने के लिए प्रयास किया जाए तो महात्मा गांधी के जन्म १५० वर्ष पूरे होने पर उनके प्रति पत्रकारिता जगत की सबसे महत्वपूर्ण श्रद्धांजलि होगी .
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