Friday, July 6, 2018

न्यूनतम समर्थन मूल्य को आंकड़ों की बाजीगरी नहीं बनाना चाहिए

  

 शेष नारायण सिंह 

खरीफ फसल के  लिए सरकारी खरीद का दाम तय कर दिया गया है . गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने प्रेस कान्फरेंस में बाकायदा  मंत्रिमंडल के फैसलों का ऐलान किया . देश  भर में  किसानों के आन्दोलन  चल रहे हैं लेकिन मीडिया में वह मुकाम नहीं पा रहे हैं जो उनको मिलना चाहिए और इसीलिए बाकी दुनिया  को अंदाज़ा नहीं है कि किसानों में भारी हाहाकार है. लेकिन सरकार को मालूम है कि देश का  किसान बहुत नाराज़ है . खरीफ की फसलों की सरकारी  खरीद के मूल्यों में जिस तरह से वृद्धि की गयी है उसको देखकर लगता है कि सरकार में सर्वोच्च स्तर पर भी इस बात की चिंता है और चुनावी साल में किसान की नाराजगी का   पाथेय लेकर बीजेपी चुनावी मैदान में नहीं जाना चाहेगी . इसलिए घोषित सरकारी मूल्यों का राजनीतिक कारण सबसे अहम है . बीजेपी ने अपने 2014 के चुनावी घोषणापत्र में यह वायदा किया था कि अगर बीजेपी की सरकार बनी तो वह स्वामीनाथन आयोग की उस सिफारिश को लागू करेगीजिसमें  कहा  गया है कि किसानों को सी-2  लागत के ऊपर 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए . फसल पर हुए खर्च के मद की लागत को जोड़कर जो कीमत आती है उसको सी-२ कहा जाता है . सरकार ने चार साल तक इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया . बल्कि इस  बीच किसानों की क़र्ज़ माफी आदि के मुद्दों पर हास्यास्पद तरह  के तर्क दिए जाते रहे . लेकिन अब सरकार की समझ में आ गया  है कि चुनावी साल में  नाराज़ किसान बहुत कुछ  नुक्सान कर सकता है .

अब  तक सरकारें  जो घोषणा करती रहीं हैं  उसको देखा जाय तो लगता है कि सी-लागत के ऊपर 10-12 प्रतिशत जोड़कर ही न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया  जाता रहा है . स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट इस  मामले में बहुत ही महत्वपूर्ण संगमील  मानी जाती थी . २०१४ में  बीजेपी का घोषणा पत्र बनाने वालों ने इस  अवसर को भांपा और उसको अपने चुनावी वायदों में शामिल  कर दिया .  सबको मालूम है कि मोदी सरकार बनवाने में  देश भर  के किसानों का बड़ा योगदान है लेकिन सरकार में आने के बाद  स्वाभाविक दबावों के चलते सरकार ने अपने इस वायदे को पूरी तरह से भुला दिया . इस साल की  शुरुआत से ही साफ़ नज़र आ रहा है कि सरकार के खिलाफ मैदान ले चुका है  तो यह घोषणा की गयी है . हमको मालूम है कि अब चुनाव तक सरकार और बीजेपी के प्रवक्ता सरकारी खरीद के दाम को मुद्दा बनाने  की  कोशिश करेंगे लेकिन कुछ  ऐसी बातें हैं जिनको वे ढांकतोप  कर बात करना चाहेंगे. मसलन वे इस बात को पब्लिक डोमेन में नहीं आने देंगे कि इस सरकार ने  स्वामीनाथन कमीशन में बताये गई सी-२ की  परिभाषा ही बदल दी है .एक बात और सच है कि इस बार का घोषित मूल्य नई परिभाषा के हिसाब से भी खरा नहीं उतरता है .

  पिछले चार वर्षों में  सरकार ने हर  साल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है. समर्थन मूल्य का उद्देश्य यह माना जाता है कि अगर बाजार में सरकारी कीमत के नीचे किसी अनाज की कीमत जाती हैतो सरकार  एम एस पी के आधार पर किसानों  से अनाज खरीदेगी। आम तौर पर उम्मीद की जाती है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत मिलती रहेगी लेकिन पिछले चार वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब गेहूं और धान को छोड़कर किसी भी उत्पादन का बाज़ार भाव एम एस पी के बराबर भी पंहुचा हो . .एम एस पी की अवधारणा ही यही  है कि किसान की फसल की  कीमत एक मुकाम के नीचे न जाने पाए . लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में अब तक तो ऐसा हुआ नहीं है . ज़ाहिर है नया घोषित हुआ यह समर्थन मूल्य भी किसान का बहुत हित  करने वाला नहीं  है. किसान अपनी  पैदावार को  होल्ड नहीं कर सकता , उसको फसल तैयार होने के बाद बेचना ज़रूरी  हो जाता  है .इसका मुख्य कारण तो यही है कि उसकी पास इतना धन नहीं होता कि वह बाज़ार भाव के अच्छे होने का इंतज़ार करे और अपनी ही फसल को बहुत दिन तक रखा नहीं जा सकता, उसपर कानूनी कार्रवाई का खतरा रहता है .इसलिए जब देरी या धांधली  होने लगती है तो वह औने पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाता  है. किसान की इस कमजोरी का फायदा वे लोग उठाते हैं जो खाद्य सामग्री के वायदा कारोबार में बड़ी रक़म बना रहे होते हैं . नतीजा यह होता है कि किसान को जिस चीज़ की कीमत एक रूपये मिल रही होती है ,वही जब  शहरी मध्यवर्ग के पास पंहुचती है तो वह करीब एक सौ रूपये की हो चुकी होती  है . इस प्रकार से राजनीतिक पार्टियों के समर्थकों  के दो बड़े समूह  बिचौलियों के शिकार हो चुके होते हैं . एक तो किसान जिसकी आबादी सबसे ज्यादा  है और दूसरा शहरी मध्यवर्ग जिसकी भी आबादी  दूसरे नंबर पर है. सरकार को इस  हालत को सुधारने के लिए मौलिक और बुनियादी क़दम उठाना चाहिए लेकिन कोई भी सरकार ऐसा  करती नहीं है .  

नई एम एस पी घोषित होने के साथ साथ यह प्रचार शुरू हो गया है कि सरकार ने अपना एक महत्वपूर्ण वायदा पूरा कर दिया है लेकिन  लगता  है कि यह सब एक योजना के तहत किया जा रहा  है जिससे किसान को सही  बात का पता ही न लग पाये. न्यूनतम समर्थन मूल्य के दर्शनशास्त्र का आधार  यह  था कि किसान को यह गारंटी दी जा सके कि उसकी फसल की एक कीमत सरकार की तरफ से तय जिसके ऊपर के दाम पर वह बाज़ार में अपना माल बेच सकता है आम तौर पर एम एस पी के ऊपर उसको करीब बीस प्रतिशत ज्यादा कीमत बाज़ार से मिल सकती था. पहले ऐसा होता भी था लेकिन अब नहीं हो रहा  है. मनमोहन सिंह ने  वित्त मंत्री के रूप  में जिस उदारीकरण और   भूमंडलीकरण का आगाज़ किया था उसका सबसे ज्यादा नुक्सान किसान को ही हो रहा   है. तथाकथित सुधारों के नाम पर  उद्योगपति, शेयर बाज़ार वाले, अंतरराष्ट्रीय  ठग आदि तो मौज कर रहे   हैं , बैंकों का धन लूटने वाले लोगों को संभालने के लिए सरकार एक लाख करोड़ से ज्यादा के एन पी ए यानी बेकार हो चुके बैंकों के क़र्ज़ को माफ़ कर रही है लेकिन किसान सरकार की  प्राथमिकता नहीं हैं . उदारीकरण और वैश्वीकरण के तमाम सुधारों के नाम पर किसानों को बाकी दुनिया के किसानों के साथ मुकाबला करने के  लिए छोड़ दिया गया है , किसानों के उत्पादन के मुकाबले अमरीका आदि से अनाज का आयात कर लिया जाता है और  किसान बाज़ार से खुद ही लड़ने के लिए अभिशप्त है. देश के अन्दर भी  किसान के ऊपर  प्रतिबंध लगे हुए हैं। वे एक राज्य से दूसरे राज्य तक  अनाज नहीं ले जा सकतेतय मात्रा से अधिक जमा नहीं कर सकतेयहाँ तक कि निर्यात भी नहीं कर सकते। इसलिए एम  एस पी की घोषणा मात्र कर लेने से सरकार के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती .देश की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए ज़रूरी है कि  सरकार अपने आपको किसानों की सही हित रक्षक  रूप  में प्रस्तुत करे , केवल मतदाता के रूप में ही नहीं .

इस सन्दर्भ में  मीडिया की ज़िम्मेदारी का उल्लेख करना भी ज़रूरी है . देखा गया है कि  लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया जाता  जो सरकारी तौर पर बताया जाता है .सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी जाती हैं. यह सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है। यह सच है कि किसान किस  तरह से अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को जीता है , किस तरह से वह ज़मीन छोड़कर शहर भाग जाने के लिए तडपता है , देश के गाँवों में कम खेत वाले या भूमिहीन खेतिहर मजदूर पर क्या  गुजरती  है , किस तरह से वह भूख और अकाल का शिकार होता है.  भूख के तरह-तरह के रूप देश के सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जाते हैं  लेकिन वे खबर नहीं बन पाते . खबर तब  बनती है  जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जाता है ,या कोई अपने बच्चे बेच देता है या  खुद को गिरवी रख देता है . भूख से मरना बहुत बड़ी बात हैदुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैंभूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है .कहीं भी नहीं लिखा जाता कि किसानी का एक ज़रूरी हिस्सा  यह भी है कि साल दर साल  फसल चौपट हो जाती  है . फसल  बर्बाद हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच  करता  है  क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। गांव का गरीबसरकारी लापरवाही के चलते और मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थीवह लगभग आदिम काल की थी। उसको दुरुस्त करने के लिए लाल बहादुर   शास्त्री ने  हरित क्रान्ति की पहल की थी लेकिन उसके बाद  किसी सरकार ने अब अब तक कोई  पहल नहीं की है .
इसलिए मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि सच्चाई को देश और समाज के सामने लाये, मीडिया का फ़र्ज़ है कि इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत को समझे कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करेंइसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता हैतभी इस देश का नेता और पत्रकार जागता है। गांव का किसानजिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती हैवह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। इसलिए किसान की समस्या को लगातार केंद्र में रखना सरकार का भी ज़िम्मा है और मीडिया का भी . दोनों को ही अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए .

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