शेष नारायण सिंह
मध्य प्रदेश के मंदसौर में एक छोटी लडकी के साथ बलाकार हुआ है . बलात्कार के आरोप में जिसको गिरफ्तार किया गया है ,वह मुसलमान है .उसके बाद धार्मिक आधार पर देश को बांटने की कोशिश कर रही जमातें बहुत ही सक्रिय हो गयी हैं . बात को इस तरह से पेश किया जा रहा है ,गोया देश का हर मुसलमान इस बलात्कार के लिए ज़िम्मेदार है. मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है . मंदसौर के बलात्कार की तुलना कठुआ की वारदात से की जा रही है जहां एक मुसलिम बच्ची से बलात्कार हुआ था. उस केस में बलात्कारी हिन्दू था. हम इन दोनों ही आपराधों में बलात्कारियों की निंदा करते हैं . लेकिन तकलीफ तब होती है जब एक अपराधी के काम के लिए पूरे समाज को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है . कठुआ के मामले में बलात्कारी हिन्दू था . देश भर में हिन्दुओं ने उस पर ग़म-ओ-गुस्से का इज़हार किया था ,उसकी निंदा की थी लेकिन बलाकारियों के कुछ खैरख्वाह उनके समर्थन में खड़े हो गए थे. हिन्दू एकता के नाम पर चंदा इकठ्ठा कर रहे थे . जब कि मंदसौर में मुसलमानों ने सड़क पर आकर बलात्कारी के खिलाफ जुलूस निकाला , उसको सज़ा-ए-मौत की मांग की और कोई भी मौलवी उस बलात्कारी के लिए नमाज़-ए-जनाजा पढवाने को तैयार नहीं है , उसको अपने कब्रिस्तान में दफ़न तक करने से मुसलमानों ने मना कर दिया है . पूरे समाज में उसके खिलाफ माहौल बन गया है . ऐसी हालत में मंदसौर और कठुआ की तुलना ठीक नहीं है .धार्मिक आधार पर बलात्कारी का साथ देना बहुत ही घटिया हरकत है और उसकी निंदा की जानी चाहिए .
टेलिविज़न पर मंदसौर के बलात्कार के हवाले से देश के सभी मुसलमानों को घेरने की कोशिश कर रहे सरकारी पार्टी के प्रवक्ताओं को वे बातें नहीं करनी चाहिए जिस तरह की बात वे कर रहे हैं . सरकार और बीजेपी की ज़िम्मेदारी है कि इन प्रवक्ताओं पर लगाम लगाए . धार्मिक आधार पर देश की आबादी को खेमों में बांटना सत्ताधारी पार्टी को भारी नुक्सान पंहुचा सकता है . जब भी धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी ने कोशिश की ,देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी लगता है कि उनकी कोशिश है झगडा झंझट का माहौल पैदा किया जाये . यह ठीक नहीं है . यह सच है कि आर एस एस का आज़ादी की लड़ाई और आज़ादी हासिल करने में कोई योगदान नहीं है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .देश में जो माहौल बनाया जा रहा है उसमें धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। देश के मौजूदा नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। आज के शासकों को यह ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस इस देश में इतने वर्षों तक राज इसलिए कर पाई कि उसने धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति की बुनियाद बना रखा था. 60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आई लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब को छपे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं . गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
इसलिए आज के सत्ताधीशों का यह फ़र्ज़ है कि वे अपने समर्थकों को आगाह कर दें कि सेकुलर शब्द को गाली के रूप में इस्तेमाल करने से बाज आयें क्योंकि कांग्रेस ने भी जब सेकुलरिज्म का दामन छोड़ा तो सत्ता हाथ से निकल गयी ,१९७७ में भी और १९८९ में भी . इस देश का सत्ताधीश सेकुलर ही रहेगा ,यह संविधान की भावना है . किसी बलात्कारी के जन्म के धर्म से देश को बांटना बहुत ही खतरनाक खेल है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। आज के शासकों को यह ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस इस देश में इतने वर्षों तक राज इसलिए कर पाई कि उसने धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति की बुनियाद बना रखा था. 60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आई लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब को छपे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं . गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
इसलिए आज के सत्ताधीशों का यह फ़र्ज़ है कि वे अपने समर्थकों को आगाह कर दें कि सेकुलर शब्द को गाली के रूप में इस्तेमाल करने से बाज आयें क्योंकि कांग्रेस ने भी जब सेकुलरिज्म का दामन छोड़ा तो सत्ता हाथ से निकल गयी ,१९७७ में भी और १९८९ में भी . इस देश का सत्ताधीश सेकुलर ही रहेगा ,यह संविधान की भावना है . किसी बलात्कारी के जन्म के धर्म से देश को बांटना बहुत ही खतरनाक खेल है .
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