Monday, July 16, 2018

अंतरराष्ट्रीय धरोहर ताजमहल की रक्षा हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है

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शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सरकार को एक बार फिर फटकार पड़ी है . आगरा के ताजमहल की ठीक से हिफाज़त न कर पाने के लिए सरकार की खिंचाई इस हद तक हो गयी कि माननीय अदालत ने कहा कि अगर सरकार इस विश्व प्रसिद्ध धरोहर को संभाल नहीं सकती  तो उसको ढहा ही दे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के रुख पर अपनी खीझ को ज़ाहिर करने के लिए यह टिप्पणी की है ,उसका संकेत किसी भी हालत में ताजमहल को ढहाने का नहीं है लेकिन देश के समझदार नागरिकों के बीच एक अजीब सी आशंका देखी जा सकती है . सोशल मीडिया पर यह चर्चा है कि जिस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार ताजमहल को पीछे धकेलने की कोशिश कर रही है ,कहीं  ऐसा न हो  कि  ताजमहल को ढहाना ही शुरू कर दे  और सत्ताधारी पार्टी अपने प्रवक्ताओं को यह निर्देश   दे दे कि देश को बता दो कि सुप्रीम कोर्ट की इच्छा का आदर करने के लिए यह काम किया जा रहा  है.अभी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल  रही  है और माननीय अदालत के रुख को देखकर साफ़ लगता है कि सुनवाई के अंत में कुछ सख्त आदेश आने की सम्भावना है . बुधवार की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ़  कहा  कि हमारे आदेश की अनदेखी करते हुए ताज ट्रेपेजियम ज़ोन  के अफसर अभी भी ताजमहल के आस पास  कारखानों का विस्तार करने की अनुमति दे रहे हैं . याचिका पर चर्चा के दौरान जब  यह बात सामने आई कि अफसर सुप्रीम को कोर्ट की अनदेखी करके माननीय आदलत को परेशान कर   रहे हैं  तो जज ने कहा कि अगर अफसर हमें परेशान करेंगे तो हम उनको भी वापस परेशान कर देंगे . अगली तारीख को ताज ट्रेपोज़ियम के अध्यक्ष को तलब भी कर लिया गया है .
कोर्ट ने ताजमहल की हर हाल में हिफाज़त करने की बात को एक से अधिक  बार कहा और यह भी जोर दिया कि यह दुनिया की सबसे खूबसूरत धरोहर है . जस्टिस लोकुर ने कहा कि फ़्रांस में एफिल टावर की देखभाल के लिए वहां की सरकार जो कोशिश कर रही  हैअपनी सरकार को उससे भी सबक लेना चाहिए . उन्होंने यह भी कहा कि ताज महल एफिल  टावर से  बहुत ही ज्यादा सुन्दर है लेकिन सरकार इतनी महान विरासत को संभाल  नहीं पा रही है . ताजमहल  की ख़ूबसूरती को संभाल पाने में नाकाम सरकारी विभागों की तरफ से तरह तरह के तर्क दिए  जाते  हैं . मई में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने कहा था कि लोग गंदे मोज़े पहनकर इमारत के अन्दर आ  जाते  है और उसके  कारण ताजमहल का रंग बदरंग हो रहा है . पुरातत्व के अफसरों ने यह भी कहा कि दर्शकों की संख्या बहुत ज़्यादा  है इसलिए भी  देखभाल नहीं हो पा रही है  . अदालत ने सरकारी वकील को याद दिलाया कि ताजमहल को देखने करीब पचास लाख लोग आते  हैं जबकि एफिल टावर को देखने उससे सोलह गुना ज़्यादा लोग देखने आते हैं . पेरिस की इस विरासत को देखने करीब आठ करोड़ लोग आते  हैं .  पुरातत्व  सर्वेक्षण के वकील ने कहा कि इतने लोग आते  हैं कि सबको टेम्परेरी मोज़े देना संभव नहीं होता और बहुत सारे लोग अपने मोज़े ही पहनकर चले जाते हैं . कोर्ट ने सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाया और कहा  कि  इस्तेमाल कर के फेंक देने  लायक मोजों की बात करके सरकार अपनी स्थिति को कमज़ोर कर रही है . सरकार ताजमहल के बगल में बहने वाली यमुना नदी के सरंक्षण के  लिए भी कुछ नहीं कर रही है जिसके कारण नदी भी रही है . ज़मीन के माफिया सक्रिय हैं और ताजमहल के पास अनाप शनाप इमारते बन रही  हैं .
ताजमहल के सौंदर्य को सबसे ज़्यादा नुकसान मथुरा की  रिफाइनरी से  हो रहा है . आज के चालीस साल पहले भी लोगों को यह मालूम था कि मथुरा रिफाइनरी ताजमहल को भारी नुक्सान पंहुचा रही  है. भारत की लोकसभा में १९७८ में इस विषय पर चर्चा हुयी थी  और  संसद सदस्यों ने चिंता भी जताई थी. जनता पार्टी की सरकार थी और तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री स्व हेमवती नंदन बहुगुणा ने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से लोकसभा के अपने भाषण  में कहा  था कि सरकार की सूचना है कि मथुरा रिफाइनरी से ताजमहल को कोई नुक्सान नहीं हो रहा है लेकिन  अगर सरकार की जानकारी में आया कि रिफाइनरी की वजह से ताजमहल को कोई भी  नुक्सान हो रहा है तो मथुरा  मथुरा रिफाइनरी को वहां से हटा दिया जाएगा . संसद के बाहर जब उस दौर के पत्रकारों ने उनसे पूछा कि रिफाइनरी   हटाने की घोषणा अपने बिना किसी विचार विमर्श के ही  क्यों कर दी तो बहुगुणा जी ने जवाब दिया कि  अभी तो वैसी नौबत आने वाली नहीं है .जब होगा तब देखा जाएगा . अगर ताजमहल के इतिहास पर गौर करें तो उसके प्रति  अलगर्ज़ रवैया हमेशा से ही रहा है. कई बार तो सरकारों ने ताजमहल को तबाह कर देने की  बात को भी हवा में उछालने का काम किया है . १८३० में तत्कालीन गवर्नर जनरल ,लार्ड विलियम बेंटिक ने ताजमहल को तुड़वाकर उसके  संगमरमर को बेचने की योजना बना दी थी लेकिन लोगों के समझाने से रुक गया लेकिन कैम्पस में रखे हुए संगमरमर के बहुत बड़े भंडार को बेच ही खाया . उसका तर्क यह था कि   सरकार की हालत ठीक नहीं है तो पत्थर को बेच कर कुछ रकम तैयार कर ली जायेगी . १८५७ की आजादी की लड़ाई के दौरान भी अंग्रेज़ी सेना ने इस इमारत का बहुत नुकसान किया था .लेकिन बाद में इसको संभालने का प्रयास सरकार के स्तर पर होता रहा है .  दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यह ख़तरा पैदा हो गया था कि  कहीं जापानी वायुसेना के बमवर्षक विमान इस पर बमबारी न कर दें . सरकार ने ताजमहल को  ऐसी स्केफोल्डिंग से घेर दिया था जो बिल्डिंग बनाते समय इस्तेमाल की जाती है .. १९६५ और १९७१ की पाकिस्तानी लड़ाई के दौरान भी यही तरीका अपनाकर  एहतियात  बरती गयी थी .
हिंदूवादी संगठनों ने भी ताजमहल पर मालिकाना हक  जताने के दावे  बार बार किये हैं .पुरुषोत्तम नागेश ओक  जैसे इतिहासहासकार भी ताजमहल को हिन्दू इमारत   बताते रहे  हैं लेकिन इन लोगों को कोई गंभीरता से   नहीं लेता था . ओक साहब ने तो सुप्रीम कोर्ट में एक मुक़दमा भी दायर कर दिया था और माननीय अदालत से प्रार्थना की थी कि वह घोषित कर दे कि ताजमहल को एक हिन्दू राजा ने बनवाया था .लेकिन सन २००० में कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया . इसी तरह इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी एक श्रीमानजी मुकदमा  लेकर हाज़िर हुए थे . उन्होंने बाकायदा अर्जी थी कि किसी परमार देव नाम के हिन्दू राजा ने  मुहम्मद गोरी के भारत आने के पहले ही  ताजमहल को बनवा दिया था. २०१४ में केंद्र में हिन्दुत्ववादी विचारधारा को मानने वालों की सरकार बनने के बाद तो  अदालतों में   बहुत सारे लोगों ने ताजमहल को हिन्दू संपत्ति घोषित करवाने के लिए मुक़दमे दायर किये ,यह भी दावे किये गए कि किसी हिन्दू मंदिर को तोड़कर ताजमहल को बनाया  गया था लेकिन २०१७ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने स्पष्ट  कर दिया कि इस बात के कहीं कोई सबूत  नहीं हैं कि यह साबित किया जा सके कि ताजमहल की जगह पर कभी कोई मंदिर रहा होगा .
ताजमहल को नज़रंदाज़ करने का सरकारी सिलसिला जारी  है . उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्ववादी सरकार बन जाने के बाद मुख्यमंत्री महोदय के आदेश पर राज्य के पर्यटन विभाग का जो ब्रोशर बना ,उसमें ताजमहल  को कोई ख़ास महत्व नहीं दिया गया . सत्ताधारी पार्टी के कई नेता यह कहते पाए  जाते  हैं कि ताजमहल एक कब्र ही तो है उसको इतना  अधिक महत्व देने की क्या ज़रूरत है .  मुसीबतों की इस भंवर में फंसे ताजमहल के लिए सुप्रीम कोर्ट की  टिप्पणी एक बड़ी आशा की किरण है .आज  हालात यह हो गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट देश की सामूहिक बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा संरक्षक हो गया है . सरकारें अक्सर अपनी मर्जी को क़ानून के लबादे में लपेटकर  देश की अवाम पर थोपने की कोशिश करती  हैं. यह काम इमरजेंसी में इंदिरा-संजय के राज में शुरू हुआ था. उन दिनों सुप्रीम कोर्ट में भी मनमाफिक जज तैनात कर अपनी मर्जी को क़ानून बनाने की कोशिश की गयी थी लेकिन  जनता ने एकजुट होकर  इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर ब्रेक लगा दिया था. उसके बाद से कार्यकारिणी की मनमानी का सिलसिला जारी है . लोकशाही के अन्य  स्तम्भ लगभग प्रभावहीन हो चुके हैं . स्थानीय न्यायपालिका  भी मुकामी कार्यकारिणी की इच्छा की वाहक  ही नज़र आने लगी है ,इन  विकट परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट से हमारी लोकशाही को बहुत उम्मीदें हैं , और हमारी भावी पीढ़ियों को भी बहुत उम्मीदें हैं . इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी ऐतिहासिक धरोहरों और विरासत से छेड़छाड़ करने वालों को सुप्रीम कोर्ट क़ानून  और संविधान का सम्मान करने के लिए उत्साहित करती रहेगी और ऐसा कोई  रास्ता नहीं छोड़ेगी कि लोग संविधान की सीमाओं का उन्ल्लंघन कर सकें.

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