शेष
नारायण सिंह
मेरे
मित्र राम दत्त त्रिपाठी की एक पोस्ट देख कर मेरे मन यह विचार आया कि गुटनिरपेक्ष
आन्दोलन के अध्ययन की अपनी समझ को शेयर करूं. दिल्ली में जब जनता पार्टी के राज
में निर्गुट सम्मेलन के विदेश मंत्रियों की बैठक हुयी थी तो मुझे उसमें पांच सौ
रूपये रोज़ पर काम करने का मौक़ा मिला था.लंच भी मिलता था. उन दिनों, हम लोग विदेश मंत्रालय के बिलकुल नए
भर्ती हुए अफसरों, श्यामला बालसुब्रमन्यम , तुहिन वर्मा आदि की टीम में थे. हमारी भूमिका सहायक की ही होती थी.जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इंटरनैशनल स्टडीज़ से कई लोग उस सम्मलेन में मेरी
तरह ही फुटकर काम कर रहे थे . इसके अलावा स्पैनिश, फ्रेंच, और अरबी भाषा केंद्र के
भी बहुत सारे लोग थे. उसी सम्मेलन के बाद मुझे निर्गुट सम्मलेन के बारे में रूचि पैदा हुयी . पढता लिखता रहा जिसके चलते बाद में
भी बहुत समय तक सम्मेलनों में फुटकर काम मिलता रहा.
जवाहरलाल
नेहरू की दूरदृष्टि का नतीजा था कि एशिया और अफ्रीका के पिछड़े देशों का एक सम्मलेन 1955 में इंडोनेशिया
के नगर , बांडुंग में हुआ. बाद में यही संगठन निर्गुट आन्दोलन के रूप में विख्यात
हुआ. जब अमरीका और सोवियत रूस की चढ़ाचढ़ी में यह ख़तरा पैदा हो गया था कि दुनिया के
बाकी देश दो बड़े देशों की आपसी लड़ाई में किसी न किसी खेमे में शामिल हो जायेंगें तो अपने स्वतंत्र अस्तित्व की
सुरक्षा के लिए यह सम्मलेन बुलाया गया था
. इसमें जो देश शामिल हुए थे ,आज वे बिखर गए हैं . विश्व शांति के लिए आज उनकी
एकता बहुत ज़रूरी है . अगर बांडुंग सम्मलेन
में शामिल देश यह तय कर लीं कि उन्हें एक रहना है, एक साथ रहना है तो इस इलाके से अमरीकी दादागीरी हमेशा के लिए ख़त्म हो
जायेगी. बांडुंग सम्मलेन में शामिल देशों और घोषणापत्र पर दस्तखत करने वालों के
नाम देखें . , भारत, इंडोनेशिया, ईरान, इराक, जापान, चीन, अफगानिस्तान, कम्बोडिया
,श्रीलंका, साइप्रस, मिस्र , इथियोपिया
,गोल्ड कोस्ट ,जार्डन, लाओस, लेबनान ,लाइबेरिया,लीबिया ,नेपाल, पाकिस्तान, साउदी अरब, सीरिया , सूडान, ,थाईलैंड ,तुर्की,
वियतनाम, और यमन .
आज
दुनिया भर में जो भी अशांति है उनमें इस सम्मलेन में शामिल देश झोंक दिए गए हैं , इनमें से
कई तो आपस में लड़ रहे हैं और
अमरीकी और रूसी हथियारों के खरीदार हैं .अपने निजी स्वार्थ के लिए हथियारों
के सौदागरों ने इस क्षेत्र में दुश्मनी के
बीज बो दिया है . आज इसी इलाके में अमरीका
और रूस अपने कारखानों के हथियारों के ग्राहक तलाशते हैं और उनकी ही प्रेरणा से
ग्राहक तय करने की लडाइयां लड़ी जा रही हैं . आज अगर पाकिस्तान , अफगानिस्तान, सीरिया, इरान, इराक़,
सीरिया,में शान्ति हो जाय तो हथियारों पर
खर्च हो रहा धन विकास में लगेगा . नेहरू
की महानता यह है कि १९५४ में ही उन्होंने यह सपना देख लिया था . उसी समय उन्होंने
चीन से दोस्ती का हाथ भी बढ़ा दिया था .वह
दोस्ती भी इसलिए टूटी कि अमरीका ने दलाई लामा को भारत में शरण लेने के लिए उकसाया
और आज हम चीन के दुश्मन हैं . कल्पना
कीजिये कि अगर आज नेहरू के सपनों और उनकी
विदेश नीति के मन्त्रों को एशिया और अफ्रीका के नेताओं द्वारा माना गया
होता तो दुनिया में कितना अमन चैन होता.
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