Thursday, July 26, 2018

मोदी को घटिया साबित करने के चक्कर में करन थापर ने पत्रकारिता का नुकसान किया .




शेष नारायण सिंह
शैतान के वकील नाम का टीवी प्रोग्राम चलाने वाले विख्यात पत्रकार करन थापर की किताब आई है . नाम है  Devil’s Advocate जिसका हिंदी अनुवाद है , ‘ शैतान के वकील ‘. करन थापर ने इस किताब में अपनी बहुत सारी यादें का उल्लेख किया है . उन्होंने दावा किया है कि वे किस तरह से कैम्ब्रिज यूनियन के अध्यक्ष बने , किस तरह से बेनजीर भुट्टो से दोस्ती की और किस तरह से लंदन के विख्यात अखबार .टाइम्स में उनको नौकरी मिली. लन्दन में रहते हुए अपने टेलिविज़न पत्रकार के रूप में उपलब्धियों का भी ज़िक्र किया है . तत्कालीन प्रधानमंत्री ,राजीव गांधी से अपनी दोस्ती का भी विस्तृत वर्णन किया है और यह भी बताया है कि कैसे राजीव गांधी ने हिंदुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया से बात करके उनकी नौकरी लगवाई थी और  उन्होंने उनको वीडियो मैगजीन कार्यक्रम , आईविटनेस शुरू किए था .
 इसी किताब  का एक अंश आजकल चर्चा में  हैं जिसमें करन थापर ने अपने उस इंटरव्यू का ज़िक्र किया है जो उन्होंने २००७ में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ किया था . करीब तीन मिनट का वह  इंटरव्यू  उन दिनों बार बार दिखाया गया था .  जितनी बातचीत दिखाई गयी थी ,उससे  साफ़ लगा रहा था कि कोई थानेदार किसी अभियुक्त से पूछताछ कर रहा था.पत्रकारिता के कई बड़े विद्वानों ने उस वक़्त भी कहा था कि करन थापर का  अहंकार उस इंटरव्यू का स्थाई भाव था. दूसरी बात यह थी कि इंटरव्यूकर्ता यह भूल गए कि जब भी हम किसी  का इंटरव्यू करते हैं तो सवाल पूछना पत्रकार का विशेषाधिकार होता  है लेकिन जवाब देना हमेशा उस व्यक्ति का अधिकार है जिससे बातचीत की जा  रही है . किसी भी सवाल का जवाब न  देनेया उस पर चुप हो जाने या उस सवाल का अपनी समझ के अनुसार जवाब  देना उसका अधिकार होता है. जब यह  इंटरव्यू हुआ था तो मैं पत्रकारिता के एक संस्थान में ब्राडकास्ट जर्नलिज्म का शिक्षक था. उस इंटरव्यू के बारे में मैंने बहसें की थीं और जितने भी वरिष्ठ लोगों से मैंने बात की सबने यही कहा कि वह पत्रकारिता के  पैमाने पर खरा  नहीं उतरता .यहाँ यह  ध्यान देना ज़रूरी है कि मैंने जिन  लोगों से बात की थी वे  सभी नरेंद्र मोदी के खिलाफ लिख रहे थे और  टीवी  में भी उनके कार्यों के बारे में आलोचनात्मक रुख रखते थे. मैं खुद  उन दिनों   छपता नहीं था क्योंकि मेरी नौकरी पढ़ाने की थी. इसलिए मैंने खुद कुछ नहीं लिखा था .
आज जब उस  इंटरव्यू और उससे जुडी हुई  घटनाओं के बारे में करन थापर की किताब के अंश  पढ़े तो मुझे लगता है कि यह आदमी  पत्रकारिता की बुनियादी बातों  को भी नहीं जानता या अगर जानता भी है तो उसका पालन नहीं किया .ऐसा लगता है कि इस कार्य से उन्होंने नरेंद्र मोदी को बहुत ही घटिया साबित करने की  कोशिश की  है लेकिन एक निष्पक्ष व्यक्ति को साफ़ समझ में  आ जाएगा कि नरेंद्र मोदी और चाहे जो भी हों ,करन थापर जैसे आदमी से तो बहुत ही बड़े हैं . २००७ के  खंडित इंटरव्यू के बाद भी  नरेंद्र मोदी ने इनको चाय पिलाईमिठाई खिलाईढोकला खिलाया और सम्मान पूर्वक विदा किया  जबकि कुछ ही मिनट पहले ,२००७ चुनाव के मध्य में थापर साहब ने उनकी छवि का भारी नुक्सान करने वाला  इंटरव्यू किया था. करन थापर ने यह सारी बातें अपनी किताब  “ शैतान के वकील “ में लिखी हैं .

इसी किताब में इन्होने नरेंद्र मोदी से अपनी दोस्ती का हवाला भी दिया है और उनसे २००० के आर एस एस के प्रमुख सुदर्शन से इंटरव्यू के लिए की जा रही अपनी तैयारी के समय नरेंद्र मोदी से मिली मदद का ज़िक्र किया  है  . नरेंद्र मोदी ने जो बातें उनको कान्फिडेंस में बतायी थींउन बातों का खुले आम इस्तेमाल किया गया है. पत्रकारिता के काम में सोर्स का बहुत महत्व होता  है . सोर्स और आफ द रिकार्ड की बात को सार्वजनिक करना बिलकुल अपराध है अपने सोर्स की निजता  और उसके भरोसे को कभी भी कम्प्रोमाइज नहीं किया जाता . यह अनैतिक है . अपनी किताब में इन्होने उन सारी बातों का उल्लेख किया है जो नरेंद्र मोदी ने उनको सुदर्शन के इंटरव्यू के पहले बताई थीं.  यह पत्रकारिता नहीं है .  पत्रकार को यहाँ तक अधिकार है  कि वह किसी कोर्ट में भी अपने सोर्स का नाम न बताये . ऐसा इसलिए किया जाता है कि  सोर्स अंदर की खबरें बताता  रहे और जनता तक सही खबर पंहुचती रहे. अगर सोर्स  का नाम पब्लिक हो गया तो उसकी उपयोगिता तो ख़त्म हो ही जायेगी ,उसकी नौकरी भी खतरे में  पड़ जायेगी . अपनी किताब में करन थापर ने यही काम किया है .  उन लोगों का नाम दे दिया है  जिन्होंने उनको कान्फिडेंस में अंदर की बातें बताई थीं. ज़ाहिर  है इससे पत्रकारिता की भावी पीढ़ियों का नुक्सान हुआ है.
नरेंद्र मोदी के उस २००७ वाले तीन मिनट के इंटरव्यू  का खूब इस्तेमाल हुआसारी दुनिया में उसके कारण करन थापर ने वाह वाही लूटी. और बेलौस पत्रकार के रूप में अपनी शमशीर चमकाई . वह बात अब बीत चुकी है . श्री थापर का आरोप है कि  पिछले कुछ समय से  बीजेपी वाले उनका बायकाट कर रहे हैं . इस किताब में उन्होंने उस बायकाट के कारणों का पता लगाने की कोशिश का विवरण दिया है और विवरण देने की प्रक्रिया में उन्होंने उन लोगों  की नौकरी खतरे में डाल दिया है जो उनको सच्चाई बताना चाहते थे . इस चक्कर में उन्होंने बीजेपी के प्रवक्ता सम्बित पात्र मंत्री अरुण जेटलीप्रकाश जावडेकरबीजेपी महामंत्री ,राम माधव  ,  प्रधानमंत्री के कार्यालय में अधिकारी नृपेन्द्र मिश्र और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का नाम लिया है .  जनता दल यू के नेता और पूर्व राजनयिक पवन वर्मा और उनके हवाले से २०१४ में नरेंद्र मोदी के चुनाव में प्रबंधक रह चुके प्रशान्त किशोर के साथ हुयी अपनी  प्राइवेट बातचीत को  सार्वजनिक कर दिया है .
उन्होंने यह  भी लिखा है नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उन्होंने कई बार उनसे मिलने की कोशिश की लेकिन मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. यह बिलकुल सामान्य है . दिल्ली के दरबारों के आसपास मंडराने वालों की यह खासियत है कि वे जिन लोगों को घटिया आदमी मानते रहते हैं उनके दिल्ली की सत्ता में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करने के बाद उनसे चिपकने की  कोशिश करते हैं . उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहाँ हाजिरी लगाने की कोशिश में बहुत मेहनत की और जब सफल नहीं हुए तो अपने उन मित्रों को एक्सपोज़ कर दिया जिन्होंने उनकी मदद करने की कोशिश थी. उनके इस काम से हो सकता है की उनकी किताब की बिक्री खूब बढ़ जाए लेकिन पत्रकारिता का काम करने वालों के लिए उन्होने मुश्किल ज़रूर पैदा कर दिया है . ज़ाहिर है एक व्यक्ति कीलालच और निजी एजेंडा को लागू करने के चक्कर में पत्रकारिता का भारी नुकसान हुआ है .
इसी तरह का काम लाल कृष्ण आडवानी के साथ भी इस किताब में हुआ है . करन थापर ने किताब में विस्तार से लिखा है कि देश के गृहमंत्री के रूप में श्री आडवानी अपने गहर पर दिल्ली स्थिति पाकिस्तानी उच्चायुक्त , अशरफ काज़ी से मिला करते थे . यह मुलाकातें गुपचुप तरीके से हुआ करती थीं. ज़ाहिर है आडवानी का कोई गुप्त एजेंडा नहीं रहा होगा .वे मुलाकातें राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर ही होती रही होंगी. करन थापर दावा करते हैं कि वे पाकिस्तानी उच्चायुक्त को खुद ही ड्राइव करके ले जाया करते थे और अडवानी जी के परिवार के अलावा किसी और को उन मुलाकातों की जानकारी नहीं  होती थी.  यह मुलाकातें गृह मंत्रालय के सिस्टम के बाहर जा कर  होती थीं .इसका मतलब यह  हुआ  कि आडवानी  ने करन थापर का भरोसा करके इन मुलाकातों को उनके मार्फ़त किया था . आज बीस साल  बाद उन मुलाकातों को सार्वजनिक करने का और  जो भी उद्देश्य हो पत्रकारिता के पवित्र मानदंडों का ऐलानिया  उन्लंघन हैं .


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