Sunday, July 1, 2018

अमरीका से दोस्ती किसी देश के राष्ट्रहित में कभी नहीं रही



शेष नारायण सिंह


विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन को अमरीका यात्रा पर जाना था . वे वहां के विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री से मुलाक़ात करके आपसी  संबंधों के बारे में विस्तृत विचार विमर्श करने वाली थीं लेकिन अमरीका ने अनुरोध कर दिया कि कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि इस यात्रा को रोक देना ही ठीक रहेगा. इस बातचीत के कार्यक्रम की घोषणा पिछले साल अगस्त में की गयी थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से  फोन पर बात हुयी थी और तय पाया गया था कि सामरिक,सुरक्षा और सैनिक सहयोग को मज़बूत करने के लिए  दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों की बातचीत होगी. यह बातचीत पहले भी  टाली जा चुकी है लेकिन उस बार  टलने का कारण पता  था. क्योंकि उस बार डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मंत्री रेक्स टिलरसन को बर्खास्त कर दिया था. इस बार बातचीत के टाले जाने का कारण शायद यह है  कि भारत ने रूस से एस-४०० मिसाइल खरीदने की पेशकश कर दी है जो अमरीका के राष्ट्रपति जी को पसंद नहीं आया है .   अमरीका चीन के बढ़ते प्रभाव के चलते इस इलाके में ऐसे दोस्त की   तलाश में है जो उसके अलावा   किसी से रिश्ते न रखे . अब तक पाकिस्तान इसी काम आता था अब भारत का वही इस्तेमाल करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है .

उधर अमरीकी रक्षा मंत्री जिम मेटिस चीन की यात्रा पर हैं . उन्हें जापान और  दक्षिण कोरिया भी जाना है . अमरीकी अखबार न्यू यार्क टाइम्स में  छपा है कि वे अपनी यात्रा की  शुरुआत में ही वे चीनी राष्ट्रपति  शी जिनपिंग से मिले और उनका मन भांपने के लिए दक्षिण चीन सागर की चर्चा कर दी .चीन के राष्ट्रपति ने दो टूक लहजे में जवाब दिया कि " हमारे पुरखों  ने जो ज़मीन हमारे लिए छोडी है ,हम उसका एक इंच भी किसी के लिए नहीं छोड़ेंगे. किसी और की ज़मीन को हम बिलकुल नहीं चाहते." अमरीकी  रक्षामंत्री  इस इलाके में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम  करने के लिए अमरीकी विदेशनीति को ताक़त देने के लिए इस यात्रा पर हैं .
इस खबर का ज़िक्र करने का उद्देश्य केवल  यह  है कि  अमरीका से सही रिश्ते रखने के लिए उससे इसी भाषा में बात करना  पड़ता है .  उससे बहुत अपनापा नहीं दिखाना चाहिए .इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो अमरीकी  राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने उनको बहुत भारी भारी वायदे किये थे . उनको उम्मीद थी कि जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शात्री जैसे अमरीका विरोधी राजनेताओं के जाने के बाद राजनीति में अपेक्षाकृत कम  तजुर्बेकार इंदिरा गांधी को अमरीकी सम्पन्नता के मायाजाल में  फंसाया जा सकता  था लेकिन  इंदिरा गांधी ने उनको कोई खास महत्व नहीं दिया था. उसके बाद तो निक्सन के राष्ट्रपति पद पर रहते बंगलादेश की स्थापना भी हुयी और अमरीकी राजनीति में सक्रिय हर इंसान को लगने लगा कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाले भारत से दोस्ती से अच्छी दुश्मनी ही  ठीक रहेगी और वह काम उसने किया भी . यहाँ तक कि पाकिस्तान के समर्थन में १९७१ में बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े का युद्धपोत इंटरप्राइज़ भी भेज दिया था . लेकिन अमरीका कुछ नहीं कर सका और बंगलादेश की स्थापना हो गयी.  उसके बाद भी कई बार अमरीका ने भारत से  दोस्ती का हाथ बढ़ाया . सोवियत रूस के विघटन के बाद अमरीका को इकलौते सुपर पावर का दर्ज़ा मिल गया उसके बाद तो हालात बदल गए . भारत भी आर्थिक संकट के भयानक दौर से गुज़र रहा  था. पी वी नरसिम्हाराव की सरकार थी और डॉ मनोहन सिंह  वित्त मंत्री थे. अमरीकी दाबाव उस बार  बरास्ता, आई एम एफ और विश्व बैंक आया और भारत अमरीका  के आर्थिक दबाव में आ गया .उसके बाद जो हुआ उसे दुनिया जानती है. .आम तौर पर  भारत की  सरकारें कमज़ोर थीं क्योंकि गठबंधन की सरकारें होती थीं लेकिन अमरीका से सैनिक और सामरिक जुगलबंदी के प्रस्तावों को टाला जाता रहा . अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो उन्होंने अमरीका से कूटनीतिक संबंधों को ताकत देना शुरू किया . लेकिन पूरी तरह से अमरीका के सहयोगी देश की स्थिति भारत की कभी  नहीं बनी.
तीस साल  बाद  भारत में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई है और इस सरकार ने  अमरीका के सामरिक सहयोगी की भूमिका को स्वीकार करने का मन बना लिया है . लेकिन अमरीका में राष्ट्रपति की निजी इच्छाएं क़ानून नहीं बन  जातीं, इस बात का ध्यान रखना चाहिए . अमरीका की  दोस्ती के चक्कर में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और निजी सम्मान को कभी नहीं  भूलना चाहिए . अमरीका के पूर्व विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर की बात हमेशा याद रखनी चाहिए . उन्होंने कहा था कि ," अमरीका से दुश्मनी खतरनाक है लेकिन उससे दोस्ती में तो  और भी खतरनाक है "  .उनके इस पैमाने पर सद्दाम हुसैन,  ईरान के शाह  रज़ा पहलवी ,चिली के तानाशाह  पिनोशे और पाकिस्तानी तानाशाह परवेज़ मुशर्राफ  को देखा जा सकता है . इसलिए किसी  भी राष्ट्राध्यक्ष को अमरीका से दोस्ती करने में बहुत संभल कर रहना चाहिए .


बहरहाल  अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का इस्तेमाल अमरीकी हित साधना के लिए करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से घनिष्ठ आर्थिक  सम्बन्ध बन गए थे.  एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.

पिछले सत्तर वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था .उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता  था  जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता था . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . इसलिए अमरीका की दोस्ती को एक बार फिर से समझ लेने की ज़रूरत है .

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