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शेष नारायण सिंह
इस साल का हिंदी दिवस और सरकारी दफ्तरों का हिन्दी पखवाड़ा बीत गया . नई दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में खूब आना जाना हुआ. हर जगह हिंदी पखवाडा का बैनर लगा था. लेकिन वहां काम करने वालों से बात करने पर वही हिंदी सुनने को मिली जिसको दिल्ली के एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार ने असली हिंदी बताने का बीड़ा उठा रखा है . हिंदी पखवाड़े के दौरान नज़र आई एक भाषाई बानगी ," यू नो, आई वेरी मच लाइक हिंदी लैंग्वेज। मैं हिंदी बोलने वालों को एप्रिसिएट करता हूँ।" इस हिंदी को हिंदी भाषा के विकास का संकेत मानने वाले वास्तव में भाषा की हत्या कर रहे हैं . सच्ची बात यह है कि इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करके वे लोग अपनी धरोहर और भावी पीढ़ियों के विकास पर ज़बरदस्त हमला कर रहे हैं . ऐसे लोगों की चलते ही बहुत बड़े पैमाने पर भाषा का भ्रम फैला हुआ है. आम धारणा फैला दी गयी है कि भाषा सम्प्रेषण और संवाद का ही माध्यम है . इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भाषा दो व्यक्तियों या समूहों के बीच संवाद स्थापित कर सकती है और जो कहा जा रहा है उसको समूह समझ रहा है जिसको संबोधित किया जा रहा है तो भाषा का काम हो गया . लोग कहते हैं कि भाषा का यही काम है लेकिन यह बात सच्चाई से बिलकुल परे है . यदि भाषा केवल बोलने और समझने की सीमा तक सीमित कर दी गयी तो पढने और लिखने का काम कौन करेगा . भाषा को यदि लिखने के काम से मुक्त कर दिया गया तो ज्ञान को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा . भाषा को जीवित रखने के लिए पढ़ना भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि श्रुति और स्मृति का युग अब नहीं है . भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है लेकिन वह धरोहर और मेधा की वाहक भी है . इसलिए भाषा को बोलने ,समझने, लिखने और पढने की मर्यादा में ही रखना ठीक रहेगा . यह भाषा की प्रगति और सम्मान के लिए सबसे आवश्यक शर्त है . भाषा के लिए समझना और बोलना सबसे छोटी भूमिका है . जब तक उसको पढ़ा और लिखा नहीं जाएगा तब तक वह भाषा कहलाने की अधिकारी ही नहीं होगी. वह केवल बोली होकर रह जायेगी . यह बातें सभी भाषाओं के लिए सही है लेकिन हिंदी भाषा के लिए ज्यादा सही है. आज जिस तरह का विमर्श हिन्दी के बारे में देखा जा रहा है वह हिंदी के संकट की शुरुआत का संकेत माना जा सकता है. हिंदी में अंग्रेज़ी शब्दों को डालकर उसको भाषा के विकास की बात करना अपनी हीनता को स्वीकार करना है . हिंदी को एक वैज्ञानिक सोच की भाषा और सांस्कृतिक थाती की वाहक बनाने के लिए अथक प्रयास कर रहे भाषाविद, राहुल देव का कहना है कि, "हिंदी समाज वास्तव में एक आत्मलज्जित समाज है . उसको अपने आपको हिंदी वाला कहने में शर्म आती है . वास्तव में अपने को दीन मानकर ,अपने दैन्य को छुपाने के लिए वह अपनी हिंदी में अंग्रेज़ी शब्दों को ठूंसता है " इसी तर्क के आधार पर हिंदी की वर्तमान स्थिति को समझने का प्रयास किया जाएगा.
हिंदी के बारे में एक और भाषाभ्रम भी बहुत बड़े स्तर पर प्रचलित है . कहा जाता है कि भारत में टेलिविज़न और सिनेमा पूरे देश में हिंदी का विकास कर रहा है . इतना ही नहीं इन माध्यमों के कारण विदेशों में भी हिंदी का विस्तार हो रहा है. लेकिन इस तर्क में दो समस्याएं हैं. एक तो यह कि सिनेमा टेलिविज़न की हिंदी भी वही वाली है जिसका उदाहरण ऊपर दिया गया है और दूसरी समस्या यह है कि बोलने या समझने से किसी भाषा का विकास नहीं हो सकता . उसको लिखना और बोलना बहुत ज़रूरी है , उसके बिना फौरी तौर पर संवाद तो हो जाता है लेकिन उसका कोई स्वरुप तय नहीं होता. टेलिविज़न और सिनेमा में पटकथा या संवाद लिखने वाले बहुत से ऐसे लोग हैं जो हिंदी की सही समझ रखते हैं लेकिन शायद उनकी कोई मजबूरी होती है जो उल्टी सीधी भाषा लिख देते हैं . हो सकता है कि उनके अभिनेता या निर्माता उनसे वही मांग करते हैं . इन लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि निर्माता निदेशकों को यह समझाएं कि यदि सही भाषा लिखी गयी तो भी बात और अच्छी हो जायेगी . यहाँ डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की फिल्मों का उदाहरण दिया जा सकता है जो भाषा के बारे में बहुत ही सजग रहते हैं. अमिताभ बच्चन की भाषा भी एक अच्छा उदाहरण है . सिनेमा के संवादों में उनकी हिंदी को सुनकर भाषा की क्षमता का अनुमान लगता है .सही हिंदी बोलना असंभव नहीं है ,बहुत आसान है. अधिकतर सिनेमा कलाकार निजी बातचीत में अंग्रेज़ी बोलते पाए जाते हैं जबकि उनके रोजी रोटी का साधन हिंदी सिनेमा ही है. पिछले दिनों एक टेलिविज़न कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौट की भाषा सुनने का अवसर मिला , जिस तरह से उन्होंने हिंदी शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया ,उसको टेलिविज़न और सिनेमा वालों को उदाहरण के रूप में प्रयोग करना चाहिए . एक अन्य अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी बहुत अच्छी भाषा बोलते देखी और सुनी गयी हैं . . डॉ राही मासूम रज़ा ने टेलिविज़न और सिनेमा के माध्यम से सही हिंदी को पूरी दुनिया में पंहुचाने का जो काम किया है ,उस पर किसी भी भारतीय को गर्व हो सकता है. कुछ दशक पहले टेलिविज़न पर दिखाए गए उनके धारावाहिक , ' महाभारत ' के संवाद हमारी भाषाई धरोहार का हिस्सा बन चुके हैं. टेलिविज़न बहुत बड़ा माध्यम है , बहुत बड़ा उद्योग है . उसका समाज की भाषा चेतना पर बड़ा असर पड़ता है . लेकिन सही भाषा बोलने वालों की गिनती उँगलियों पर की जा सकती है .दुर्भाग्य की बात यह है कि आज इस माध्यम के कारण ही बच्चों के भाषा संस्कार बिगड़ रहे हैं. छतीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष ललित सुरजन का कहना है कि " टेलिविज़न वालों से उम्मीद की जाती है कि वह भाषा को परिमार्जित करे और भाषा का संस्कार देंगे लेकिन वे तो भाषा को बिगाड़ रहे हैं . हिंदी के अधिकतर टेलिविज़न चैनल हिंदी और अन्य भाषाओं में विग्रह पैदा कर रहे हैं. हिंदी के अखबार भी हिंदी को बर्बाद कर रहे हैं . यह आवश्यक है कि औपचारिक मंचों से सही हिंदी बोली जाए अन्यथा हिंदी को बोली के स्तर तक सीमित कर दिया जाएगा ".
आज टेलिविज़न की कृपा से छोटे बच्चों की भाषा का प्रदूषण हो रहा है .बच्चे सोचते हैं कि जो भाषा टीवी पर सुनायी पड़ रही है ,वही हिंदी है .माता पिता भी अंग्रेज़ी ही बोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि स्कूलों का दबाव रहता है . देखा गया है कि बच्चों की पहली भाषा तो अंग्रेज़ी हो ही चुकी है .बहुत भारी फीस लेने वाले स्कूलों में अंग्रेज़ी बोलना अनिवार्य है . अपनी भाषा में बोलने वाले बच्चों को दण्डित किया जाता है. एक महंगे स्कूल के हिंदी समर्थक मालिकों की बातचीत के एक अंश पर ध्यान देना ज़रूरी है ." हम अपनी ही कंट्री में हिंदी को सपोर्ट नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा ? मैंने अपने स्कूल में हिंदी बोलने वालों पर सिर्फ हंड्रेड रुपीज़ फाइन का प्रोविजन रखा है, अदरवाइज दूसरे स्कूल टू हंड्रेड रुपीज़ फाइन करते हैं। " यह दिल्ली के किसी स्कूल की बातचीत है . देश के अन्य क्षेत्रों में भी यही दुर्दशा होगी. बच्चों की मुख्य भाषा अंग्रेज़ी हो जाने के संकट बहुत ही भयावह हैं. साहित्य ,संगीत आदि की बात तो बाद में आयेगी ,अभी तो बड़ा संकट दादा-दादी, नाना-नानी से संवादहीनता की स्थिति है. आपस में बच्चे अंग्रेज़ी में बात करते हैं , स्कूल की भाषा अंग्रेज़ी हो ही चुकी है , उनके माता पिता भी आपस में और बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करते हैं नतीजा यह होता है कि बच्चों को अपने दादा-दादी से बात करने के लिए हिंदी के शब्द तलाशने पड़ते हैं . जिसके कारण संवाद में निश्चित रूप से कमी आती है .यह स्पष्ट तरीके से नहीं दिखता लेकिन बूढ़े लोगों को तकलीफ बहुत होती है. यह मेरा भोगा हुआ यथार्थ है . मेरे पौत्र ने अपने स्कूल और अपने पड़ोस में रहने वाले अपने मित्रों से बहुत गर्व से बताया था कि " माई बाबा नोज़ इंगलिश ". यानी बच्चा अपने बाबा को अंग्रेज़ी का ज्ञाता बताकर वह अपने को या तो औरों से श्रेष्ठ बता रहा था या यह कि अपने दोस्तों को बता रहा था कि मेरे बाबा भी आप लोगों के बाबा की तरह ही जानकार व्यक्ति हैं .शायद उसके दोस्तों के बाबा दादी अंग्रेज़ी जानते होंगें .
एक समाज के रूप में हमें इस स्थिति को संभालना पडेगा . बंगला, तमिल, कन्नड़ , तेलुगु . मराठी आदि भाषाओं के इलाके में रहने वालों को अपनी भाषा की श्रेष्ठता पर गर्व होता है. वे अपनी भाषा में कहीं भी बात करने में लज्जित नहीं महसूस करते लेकिन हिंदी में यह संकट है . इससे हमें अपने भाषाई संस्कारों को मुक्त करना पडेगा. अपनी भाषा को बोलकर श्रेष्ठता का अनुभव करना भाषा के विकास की बहुत ही ज़रूरी शर्त है. इसके लिए पूरे प्रयास से हिंदी को रोज़मर्रा की भाषा , बच्चों की भाषा और बाज़ार की भाषा बनाना बहुत ही ज़रूरी है . आज देश में बड़े व्यापार की भाषा अंग्रेज़ी है , वहां उसका प्रयोग किया जाना चाहिए . हालांकि वहां भी अपनी मातृभाषा का प्रयोग किया जा सकता था . चीन और जापान ने अपनी भाषाओं को ही बड़े व्यापार का माध्यम बनाया और आज हमसे बेहतर आर्थिक विकास के उदाहरण बन चुके हैं . अंग्रेज़ी सीखना ज़रूरी है तो वह सीखी जानी चाहिए , उसका साहित्य पढ़ा जाना चाहिए, अगर ज़रूरी है तो उसके माध्यम से वैज्ञानिक और जानकारी जुटाई जानी चाहिए लेकिन भाषा की श्रेष्ठता के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए . भारतेंदु हरिश्चंद्र की बात सनातन सत्य है कि ' निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल '. भाषा की चेतना से ही पारिवारिक जीवन को और सुखमय बनाया जा सकता है . हमारी परम्परा की वाहक भाषा ही होती है . संस्कृति, साहित्य , संगीत सब कुछ भाषा के ज़रिये ही अभिव्यक्ति पाता है ,इसलिए हिंदी भाषा को उसका गौरवशाली स्थान दिलाने के लिए हर स्तर से हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए .
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