शेष नारायण सिंह
देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बहुत खराब है . गोरखपुर में बच्चे मर रहे हैं और राजनीति करने वाले अपना काम कर रहे हैं. पता चला है कि वहां के मेडिकल कालेज के अफसरों ने घूस की मात्रा कम होने पर नाराज़ होकर आक्सीजन सप्लाई करने वाले ठेकेदार का भुगतान रोक दिया था . उसने इन लोगों को बार बार चिट्ठी लिखी लेकिन पैसा नहीं मिला इसलिए सप्लाई को नियमित नहीं किया गया . सरकार की भूमिका भी संदेह के घेरे में है , उस पर चर्चा बाद में की जायेगी अभी तो डाक्टरी के पेश इसे जुडी नैतिकता पर चर्चा करना ही ठीक रहेगा . मेडिकल नैतिकता की धज्जियां उड़ाता एक वाकया और अखबारों में छपा है . जोधपुर में डाक्टरों ने जो कुछ किया उसके लिए उनको कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए . एक महिला उनके सामने आपरेशन की मेज़ पर पडी कराह रही थी और डाकटर लोग आपस में लड़ रहे थे. उनकी लापरवाही से महिला की नवजात बच्ची की मृत्यु हो गयी . बाद में सरकार ने वहां भी कार्रवाई की लेकिन उससे बहुत फर्क नहीं पड़ता . मरीज़ की तो जान ही चली गयी. इन दोनों ही मामलों में डाक्टरों ने अपना काम सही तरीके से नहीं किया वरना यह हालत नहीं होती.
सवाल यह उठता है कि इतने अच्छे काम के लिए शिक्षा लेने के बाद यह लोग ऐसा करते क्यों हैं . इस पवित्र पेशे में प्रवेश के समय प्रत्येक डाक्टर को एक घोषणा करनी होती है जिसमें साफ़ साफ़ लिखा है कि मैं अपने आप को मानवता की सेवा के लिए समर्पित करता हूँ. हर खतरे का सामना करूंगी/करूंगा लेकिन मानवता के कानून के खिलाफ अपने मेडिकल ज्ञान का उपयोग कभी नहीं करूंगी/करूँगा . मैं मानव जीवन का सदैव सर्वोच्च सम्मान करूंगी /करूँगा . मेरे मरीज़ और मेरे कर्त्तव्य के बीच कभी भी धर्म, राष्ट्रीयता,जाति , राजनीति, या सामाजिक हैसियत को नहीं आने दिया जाएगा . मैं अपना काम गरिमा के साथ निभाउंगी/निभाऊंगा. मेरे मरीज़ का स्वास्थ्य मेरे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होगा. अपने काम के दौरान मरीज़ के बारे में जो भी जानकारी या रहस्य मुझे पता लगेंगें उनको मैं पूर्ण सम्मान दूंगी/दूंगा. मेरे शिक्षकों को मेरी तरफ से पूरा सम्मान मिलेगा . मेरी पूरी शक्ति से मेडिकल पेशे की पवित्र परम्परा और गरिमा के साथ सम्मान किया जाएगा . मैं अपने साथ काम करने वाले डाक्टरों का सम्मान करुँगी/करूँगा और उनकी गरिमा को अक्षुण रखूंगी/रखूँगा .
इस शपथ के साथ डाकटर अपना काम शुरू करते हैं और जब हम गोरखपुर और जोधपुर के काण्ड को देखते हैं तो सर शर्म से झुक जाता है .अपने व्यक्तिगत अनुभव से भी हर व्यक्ति कुछ न कुछ ज़रूर जानता होगा जहां इस मेडिकल प्रोफेशन की बुलंदियां भी होंगी तो कहीं न कहीं डाक्टरों का कमीनापन भी होगा . मेरा अपना अनुभव भी है . ठीक एक साल पहले मैं चिकनगुनिया का शिकार हुआ था. ग्रेटर नोयडा के एक नामी प्राइवेट अस्पताल में दिखाने गया तो भर्ती कर लिया गया .दो दिन के अन्दर मुझसे ज़रूरी पैसे लेकर डिस्चार्ज कर दिया गया . हालत और बिगड़ गयी तो एक दूसरे अस्पताल में दाखिल हो गया . सोचा था मामूली बुखार है , तब तक चिकनगुनिया का पता नहीं चला था . एक हफ्ते वहाँ रहा , तो यह तो पता लग गया कि चिकनगुनिया है . उसका इलाज शुरू हो गया लेकिन अस्पताल के डाक्टरों का रवैया अजीब था. तरह तरह के टेस्ट कर रहे थे लेकिन उनको पता नहीं लगा कि चिकनगुनिया के चलते सोडियम, किडनी और लीवर की बीमारियाँ भी शुरू हो रही हैं. तीन चार दिन बाद वहां के बड़े डाक्टर ने मेरे एक दोस्त को बताया कि लगता है कि इनको सेप्टोसेमिया हो रहा है . यानी मेरे शरीर की हालत बिगड़ रही थी और वे लोग लाइफ सपोर्ट सिस्टम लगा कर बिल बढाने के काम में लग गए थे . बहरहाल जब मेरे बच्चों को पता चला तो एक राजनेता मित्र की कृपा से मुझे वसंत कुञ्ज के लीवर संस्थान में भर्ती करा दिया गया . करीब दो हफ्ते वहां रहा और मैंने अपनी आँखों से मेडिकल एथिक्स को देखा . जब मैं भर्ती हुआ तो मैं वहां के किसी डाक्टर से परिचित नहीं था , लेकिन जिस तरह से मेरी देखभाल शुरू हुयी उसके बाद मुझे पता लगा कि मेडिकल एथिक्स का पालन करने वाले डाक्टर कैसे होते हैं . संस्थान के निदेशक डॉ एस के सरीन दुनिया के बहुत बड़े डाक्टर हैं .उनके नाम से गैस्ट्रो इंटाइटिस के इलाज का ' सरीन प्रोटोकल' है जिसका पूरी दुनिया में प्रचलन है . उनको दिखाने के लिए तीन महीने का इंतजार करना पड़ता है लेकिन मुझे रोज़ दो बार देखने आते थे . डॉ सरीन के बारे में अब तो दन्त कथाएं प्रचलित हो गयी हैं . वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिश्र की पत्नी की बहन की हालत बहुत खराब थी . लोग उम्मीद छोड़ चुके थे . लीवर ख़त्म होने के कगार पर था , पेट में बहुत पानी भर गया था . उन्होंने डॉ सरीन से बात की तब वे जी बी पन्त अस्पताल में थे . उन्होंने स्टेशन से सीधे अस्पताल आने को कहा . जगह नहीं थी तो वहां बरामदे में ही इलाज शुरू कर दिया और वे बिलकुल स्वस्थ हो कर अपने घर गयीं. इसी तरह का मामला वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के भाई का है . उनका लीवर बिल्कुल खराब था , ट्रांसप्लांट के लिए भर्ती किए गए लेकिन डॉ सरीन ने सरीन प्रोटोकल से इलाज किया . लीवर सही हो गया , कोई सर्जरी नहीं हुयी . और मरीज़ बिल्लुल स्वस्थ होकर अमरीका चला गया . बी एच यू मेडिकल कालेज के डॉ ए के सिंह की कहानी भी ऐसी ही है . वे तब तक ओ पी डी में बैठे रहते थे जब तक सारे मरीजों को देख न लें .
मेडिकल एथिक्स में लिखा है कि अपने मरीज़ को फालतू टेस्ट या अन्य डाक्टरों से सलाह लेने के लिए रेफर न किया लेकिन हमने लखनऊ में देखा है कि डॉ लोग हर तरह के टेस्ट की सलाह दे देते हैं क्योंकि उनके पर्चे पर उनको कट मिलता है . मेरी डॉ सुमन लता ने हमेशा फालतू के टेस्ट का विरोध किया . एक बार किसी जूनियर डॉ ने एहतियातन सी टी स्कैन के लिए लिख दिया , डॉ सुमन ने साफ़ कह दिया कि कोई ज़रुरत नहीं है. मुराद यह है कि जोधपुर और गोरखपुर के बेईमान डाक्टरों की दुनिया से अलग भले डाक्टर भी हैं और बड़ी संख्या में हैं . सच्ची बात यह है कि जब आदमी बीमार होता है तो वह डाक्टर को ईश्वर के समकक्ष मान कर चलता है लेकिन रास्ते में बैठे लुटेरे उसको कहीं का नहीं छोड़ते .अभी एक लड़के का मुंबई से फोन आया कि उसको डाक्टर ने टीबी बताया है और सर्जरी की सलाह दी है . उसने कहा कि बस पंद्रह हज़ार रूपये का खर्च होगा. यानी कम खर्च बताकर मरीज़ को सर्जरी की मेज़ पर लिटा देगा और उसके बाद उससे बाकी खर्च माँगना शुरू करेगा . यह भी आजकल बहुत हो रहा है . इस माहौल में ज़रूरी है कि देश की जनता भी मेडिकल एथिक्स के बारे में पूरी तरह से अवगत रहे .
मेडिकल एथिक्स की कुछ बुनियादी बातें आम आदमी को भी पता होनी चाहिए. डाक्टर के लिए हर मरीज़ को देख पाना संभव नहीं है और न ही वह लाजिम है लेकिन हर मरीज़ या घायल इंसान की काल पर कार्रवाई करनी चाहिए, और अपने पवित्र काम की गरिमा को बनाए रखना चाहिए . इलाज के दौरान यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि मरीज़ के जीवन की रक्षा सबसे बड़ी प्राथमिकता है और मरीज़ अपने डाक्टर पर पूरा भरोसा करके वहां आया है .मेडिकल एथिक्स में साफ़ लिखा है कि अगर इमरजेंसी हो तो किसी को रेफर न करके शुरुआती इलाज अवश्य करना चाहिए . हाँ यदि किसी बीमारी के बारे में डाक्टर का अनुभव और शिक्षा उपयुक्त नहीं है तो मरीज़ को सही सलाह देकर उपयुक्त सन्दर्भ देकर भेजना चाहिए .ऐसी हालत में डाक्टर को मरीज़ का इलाज नहीं करना चाहिए और सही जगह रेफर करना चाहिए . डाक्टर के व्यक्तित्व में धैर्य और शालीन आचरण पूरी तरह से समाहित होना चाहिए . अगर मरीज़ ने अपनी कुछ कमजोरियों के बारे में डाक्टर से बताया है तो उसको किसी भी हालात में किसी और को नहीं बताना चाहिए. ऐसी बीमारियों के बारे में ज़रूर बताना चाहिए जो कि संभावित हों और उनके इलाज का उपाय किया जाना चाहिए . मरीज़ की बीमारी को कभी घटा या बढ़ा कर नहीं बताना चाहिए . जो भी बीमारी हो मरीज़ के दोस्तों और रिश्तेदारों को उसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए .हालांकि डाक्टर को इस बात की आजादी है कि वह अपना मरीज़ खुद चुने या किसका इलाज करे लेकिन इमरजेंसी में उसको हर हाल में मदद करने के लिए आगे आना चाहिए .अपने मरीज़ के स्वास्थ्य और उसके हित के लिए डाक्टर को तत्पर रहना चाहिए.
जहां तक डाक्टरों के कर्तव्य की बात है उसके बारे में तो मेडिकल काउन्सिल ने सारे नियमबना रखे हैं लेकिन देश की जनता का स्वास्थ्य निश्चित रूप से सरकारों की ज़िम्मेदारी कीश्रेणी में आता है . प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही नरेंद्र मोदी ने जनता के स्वास्थ्य के बारे में अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दिया था. अक्टूबर २०१४ में मुंबई में अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि " यह शर्म की बात है जब हम अपने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की तुलना विकसित देशों से करते हैं. नवजात शिशुओं और मां के स्वस्थ्य के बारे में हमारी प्रगति बहुत ही चिंता की बात है." जब बच्चों की प्राथमिकता के बारे में हम प्रधानमंत्री की बात के बरक्स गोरखपुर में आक्सीजन की कमी और डाक्टरों के व्यवहार को देखते हैं तो साफ़ लग जाता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के जिले में प्रधानमंत्री की बात को उनके सन्देश के तीन साल बाद भी गंभीरता से नहीं लिया गया है .उसी भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि " कई बार जच्चा-बच्चा दोनों ही बुनियादी स्वास्थ्य सेवा की कमी के कारण मर जाते हैं ." और गोरखपुर में सरकारी डाक्टरों और अस्पताल की कुव्यवस्था के कारण मरने वाले बच्चों के बारे में उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री यह कहकर सरकार को दोष मुक्त करने की कोशिश करते हैं कि अगस्त के महीने में तो बच्चे मरते ही रहते हैं. एक तरफ देश के प्रधानमंत्री कह रहे होते हैं कि हमको सबके जीवन का सम्मान करना चाहिए और सफाई को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए दूसरी तरफ उनकी पार्टी के ही सदस्य मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री घोषणा करते हैं कि गोरखपुर के बच्चों की मृत्यु में अस्पताल में सफाई की कमी भी एक कारण थी . सवाल यह है कि जब प्रधानमंत्री से स्वच्छता को देश के मिशन के रूप में आगे बढाने की बात की है तो उनकी बात को उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों के मंत्री क्यों नहीं मानते .इसलिए स्वास्थ्य सेवा को उसी तरह से प्राथमिकता देना होगा जैसा कि पश्चिमी देशों में है या क्यूबा जैसे देश में है . प्रधानमंत्री की इच्छा का आदर करते हुए सबको इस मिशन में जुटना पड़ेगा .
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