शेष नारायण सिंह
कर्नाटक की राजधानी बंगलूरू में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या कर दी गयी . ज़ाहिर है उनके दुश्मनों ने उनको मार डाला. कौन हो सकते हैं यह दुश्मन ? कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तुरंत आरोप लगा दिया कि आर एस एस और बीजेपी वालों का हाथ हो सकता है . इस बात में दो राय नहीं है कि गौरी लंकेश बीजेपी और दक्षिणपंथी राजनीति के खिलाफ खूब लिखती थीं . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी खूब लिखती थीं लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है कि प्रधानमंत्री की पार्टी के लोग किसी पत्रकार की हत्या कर देंगें . राहुल गांधी के बयान के बाद केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने टिप्पणी की है कि जब राहुल गांधी ने ऐलानियाँ बीजेपी और आर एस एस पर आरोप लगा दिया है तो उनकी पार्टी की सरकार के लिए निष्पक्ष जांच कर पाना बहुत मुश्किल है . लिहाजा जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी से करवाई जानी चाहिए . एक बात साफ़ हो गयी है कि गौरी लंकेश की हत्या के बाद उस पर राजनीति शुरू हो गयी है . राजनीतिक रोटी सेंकने से लोगों को बाज आना चाहिए क्योंकि अगर जांच के बाद यह पाया गया कि गौरी लंकेश की हत्या उनके लेखन के कारण हुयी है तो यह बहुत ही गंभीर मामला है और इसका मतलब सीधे प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी के सवाल से जुड़ जाता है . इसके अलावा उनकी हत्या के बाद बहुत सारे सवाल एक बार फिर बहस के दायरे में आ गए हैं . गौरी लंकेश आर एस एस और बीजेपी के विचारों की धुर विरोधी थीं , उसके खिलाफ खूब जमकर लिखती थीं. उनकी हत्या के बाद सोशल मीडिया पर चर्चा शुरू हो गयी है कि आर एस एस के लोगों ने ही उनकी हत्या की है , एक दूसरा वर्ग भी है जो उनकी हत्या के लिए वामपंथी विचारों के टकराव को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है . इस वर्ग में लोग उनके भाई को भी शामिल कर रहे हैं. इसी वर्ग से यह बात भी कही जा रही है कि कर्नाटक के पड़ोसी राज्य केरल में आर एस एस के कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर राजनीतिक हत्या हो रही है और उस पर भी रोक लगाई जानी चाहिए. आरोप लगाए जा रहे हैं कि यह हत्याएं बाएं बाजू की राजनीति के लोग ही कर रहे हैं . गौरी लंकेश को न्याय मिले इसके लिए ज़रूरी है कि अभी किसी को ज़िम्मेदार ठहराने की जल्दी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि उस से जांच के काम में बाधा पड़ सकती है.
अपने देश में प्रेस की आज़ादी की व्यवस्था संविधान में ही निहित ही . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी है, प्रेस की आज़ादी उसी से निकलती है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य और १९६२ के सकाळ पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के श्रेणी में रख दिया गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं. संविधान में लिखा है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी. " यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी नहीं है . शायद संविधान के अनुच्छेद १९ (२) के उन्लंघन के आरोप में ही गौरी लंकेश को मानहानि के एक मुक़दमे में सजा भी हो चुकी है और मामला ऊंची अदालत में अपील में लंबित है.
लेकिन इसके साथ ही और भी सवाल उठ रहे हैं कि यदि किसी के लेखन से किसी को एतराज़ है और वह मानता है पत्रकार ने 19(2) का उन्लंघन किया है तो क्या उसको मार डालना सही है ? . इस तर्क की परिणति बहुत ही खतरनाक है और इसी तर्क से लोकशाही को ख़तरा है . गौरी लंकेश की हत्या के बाद उनके पुराने लेखों का ज़िक्र किया जा रहा है जिसमें उन्होंने ऐसी बातें लिखी थीं जो एक वर्ग को स्वीकार नहीं हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय यह वर्ग उनके चरित्र हनन का प्रयास भी कर रहा है और जो कुछ भी उस वर्ग से आ रहा है उसका सन्देश यह है कि गौरी की हत्या ज़रूरी था और जो हुआ वह ठीक ही हुआ. आज ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की प्रवृत्तियों की निंदा की जाये .निंदा हो भी रही है. गौरी लंकेश की हत्या के अगले ही दिन देश भर में पत्रकारों ने सभाएं कीं , जूलूस निकाले , सरकारों से हत्या जांच की मांग की और तय किया कि मीडिया को निडर रहना है . दिल्ली के प्रेस क्लब में एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें लगभग सभी बड़े पत्रकार शामिल हुए और गौरी लंकेश की ह्त्या करने वालों को फासिस्ट ताक़तों का प्रतिनिधि बताया. कोलकाता प्रेस क्लब के तत्वावधान में प्रेस क्लब से गांधी जी की मूर्ति तक एक जुलूस निकाला . मुंबई में सामाजिक कार्यकर्ता ,पत्रकार, फिल्मकार ,अभिनेत्ता इकठ्ठा हुए और असहमत होने के अधिकार को लोकशाही का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार बताया और गौरी लंकेश की हत्या को प्रेस की आज़ादी की हत्या बताया .
असुविधाजनक लेख लिखने के लिए अगर लोगों की हत्या को सही ठहराया जाएगा तो बहुत ही मुश्किल होगी . लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग जाएगा. इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया गया है और उतनी ही मुश्किल इसको संवारा गया है . अगर मीडिया जनता को सही बातें और वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं पंहुचाएगा तो सत्ता पक्ष के लिए भी मुश्किल होगी. इंदिरा गांधी ने यह गलती १९७५ में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , उन के पास तक जा सकने वालों में सभी चापलूस होते थे, उनकी जयजयकार करते रहते थे इसलिए उनको सही ख़बरों का पता ही नहीं लगता था . उनको बता दिया गया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं . चुनाव करवा दिया और उनकी राजनीति में १९७७ जुड़ गया .
प्रेस की आज़ादी सत्ता पक्ष के लिए बहुत ज़रूरी है . सत्ताधारी जमातों को अगर वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं मिलेंगे तो चापलूस नौकरशाह और स्वार्थी नेता सच को ढांक कर राजा से उलटे सीधे काम करवाते रहेंगें . भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह बात बहुत ही अच्छी तरह मालूम थी इसीलिए उन्होंने कहा था ," मैं पीत पत्रकारिता से नफरत करता हूँ , लेकिन आपके पीत पत्रकारिता करने के अधिकार की रक्षा के लिए हर संभव कोशिश करूंगा ".लोकतंत्र को अगर जनता के लिए उपयोगी बनाना है तो सत्ताधारी जमातों को निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता को व्यावहारिकता के साथ लागू करने के उपाय करने होंगे .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे वह गलतियाँ न करें जो इंदिरा गांधी ने की थी. इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '. रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .मौजूदा शासकों को इस तरह की प्रवृत्तियों से बच कर रहना चाहिए क्योंकि मीडिया का चरित्र बहुत ही अजीब होता है . जब इंदिरा गांधी बहुत सारे लोगों को जेलों में बंद कर रही थीं , जिसमें पत्रकार भी शामिल थे तो चापलूसों और पत्रकारों का एक वर्ग किसी को भी आर एस एस या कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बताकर गिरफ्तार करवाने की फ़िराक में रहता था . उस दौर में भी बहुत सारे पत्रकारों ने आर्थिक लाभ के लिए सत्ता की चापलूसी में चारण शैली में पत्रकारिता की . वह ख़तरा आज भी ख़तरा बना हुआ है . चारण पत्रकारिता सत्ताधारी पार्टियों की सबसे बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . इसके संकेत दिखने लगे हैं . एक आफ द रिकार्ड बातचीत में बीजेपी के मीडिया से जुड़े एक नेता ने बताया कि जो पत्रकार टीवी पर हमारे पक्ष में नारे लगाते रहते है , वे उनकी पार्टी का बहुत नुक्सान करते हैं . भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में इस तरह की सोच एक अच्छा संकेत है . गौरी लंकेश की हत्या की जांच पर अगर सच को ढंकने की कोशिश करने वालों से बचा लिया गया तो यह देश की पत्रकारिता के लिए बहुत ही अच्छा होगा . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में रहते हुए कुछ भी लिखने की आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा. ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को पत्रकारीय कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करें वालों को हतोत्साहित करे.
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