शेष नारायण सिंह
आज सुबह से मन बेचैन है . ठीक एक साल पहले ११ सितम्बर २०१६ के दिन ही मेरे बच्चे मुझे ग्रेटर नोयडा के एक कसाई अस्पताल से निकाल कर वंसत कुञ्ज, नई दिल्ली के Institute of Lever and Biliary Sciences लेकर गए थे . ३१ अगस्त को मुझे बुखार हो गया था . पड़ोस के एक नामी अस्पताल में दाखिल हो गया . दो दिन बाद ही वहां से छुट्टी मिल गयी . बाद में पता चला कि मुहे चिकनगुनिया था लेकिन उस अस्पताल के डाक्टर ने वाइरल बुखार बताकर , अच्छा पैसा लेकर मुझे विदा कर दिया . घर आया तो हालत फिर बिगड़ गयी . एक दूसरे अस्पताल में भर्ती हो गया . चिकनगुनिया की पहचान हो गयी लेकिन इलाज में भारी लापरवाही शुरू हो गयी. हालत बिगडती गयी . उसके बाद तो पूरे परिवार पर मुसीबतों की बयार बहने लगी. मेरी बड़ी बेटी दिल्ली के अपने घर से अपने सास ससुर और पति के साथ मुझे देखने आ रही थी. कार का एक्सीडेंट हो गया . उसके ससुर जी के हाथ में बड़ा फ्रैक्चर हो गया . वह भी उसी अस्पताल में भर्ती हो गए. जो भी मुझे देखने आता था उसका चेहरा देख कर मुझे शक होने लगा कि मेरी हालत ठीक नहीं है .मेरी बेटी ने अपने भाई को मुंबई में बता दिया कि पापा बहुत बीमार हैं. बेटा अपनी बहू के साथ आ गया . बहू का बहनोई भी मुझे देखने आया था . उसने भी उन लोगों को फोन पर बिगड़ते हालात की जानकारी दे दी थी. मेरी बहू ने मुझे देखते ही इस अस्पताल से हटाने की जिद पकड़ ली. लेकिन मैं किसी अपोलो टाइप अस्पताल में जाने को तैयार नहीं था . इस कसाई अस्पताल वाले इतने गैरज़िम्मेदार थे कि मेरे विजिटर्स को बताना शुरू कर चुके थे कि इनको सेप्टोसेमिया का शक है लेकिन मेरे बच्चों को नहीं बता रहे थे . मेरी दूर की एक बहन के पति ने मेरी सेवा के लिए दो कर्मचारी तैनात कर दिया था . जब उनको पता चला कि मेरी हालत बिगडती जा रही है तो उन्होंने मुझसे धीरे से कहा कि 'भाई साहब बच्चों की बात मान लीजिये '. इसी बीच मेरे एक बहुत बड़े नेता मित्र का फोन आया . उनको मैं बता नहीं पा रहा था . फिर मेरे बेटे से उनकी बात हुयी और उन्होने फ़ौरन इंतज़ाम कर दिया. वसंत कुञ्ज वाले अस्पताल के निदेशक डाक्टर एस के सरीन उनके मित्र थे . रविवार का दिन था लेकिन जाते ही भर्ती हो गयी . फिर इलाज़ शुरू हो गया . तीन दिन बाद डॉ सरीन ने कहा कि अब आप खतरे से बाहर हैं . तब मुझे अंदाज़ लगा कि मैं खतरे में था, मेरी हालत बहुत खराब थी . मेरी छोटी बेटी अपनी नौकरी की परवाह किये बिना बंगलोर से आ गयी . मेरे भाई और बहन गाँव से आ गए. मुझसे छः साल छोटा मेरा भाई बस जम गया . मेरे और अपनी भाभी के साथ हमेशा खड़ा रहा. मेरी बहन ने सारा ज़िम्मा उठा लिया . मेरी छोटी बेटी ने अपने छोटे बेटे को अपनी बड़ी बहन के यहाँ दिन में छोड़कर लगभग पूरा समय अस्पताल में बिताया . बड़ी बेटी के परिवार ने पूरा साथ दिया . मेरी बहू ने इलाज़ और बीमारी का हर स्तर पर मूल्यांकन किया . ग्रेटर नोयडा के अस्पताल में डाक्टरों की लापरवाही के चलते बीमारी बहुत बिगड़ गयी थी . सोडियम, किडनी, लिवर , यू टी आई आदि भांति भांति की बीमारियाँ हो गयी थीं. पाँव और कमर की मांशपेशियाँ शिथिल हो गयी थीं, उठकर बैठ पाना असंभव हो गया था. सैकड़ों टेस्ट हुए. डॉ सरीन सब कुछ रूल आउट कर देना चाहते थे . मेरी छोटी बेटी इस बीमारी में मेरी मां बन गयी, बड़ी बेटी सब की गार्जियन बन गयी. हर शुक्रवार को मेरा बेटा मुंबई से दिल्ली आता रहा और मेरी बहू इसी बीमारी में तीसरी बेटी बन गयी. सब कुछ रूल आउट करने के चक्कर में डॉ सरीन और डॉ सुमन लता मेरी रीढ़ की बायोप्सी कराना चाहते थे. मेरे बच्चों के बीच मतभेद हो गया और काफी विवाद हो गया . शुरू में मैने भी मना कर दिया था लेकिन डॉ सरीन के आग्रह के बाद वह भी हो गया . उन्होंने कैंसर और टीबी के भी सारे टेस्ट करवा लिए और रूल आउट किया . मैं ठीक होकर आ गया . तीन महीने घर पर रहकर फिजियोथिरेपी करवाई तब चलना फिरना शुरू हुआ. इस बीच चिंता रहती थी कि जहां काम कर रहा था , वहां कोई नुक्सान न हो जाए लेकिन देशबंधु और टीवी 18 के अधिकारियों ने लगातार भरोसा दिलाया कि आप स्वास्थ्य ठीक करिए , सब ठीक हो जाएगा . मेरे खाते में नियमित रूप से मेरा वेतन आता रहा .
आज एक साल बाद उन घटनाओं को याद करता हूँ तो डर लग जाता है. इस बीमारी के दौरान मैंने सब के चेहरे देखे और मुझे साफ़ लगता था कि वे लोग घबडाए हुए थे लेकिन मेरी पत्नी चौबीसों घंटे अस्पताल में मेरे साथ रहते हुए कहती रहीं कि सब ठीक हो जाएगा . आज जो यह ज़िंदगी है यह इन्हीं लोगों की है जिन्होंने इसको बचाया . इंदु , पप्पू, गुड्डी, टीनीचा, बुलबुल, लालन ,सूबेदार, मुन्नी आज एक साल बाद मन कह रहा है कि तुम सबको एक साथ बैठाकर देखूं . तुम लोगों ने मुझे बचाया . वरना आज मैं न होता
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