Sunday, June 22, 2014

संसद की मंशा को नज़रंदाज़ करती नौकरशाही


शेष नारायण सिंह

सोलहवीं लोकसभा के गठन के साथ देश में नई सरकार बन गयी है . यह सरकार कई मायनों में ऐतिहासिक है . पहली बार केंद्र में ऐसी सरकार बनी है जिसका प्रधानमंत्री सच्चे अर्थों में गैर कांग्रेसी है और उसकी पार्टी को पूर्ण  बहुमत मिला है . इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी इकलौते गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री थे लेकिन उनकी पार्टी को  स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था . इस सरकार और संसद के सदस्यों को आगाह रहना चाहिए कि अगर ज़रा सा भी ग़ाफिल पड़े तो  नौकरशाही आम जनता के स्पष्ट जनादेश से चुनकर आयी सरकार की मंशा को भोथरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी . संसद द्वारा एक्ट पास करने के बाद इस एक्ट के आधार पर नियमावली बनाने की प्रक्रिया में आने वाली अडचनों से सांसदों और प्रधानमंत्री को सचेत रहना होगा .
 संसद भारत की सर्वोच्च संस्था है . देश की सरकार और अन्य सभी संस्थाएं संसद के प्रति  ही जवाबदेह हैं . देश का राजकाज संसद के नियम कानून से ही चलता हैं . भारतीय सविधान में ऐसी व्यवस्था है कि  देश की सभी संस्थाओं को अपना कार्य नियमानुसार करना पड़ता है . संसद का यह भी ज़िम्मा है कि वन यह सुनिश्चित करे कि  संसद की तरफ से बनाये गए कानून का पालन  होता रहे. संसद द्वारा पारित किसी भी एक्ट के हिसाब से नियम क़ानून बनाने का काम संसद ने सरकार को दे रखा  है .सरकार का ज़िम्मा है कि वह संसद की तरफ से पास हुए सभी कानूनों को लागू करने के लिए नियम बनाए क्योंकि  संसद का कोई भी एक्ट एक अमूर्त अवधारणा है . उसको लागू करने के लिए ज़रूरी नियम होने चाहिए . यही काम सरकार को अपने मंत्रालयों के ज़रिये करवाना होता है . लेकिन देखा यह गया है कि कई बार तो संसद के दोनों सदनों से पास होकर एक्ट दस से भी ज़्यादा साल तक पड़े रहते हैं .सम्बंधित मंत्रालय नियम नहीं बनाता . सरकारें आती जाती रहती हैं लेकिन संसद की गरिमा की अनदेखी होती रहती है . संसद में पारित एक्ट के हिसाब से जो नियम बनते हैं उनको अधीनस्थ विधान कहते हैं. हर मंत्रालय का ज़िम्मा है कि अगर उसके सम्बंधित विभागों के बारे में कोई विधेयक पास होता है तो वह अधीनस्थ विधान बनाए और उसको लेकर संसद के सामने पेश हो . उस विधान को भी संसद की मंजूरी मिलती है . जब अधीनस्थ विधान संसद में पेश किया जाता है तो माना जाता है कि संसद ने उसको देख लिया है और वह नियम संसद की तरफ से मंजूरशुदा मान लिया जाता है . लेकिन साल भर में जो सैकड़ों एक्ट पास होते हैं , उनके आधार पर बने हुए कानून को पूरी  तरह से जांच करने की संसद में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि हर नियम का बारीकी से अध्ययन किया जाए और अगर उसमें कोई खामी पाई जाए तो  सरकार को संसद की तरफ से हुक्म दिया जाए कि अधीनस्थ विधान में ज़रूरी बदलाव करके उसको संसद में पारित हुए एक्ट के हिसाब से बनाकर लाया जाए. इसके लिए संसद के दोनों सदनों में अधीनस्थ विधान संबंधी एक  कमेटी होती है जिसकी  ड्यूटी होती है कि वह यह देखे कि जो कानून बन कर आया है ,वह एक्ट के हिसाब से है कि नहीं . आम तौर पर पंद्रह सदस्यों की इस कमेटी के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी नियमों को देखे. इसलिए रैंडम तरीके से कुछ नियमवालियां ले ली जाती हैं, या अगर किसी सूत्र से पता चल जाता है कि मंत्रालय के अधिकारी गड़बड़ कर रहे हैं तो अधीनस्थ  विधान की कमेटी संज्ञान लेती है और जांच के बाद संबन्धित मंत्रालय को आदेश देती है कि अधीनस्थ विधान को  संसद के विधेयक के हिसाब से बनाकर लाओ. लेकिन ऐसा हो बहुत कम पाता है . नतीजा यह  होता  है कि नब्बे प्रतिशत मामलों में ऐसे कानून  बन जाते  हैं जो संसद में पारित एक्ट के अनुसार नहीं होते. इस सारी प्रक्रिया की जानकारी रखने वाले संसद के अन्दर के जानकारों ने बताया है कि अक्सर देखा गया है कि संसद कोई भी एक्ट पास कर ले मंत्रालय के अधिकारी लोग ऐसा नियम बना देते हैं जो एक्ट के हिसाब से बिलकुल  नहीं होता .कई बार तो यह नियम वास्तव में एक्ट के खिलाफ होते हैं .
यह कोई नई बात नहीं है . यह करीब पचास साल से चल रहा है . राज्य सभा में २४ मार्च १९७१ के दिन  पेश की गयी अपनी नौवीं रिपोर्ट में राज्यसभा की अधीनस्थ विधान की कमेटी ने लिखा था कि संसद से एक्ट पास होने केबाद जल्द से जल्द नियमावली बन जानी चाहिए लेकिन किसी भी हाल में यह समय सीमा छः महीने से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए . अपनी दसवीं रिपोर्ट में कमेटी ने कहा कि अगर ऐसी हालात पैदा हो जाएँ कि छः महीने में नियम नहीं बन पा रहे हैं तो मंत्रालय के सेक्रेटरी को चाहिए की वह संसद को अवगत करा दे और स्पष्ट तौर पर देरी  के कारणों की जानकारी दे. लेकिन सरकार के मंत्रियों और सचिवों के रवैय्ये के कारण अधीनस्थ विधान बनाने में देरी की बातों  को कम नहीं किया जा सका. १९८१ , २००१ और २०११ में दी गयी रिपोर्टों से भी साफ़ जाहिर है कि सरकारें संसद की गरिमा को वह महत्व नहीं देतीं जो उनको देना चाहिए . सवाल यह उठता  है कि अगर संसद में पारित हुए  कानून के हिसाब से देश का राजकाज इस लिए नहीं चल पा रहा  है कि मंत्री या उनके विभाग के सेक्रेटरी अपनी ड्यूटी सही तरीके से नहीं कर रहे हों तो यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है .
राज्यसभा की ताज़ा रिपोर्ट से भी इस तरह की बहुत सारी घटनाओं की जानकारी  मिलती है कई मामलों में तो  विलम्ब दस साल से भी ज्यादा का है .एन डी सरकार के वक़्त २००१ में एक एक्ट पास हुआ था . प्रोटेक्शन आफ फ़ार्म वराईटीज़ एंड फार्मर्स राइट्स एक्ट २००१ . रिपोर्ट लिखे जाने तक नियमावली नहीं बनी थी . कृषि मंत्रालय की तरफ से सात बार समय बढ़ाने की प्रार्थना की गयी लेकिन २०१२ में जब मंत्रालय का  अफसर तलब किया गया तो उन्होने बताया कि ज्यादातर नियम बन चुके हैं , कुछ नहीं बने हैं क्योंकि यह बहुत ही विशेष जानकारी पर आधारित एक्ट है इसलिए समय लग रहा है. कमेटी ने रिपोर्ट में लिखा है कि इसके बावजूद भी एक दशक का समय बहुत ज़्यादा है . यानी सरकार के कृषि मंत्रालय के गैरजिम्मेदार रुख के कारण इतना ज़रूरी एक्ट पास हो जाने के बार भी ठन्डे  बस्ते में पडा रहा .इस दौर में अजित सिंह , राजनाथ सिंह और शरद पवार कृषि मंत्री रहे लेकिन संसद के इस एक्ट की परवाह किसी को नहीं थी. यह तो कुछ नहीं है .अधीनस्थ  विधान की कमेटी ने अपनी ९९वीं रिपोर्ट में पर्यावरण और वन मंत्रालय से पूछा था कि खतरनाक केमिकल्स की पैकेजिंग के बारे में जो १९८९ में नियम बनाए  गए थे, उनके बारे में कमेटी की रपोर्ट में सुझाए गए आदेशों को क्यों नहीं ठीक किया गया .यानी बीस बीस साल तक सरकार के मंत्रालय कुछ करते  ही नहीं . यह विभाग संविधान में संशोधन करके केंद्र सरकार के पास विशेष अधिकार लेकर बनाया  गया था . इसका मकसद देश के पर्यावरण की रक्षा के साथ साथ आम आदमी  की ज़िंदगी को भी बेहतर बनाना था. चौथी पंचवर्षीय योजना में पर्यावरण के मुद्दों को ध्यान में रखकर समग्र विकास की बात की गयी थी. १९७६ में संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद ४८ ए जोड़ा गया  . संविधान में लिखा है कि " सरकार का प्रयास होगा कि पर्यावरण की रक्षा करे और उसमें सुधार करे  तथा देश के पर्यावरण और वन्यजीवन की रक्षा करे " इसी के तहत वन्यजीवन और वन विभाग को केंद्र सरकार के अधीन संविधान की कान्करेंट लिस्ट में लिया गया और राज्यों के कार्यक्षेत्र के ऊपर अधिकार दिए गए . उसके बाद १९८० में पर्यावरण और वन मंत्रालय बना . तब से अब तक की सभी सरकारों ने पर्यावरण को बहुत महत्व दिया .सभी पर्यावरण मंत्री पूरी दुनिया में घुमते रहे . पर्यावरण दुरुस्त करने की बहसों में शामिल होते रहे लेकिन अपनी संसद की इच्छा को सम्मान देने की जहां बात आयी  वहां ज़रूरी नियम कानून तक  नहीं बना सके. संसद की लाइब्रेरी में ऐसी बहुत सारी रिपोर्टें रखी हैं जिनमें संसद की भावना का सम्मान न करने की बहुत सारी जानकारियाँ है .मौजूदा सरकार अगर अपने मंत्रालय के अधिकारियों से यही काम करवा सके तो बड़ी बात होगी. 

4 comments:

  1. कल 24/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  2. नई जानकारियों और तथ्यों के साथ मोदी सरकार के लिए उचित सलाह देता है आपका लेख.

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  3. संसद की गरिमा से ही लोकतंत्र दुनिया में सबसे मजबूत माना जायेगा
    बहुत बढ़िया विचार मंथन प्रस्तुति

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  4. बहुत बढ़िया विचार प्रस्तुति

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