शेष नारायण सिंह
दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभरी आम आदमी पार्टी से देश की भावी राजनीति को दिशा मिल सकती है . चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस में ऐसा माहौल है जो सत्ताधारी पार्टी पर सवाल नहीं उठा सकती .देश की राजनीति की ज़रुरत है कि अब जनता राज करने वाली पार्टियों से मुश्किल सवालात पूछे . जनता की तरफ से सवाल पूछने का काम अब तक कम्युनिस्ट पार्टियां करती रही हैं लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीतिक हैसियत बहुत कम हो जाने के बाद हालात बदल गए हैं .सुकून की बात यह है कि आम आदमी पार्टी के रूप में एक ऐसी पार्टी राजनीतिक के मैदान में तैयार है जो दोनों ही बड़ी पार्टियों से मुश्किल सवाल पूछ रही है . इस बात की पूरी संभावना है कि अब इसी तरह के सवाल पूछे जायेगें क्योंकि सूचना क्रान्ति और आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुश्किल सवाल पूछने में कोई भी संकोच नहीं रह गया है . भ्रष्टाचार के आचरण को अपनी नियति मान चुकी राजनीतिक पार्टियों के बीच से आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसी घटना है जिसके बाद लोगों को लगने लगा है कि इस देश में परिवारवाद और मनमानी की राजनीतिक ताकतों को रोका जा सकता है .यह अलग बात है कि आम आदमी पार्टी में भी आजकल बहुत उठापटक चल रही है. कहीं कोई नाराज़ है तो कहीं ऐसे लोग पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं जो दिल्ली विधानसभा में अच्छे प्रदर्शन के बाद इस पार्टी से इसलिए जुड़ गए थे कि कुछ धंधा पानी चलेगा लेकिन पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र ज़बरदस्त है इसलिए बातें साफ़ होती नज़र आ रही हैं .
कांग्रेस पार्टी में लोकसभा चुनाव में हार के बाद अजीब माहौल है . आलाकमान कल्चर से अभिभूत पार्टी से किसी राजनीतिक लड़ाई की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है क्योंको वहां अभी भी ऐसे लोगों का वर्चस्व बना हुआ है जो पार्टी की बुरी तरह से हुयी पराजय के बाद भी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं . जो भी पार्टी बची है उस पर क़ब्ज़ा बनाए रखने की कोशिश चल रही है . पार्टी के नेताओं तक पंहुंच रखने वाले २४ अकबर रोड के हाकिम लोग , नए तरीके की सोच का कोई अवसर आला कमान तक नहीं पंहुचने देना चाहते हैं .अजीब मानसिकता है . लगता है की कुछ नया तामीर करने की इच्छा ही नहीं हैं , सभी मलबे के मालिक वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं . लेकिन दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने वाली आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जानी चाहिए. पिछले एक हफ्ते में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत हुई है जो कहते हैं कि यह पार्टी चल नहीं पायेगी या कि इसमें ऐसे नेता नहीं है जो साफ़ समझ के साथ राजनीति को दिशा दे सकें . इन बातों का कोई मतलब नहीं है .एक तो यह बात ही बेमतलब है कि आम आदमी पार्टी में सही राजनीतिक सोच के लोग नहीं है . हम जानते हैं कि वहाँ काम करने वाले , अरविन्द केजरीवाल ,मनीष सिसोदिया ,प्रशांत भूषण, आनंद कुमार , योगेन्द्र यादव, और संजय सिंह ऐसे लोग हैं जिन्होने इसके पहले कई बार स्थापित सत्ता के खिलाफ लोकतांत्रिक सत्ता की बहाली के लिए संघर्ष किया है और उनकी राजनीतिक समझ किसी भी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी से ज़्यादा है .इसलिए इन शंकाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . लेकिन इस से भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पार्टी का जो मुख्य रोल है उसमें इसने अपने आपको खरा साबित कर दिया है . स्थापित सत्ता के दावेदारों को चुनौती देकर आम आदमी पार्टी इस बात को पूरे देश में साबित करने में कामयाब हो गयी कि अवाम की तरफ से अगर सही सवाल पूछे जाएँ तो राजनीति की संस्कृति में परिवर्तन संभव है .
हालांकि कांग्रेस लोकसभा २०१४ में बुरी तरह से हार गयी है लेकिन उसको ख़त्म मान लेना किसी भी राजनीतिक विश्लेषक के लिए जल्दबाजी होगी .सच्चाई यह है कि सत्ताधारी पार्टी को चुनौती अभी भी कांग्रेस से ही मिलेगी . बस कांग्रेस को एक बार उस मानसिकता को अपनाना होगा जिसमें हारी हुयी फौजें हथियार दाल कर भाग नहीं खडी होतीं बल्कि अपने आपको रिग्रूप करती हैं . आलाकमान कल्चर को छोड़ना भी पड़ सकता है और आम आदमी पार्टी के राजनीतिक अभियान के तरीकों को अपनाना पड़ सकता है क्योंकि मूल रूप से वे कांग्रेस ई तरीके है जो आज़ादी के शुरुआती सत्रह वर्षों में अपनाए जाते रहे हैं . जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद कांग्रेस में साम्राज्यवादी पूंजीवादी ताक़तों को अवसर नज़र आने लगा था और इमरजेंसी में तो वही ताक़तें कांग्रेस की भाग्यविधाता बन बैठी थीं . नतीजा यह है कि आज भी जनता दो पार्टियों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी राजनीति के बीच पिस रही है . आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी खिड़की दे दी है जिसके रास्ते देश का आम आदमी स्थापित सत्ता की दोनों की पार्टियों को चुनौती दे सकता है . और यह कोई मामूली भूमिका नहीं है . १९७७ में जिस तरह से जनता ने चुनाव लड़कर उन लोगों को जिता दिया था जो स्थापित तानाशाही सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे ,उसी तरह इस बार दिल्ली विधानसभा में जनता ने आम आदमी पार्टी के उम्म्मीद्वारों को जिता कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर राजनीतिक समूह की नीयत साफ़ हो तो जनता के पास ताकत है और वह अपने बदलाव के सन्देश को देने के लिए किसी भी ईमानदार समूह का साथ दे देती है .और बदलाव की आंधी को गति दे देती है . १९७७ में तानाशाही ताकतों के खिलाफ हुई लड़ाई में जो नतीजे निकले उनके ऊपर उस दौर की उन पार्टियों के पस्तहिम्मत नेताओं ने कब्जा कर लिया जो इंदिरा गांधी की ताकत का लोहा मान कर हथियार डाल चुके थे . जनता पार्टी का गठन १९७७ के उस चुनाव के बाद हुआ जिसमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही हुकूमत को जनता पराजित कर चुकी थी . लेकिन जनता के उस अभियान का वह नतीजा नहीं निकला जिसकी उम्मीद की गयी थी. जेल से छूटकर आये नेताओं को लगने लगा कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता और उनकी अपनी राजनीतिक योग्यता के कारण १९७७ की चुनावी सफलता मिली थी . वे लोग भी सत्ता से मिलने वाले कोटा परमिट के लाभ को संभालने में उसी तरह से जुट गए जैसे उस पार्टी के लोग करते थे जिसको हराकर वे आये थे . नतीजा यह हुआ कि दो साल के अंदर ही जनता पार्टी टूट गयी और सब कुछ फिर से यथास्थितिवादी राजनीति के हवाले हो गया और संजय गांधी-इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर से सत्ता पर वापस आ गयी. आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे बहुत सारे लोग यही बात याद दिलाने की कोशिश करते हैं .
जनता पार्टी के प्रयोग को असफलता के रूप में पेश करने की तर्कपद्धति में दोष है .१९७७ में जनता पार्टी की चुनावी सफलता किसी राजनीतिक पार्टी की सफलता नहीं थी. वह तो देश की जनता का आक्रोश था जिसने तनाशाही के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया था. जनता के पास अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी ,उसने जनसंघ ,संसोपा,मुस्लिम मजलिस, भारतीय लोकदल ,स्वतन्त्र पार्टी आदि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को मजबूर कर दिया था कि इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई कि उसकी मुहिम में सामने आयें . जनता के पास राजनीतिक पार्टी नहीं थी लिहाज़ा जनता पार्टी नाम का एक नया नाम राजनीति के मैदान में डाल दिया गया . और इस तरह से बिना किसी तैयारी के जनता पार्टी का ऐलान हो गया . चुनाव आयोग के पास जाकर चुनाव निशान लेने तक का समय नहीं था लिहाजा चौधरी चरण सिंह की पार्टी , भारतीय लोकदल के चुनाव निशान ' हलधर किसान ' को जनता पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव निशान बना दिया गया . यह जानना दिलचस्प होगा कि १९७७ का चुनाव जीतने वाले जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार वास्तव में भारतीय लोक दल के संसद सदस्य के रूप में चुनकर आये थे और उसी पार्टी के सदस्य के रूप में उन्होने लोकसभा में सदस्यता की शपथ ली थी . मोरारजी देसाई जिस सरकार के प्रधानमंत्री बने थे वह भारतीय लोकदल की सरकार थी . सरकार बनाने के बाद इन लोगों ने १ मई १९७७ के दिन सम्मलेन करके जनता पार्टी का गठन किया और फिर हलधर किसान जनता पार्टी का चुनाव निशान बना . सब को मालूम है कि जनता पार्टी अपने नेताओं के स्वार्थ के कारण तहस नहस हो गयी और बाद के कई वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस विरोध की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि जनता पार्टी के प्रयोग ने संजय गांधी ब्रांड तानाशाही को रोक दिया था और दोबारा १९८० में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में ही उसकी वापसी हुई थी ,१९७५ की तानशाही की राजनीति को वह तिलांजलि दे चुकी थी.
१९७५ के जनता के आन्दोलन को उस समय की मौजूदा पार्टियों ने हडपने में सफलता हासिल कर ली थी क्योंकि उन दिनों जनता की तरफ से कोई राजनीतिक फार्मेशन नहीं था . आम आदमी पार्टी ने उस कमी को पूरा कर दिया है. आज जनता के पास उसका अपना विकल्प है और उसपर यथास्थितिवाद की पार्टियों का प्रभाव बिलकुल नहीं है .३७ साल पुराने जनता पार्टी के सन्दर्भ का ज़िक्र करने का केवल यह मतलब है कि जब जनता तय करती है तो परिवर्तन असंभव नहीं रह जाता .आम आदमी पार्टी के गठन के समय भी देश की जनता आम तौर पर दिशाहीनता का शिकार हो चुकी थी. देश में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं , कुछ राज्यों में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां तो नहीं हैं लेकिन वहाँ की मुकामी पार्टियों के बीच सारी राजनीति सिमट कर रह गयी है . जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है . उसे नागनाथ और सांपनाथ के बीच किसी का चुनाव करना है लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने विकल्प दिया था उसके बाद पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के बीच सक्रियता साफ़ नज़र आ रही है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद जनता की उन इच्छाओं को सम्मान मिलेगा जिसके तहत वे बदलाव कर देना चाहती हैं .
पिछले २० वर्षों की भारत की राजनीति पर नज़र डालें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी लोग राजनीतिक पदों पर नहीं पंहुचते ,देश का कोई भला नहीं होने वाला है .इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी ने की है लेकिन उनका राजनीतिक अर्थशास्त्र बहुत गड्ड मड्ड है. दिसंबर २०१३ में उद्योगपतियों की एक सभा में उन्होंने ऐलान कर दिया था कि वे पूंजीवादी राजनीति के समर्थक हैं . इसका मतलब यह हुआ कि वे चाकर पूंजी के लिए काम करेगें और उसी तरह से देश का भला करेगें जैसा ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश साम्राज्य और १९७० के बाद की बाकी सत्ताधारी पार्टियों ने किया है . केवल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाकी तो चाकर पूंजी की सेवा ही चल रही .राजनीतिक ऊहापोह की राजनीति से अगर आम आदमी पार्टी बाहर निकल सकी तो देश की भावी राजनीति में आम आदमी की भागीदारी के लिहाज़ से महत्वपूर्ण होगा . इस काम में ज़रूरी नहीं है कि अरविन्द केजरीवाल ने जो पार्टी बनाई है वह जनभावनाओं का हरावल दस्ता बने . कोई भी राजनीतिक समूह जो जनता की भागीदारी की बात करेगा वही वास्तव में इस देश की भावी राजनीति की दिशा तय करेगा . वह समूह कांग्रेस पार्टी भी हो सकती है .लेकिन उसके लिए कांग्रेस को अपनी कोटरी राजनीति की परम्परा को तिलांजलि देनी पड़ेगी .
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