शेष नारायण सिंह
साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम २०११ को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है . एक प्रतिष्ठित अखबार ने केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्रालयों के हवाले से खबर दी है कि नयी सरकार बनने के एक महीने बाद भी इस बिल के बारे में कोई चर्चा नहीं हुयी . सब को मालूम है कि जब पिछली सरकार के अंतिम दिनों में पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में इस बिल को पेश करने की डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने कोशिश की थी तो बीजेपी ने बहुत भारी विरोध किया था. उन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उनको बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा चुका था . वे पूरी तरह से चुनाव अभियान में लगे हुए थे. आर एस एस के सभी संगठनों ने हर स्तर पर इस बिल का विरोध किया था . चुनाव प्रचार की गहमागहमी के बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के पास एक चिट्ठी भेजी थी जिसमें इस बिल का घोर विरोध किया था .सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बिल को तैयार करने में भारी भूमिका निभाई थी . बीजेपी ने तो हर मोड़ पर इस बिल का विरोध किया था ,बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री , नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने भी इस विधेयक पर हमला किया था . उनका आरोप था कि इससे राज्यों के अधिकारों का उल्लंघन होता है. लेकिन तब भी सवाल उठे थे की क्या बीजेपी और अन्य लोगों के विरोध जायज़ थे . हालांकि तत्कालीन विपक्षी पार्टी बीजेपी का आरोप था कि इस बिल को अगर कानून बनने दिया गया तो और उसे लागू कर दिया गया तो न्याय के रास्ते में बाधा पड़ेगी क्योंकि बिल की भाषा ऐसी है कि उसके लागू होने से बहुसंख्यक समुदाय के साथ अन्याय हो सकता है .
इसके पहले भी कई बार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के बारे में बिल लाने की कोशिश हो चुकी है लेकिन यह पहले वाले प्रस्तावों की तुलना में अलग था .सरकार ने प्रस्ताव किया था कि हमले का शिकार बनने वाले कमजोर समुदाय की रक्षा करने और हिंसा को अंजाम देने वाले लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये नौकरशाही को ज़िम्मेदार ठहराया जाए और उनको सज़ा दी जाए. इसके पहले के सभी साम्प्रदायिकक दंगों में कभी किसी अफसर के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती थी . विधेयक में उस पुनर्वास और मुआवज़े के प्रावधानों को भी परिभाषित किया गया था . इसमें साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं की रोकथाम में सरकारी तौर पर क्या कदम उठाये गये, इसकी निगरानी करने के लिये राज्य और केंद्र के स्तर पर अधिकारियों को नियुक्त करने का भी प्रावधान था .लेकिन यह बिल कानून नहीं बन सका . उसका मुख्य कारण तो यह था कि सरकार अपने ही विरोधाभासों की शिकार थी , चारों तरफ असमंजस की स्थिति थी . बीजेपी ने आरोप लगाया था कि विधेयक विभाजनकारी है .यह केवल बहुसंख्यक समुदाय को हिंसा करनेवालों के बतौर पेश करता है और बहुसंख्यकों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता है.
इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी का विरोध राजनीतिक था. पुनर्वास, क्षतिपूर्ति, मुआवजा, इत्यादि के मामले में विधेयक में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच कोई भेद नहीं किया गया था .हर समुदाय के पीडि़त व्यक्ति के लिये एक ही प्रावधान था मगर इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान सरकारी कर्मचारियों के आचरण पर नियंत्रण रखने वाले कड़े प्रावधान थे. लगता है कि अति उत्साह में बिल को तैयार करने वालों से कहीं चूक तो हुयी थी क्योंकि उन्होंने यह मानकर बिल का मसौदा तैयार किया था कि जिन मामलों में हिंसा को अंजाम देने वाले अल्पसंख्यक सम्प्रदाय से आते हैं, या फिर पीडि़त व्यक्ति बहुसंख्यक सम्प्रदाय के सदस्य होते हैं, वैसे मामलों में सरकारी अफसर , पुलिस आदि कोई पक्षपात नहीं करते और अपने कर्तव्य का सही पालन करते है. मसौदे में यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि आजादी के बाद देश में साम्प्रदायिक हिंसा की अधिकांश संगठित कार्यवाहियों में अल्पसंख्यक समुदाय को ही निशाना बनाया गया है. इसका अर्थ यह कत्तई नहीं है कि मुसलमान या ईसाई कभी हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के अपराधी नहीं रहे या अपराधी हो नहीं सकते. लेकिन सबूत इस तथ्य को दिखलाते हैं कि यद्यपि मुसलमान और ईसाई लोग, सम्पूर्ण समाज में कुल मिलाकर अल्पसंख्यक हैं, लेकिन साम्प्रदायिक हिंसा के शिकारों में वे बहुसंख्यक हैं, और राजनीतिक नेतृत्व, पुलिस और नौकरशाही के अंदर वे तमाम किस्म के पक्षपात का मुख्य शिकार होते हैं. इस तथ्य को स्वीकार करने का मतलब पक्षपात करना या विभाजनकारी भूमिका निभाना नहीं है. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कानून और घरेलू हिंसा कानून इस किस्म के कानूनों के उदाहरण हैं जो इस बात को मंजूर करते हैं कि कुछेक समुदाय लक्षित हिंसा के शिकार बनते हैं और उनको सुरक्षा देना जरूरी होता है. उन्हें कारगर ढंग से सुरक्षा देना केवल तभी संभव होगा यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें.
मनमोहन सिंह की सरकार के समय में भी , सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय एकता परिषद के अलावा बहुत लोग इस बिल के पक्ष में नज़र नहीं आये . नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने तो विरोध किया ही , समाजवादी पार्टी ने भी इसे विवादास्पद बिल बताकर इसपर कोई पोजीशन नहीं ली . सच्ची बात यह है कि शासक कांग्रेस और धर्मनिरपेक्षता की कसमें खाने वाली अन्य पार्टियां भी विधेयक के पक्ष में नहीं खड़ी हुईं. अपनी सारी कमियों के बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये एक मज़बूत कानून बनाने से उसका असर क्या पड़ेगाउस पर चर्चा की जा सकती है लेकिन यह तय है कि आजकल जिस तरह से बड़े अधिकारी क़ानून की ज़द में आ रहे हैं उससे साफ़ है कि यह कानून सरकारी अफसरों को अपना काम न्याय से करने के प्रेरणा ज़रूर देता . लक्षित हिंसा एवं साम्प्रदायिक हिंसा में इन्साफ को किस तरह नकारा जाता है, इसकी एक मिसाल देना यहां काफी होगा। 1969 में तमिलनाडु के किझेवनमनी गांव में हुआ दलितों का कत्लेआम संगठित हिंसा के इतिहास में एक मील का पत्थर है .तमिलनाडु के दलितों को तब हमले का शिकार बनाया गया जब उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में मजदूरी के लिए हड़ताल की थी, हड़ताल को दबाने के लिए इलाके के ज़मींदारों ने गांव पर हमला किया और एक झोपड़े में अपनी जान बचा कर भागे 42 लोगों को मार डाला था। तुर्रा यह कि हमलावरों को सज़ा नहीं हुई . अदालत ने कहा कि इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि हमलावर पैदल उतनी दूर पहुंचे होंगे. और मुक़दमा खारिज हो गया।
इस बिल के उद्देश्य में इस बात को स्पष्ट तौर पर अंकित किया गया था कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों, किसी भी राज्य में रहनेवाले धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित हिंसा को निष्पक्ष होकर बिना किसी भेदभाव के रोकने एवं नियंत्रित के लिए प्रतिबध्द है ताकि कानून की नज़र में सबकी बराबरी के मूल सिद्धांत को मुक़म्मल तरीके से लागू किया जा सके . उम्मीद जताई थी कि संविधान के मूल अधिकारों में बताये गए धर्म का पालन करने के अधिकार , संपत्ति के अधिकार , अभिव्यक्ति के अधिकार आदि की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.
इस बिल के उद्देश्य में इस बात को स्पष्ट तौर पर अंकित किया गया था कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों, किसी भी राज्य में रहनेवाले धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित हिंसा को निष्पक्ष होकर बिना किसी भेदभाव के रोकने एवं नियंत्रित के लिए प्रतिबध्द है ताकि कानून की नज़र में सबकी बराबरी के मूल सिद्धांत को मुक़म्मल तरीके से लागू किया जा सके . उम्मीद जताई थी कि संविधान के मूल अधिकारों में बताये गए धर्म का पालन करने के अधिकार , संपत्ति के अधिकार , अभिव्यक्ति के अधिकार आदि की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.
अगर हम भारत में पिछले कुछ वर्षों की साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा की घटनाओं को देखें तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि कानून व्यवस्था की हिफाजत में तैनात मशीनरी की सक्रियता , संलिप्तता या निष्क्रियता से बहुत कुछ तय होता है। यह भी देखा गया है कि राज्य की सरकार का दंगों के प्रति जैसा भी रूख हो जिला स्तर पर प्रशासन में बैठे अधिकारियों के रूख पर बहुत कुछ निर्भर करता है. दंगों के खिलाफ बड़े पैमाने पर काम करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और साहित्यकार ,विभूति नारायण राय ने अपनी किताब में साफ लिख दिया है अगर पुलिस चाहे तो कोई भी दंगा 24 घंटे से अधिक नहीं चल सकता. हालांकि यह भी सरकारी तौर पर बताया जाता है की अफसरों और नेताओं को दण्डित करने की कवायद में छोटे पदों पर तैनात अफसरों को बलि का बकरा बना दिया जाता है और बड़ा अफसर साफ़ बच जाता है . ठंडे बस्ते में डाले गए बिल में प्रावधान था कि बड़े अफसर पर भी कार्रवाई होती और कम से कम दस साल की सज़ा उसे काटनी पड़ती .अब तक देखा तह गया है कि दंगों में संलिप्त रहे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करना अब तक कानून में मुश्किल रहा है क्योंकि उसके लिए राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। अब तक के कानून के हिसाब से बड़े अफसर पर कार्रवाई के लिए सरकार से यह इजाजत लेनी पड़ती है, जो आम तौर पर मिलती नहीं। इस बिल में इस दिक्क़त को दूर कर दिया गया था . प्रावधान किया गया था कि सरकार ने अगर तीस दिन के अन्दर अनुमति नहीं दी या अनुमति की अर्जी खारिज नहीं कर दिया तो अपने आप यह मान लिया जाएगा कि अनुमति मिल गयी . तीसरी महत्वपूर्ण बात, नुकसान की भरपाई से सम्बधित थी , जिसमें मुआवजे एवं पुनर्वास के ठोस नियम बनाए गए थे .इसका मानकीकरण किया गया था . जो अधिकारी की इच्छा पर नहीं बल्कि तार्किक आधार पर तय होता . यह नियम सभी के लिए थे चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय का हो या अल्पसंख्यक समुदाय का हो। बिल में यह व्यवस्था कर दी गयी थी कि सरकार किसी भी हालत में एक महीने के अन्दर मुआवजे का भुगतान करे। चौथी महत्वपूर्ण बात, साम्प्रदायिक या लक्षित हिंसा के बहुत पहले से ही अल्पसंख्यक या कमजोर समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषणों, बयानबाजी के जरिए माहौल में ज़हर घोला जाता है. भारतीय दण्ड विधान की धारा 153ए में ऐसे भड़काऊ बयान के लिए सज़ा तजवीज की गयी है, लेकिन बिल ने नफरत भरे प्रचार को नए सिरे से परिभाषित किया था . इसके अलावा उसने कई अन्य अपराधों को फिर से परिभाषित किया था . यंत्रणा, लैंगिक हिंसा, कर्तव्य न निभाना, संगठित एवं लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा.
इस बिल में निश्चित रूप से कुछ कमिया थीं लेकिन यह साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की दिशा में संसद की दखल का एक अहम् हथियार बन सकता था लेकिन जब प्रधानमंत्री ने चुनाव अभियान के दौरान अपने कई भाषणों में और गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए केंद्र को लिखे गए ओने पत्र में इस बिल को जब रेसेपी फार डिसास्टर की संज्ञा दे दी है तो इस बात की कोई संभावना नहीं है कि यह अपने मौजूदा स्वरुप में संसद के सामने पेश हो सकेगा .हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी स्तर पर बिना मुक़म्मल इंतज़ाम किये बिना साम्प्रदायिक हिंसा को नहीं रोक जा सकता . यह भी ध्यान में रखना पडेगा कि दंगे कहीं भी हों वे कानून व्यवस्था की श्रेणी में नहीं आते . वे देश की एकता पर सीधा चोट करते हैं और किसी भी सरकार को देश की एकता को बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दबाने के लिए सख्ती से निपटना पडेगा .