Thursday, November 26, 2020

पत्रकारिता: अधिकार और कर्तव्य के सवाल से नज़र हटेगी तो दुर्घटना हो जाएगी

 


 

शेष नारायण सिंह

 

 

एक बड़े टीवी चैनल के मालिक और मुख्य संपादक अरनब  गोस्वामी जेल से  बाहर आ गए . उनको किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था . अपने नए स्टूडियो को बनवाने के लिए उन्होंने किसी कंपनी को ठेका दिया था .  आरोप है कि उसका भुगतान नहीं कर रहे थे . उस व्यक्ति और उसकी मां ने आत्महत्या कर ली . मरने के पहले उन्होंने के सुसाइड नोट लिखा जिसमें  अरनब सहित तीन लोगों का नाम लिखा और यह लिखा कि इन लोगों ने उसका पैसा नहीं दिया था  इसलिए वह परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं . मौक़ा ए वारदात से पुलिस को  सुसाइड नोट मिला और केस दर्ज कर लिया गया .  लेकिन कुछ दिन बाद ही केस में रायगढ़ पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगा दिया और क्लोज़र के लिए दरखास्त दे दी . केस बंद हो गया . जिस  व्यक्ति ने आत्महत्या की थी उसकी पत्नी और बेटी कोशिश करते रहे लेकिन केस खुला नहीं . उनका आरोप है कि राज्य के तत्कालीन  मुख्यमंत्री के आदेश से केस बंद किया गया था . उन्होंने बार बार केस की दोबारा जांच की अर्जी दी लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. पिछले कुछ महीनों से अरनब गोस्वामी के चैनल पर महाराष्ट्र सरकार के मौजूदा मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के अधिकारियों के खिलाफ चुनौती  भरे समाचार प्रसारित किये जा रहे हैं . अरनब के  शुभचिंतकों का कहना है कि उनके चैनल के आचरण से सरकार नाराज़ हो गयी और उनके किलाफ़ कई मामलों में  मुक़दमे दर्ज कर लिए और एक पुराने केस पर नए सिरे से जांच के आदेश दे दिए . और गिरफ्तार कर लिया . हाई कोर्ट से ज़मानत नहीं मिली .मामला  सुप्रीम कोर्ट गया . सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि अरनब गोस्वामी को रिहा किया जाए .  भारतीय दंड संहिता की दफा 306 में की गयी उनकी गिरफ्तारी ऐसी नहीं है कि उनको ज़मानत न दी जा सके . उनको ज़मानत देकर भी आपराधिक मामले की  जांच  की जा सकती है . कोर्ट ने कहा कि कोर्ट इस बात से नाराज़ हैं कि संवैधानिक अदालतें लोगों की निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने में अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं . संविधान के अनुच्छेद 21 में व्यवस्था है  कि, किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। . संविधान के इसी प्रावधान के हवाले से माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अरनब गोस्वामी की रिहाई का आदेश दिया है . शुरू में उनके वकीलों और उनके समर्थक राजनीतिक पार्टियों ने प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार का ज़िक्र भी किया लेकिन जब यह बार बार साफ़ हो गया कि अरनब गोस्वामी की गिरफ्तारी पत्रकारिता के  किसी कार्य के कारण  नहीं की गयी थी तो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ( a  ) का हवाला देना बंद किया गया .भारत के  संविधान के मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . लेकिन इस आज़ादी का दुरुपयोग संविधान लागू होने के साथ साथ  शुरू हो गया . कुछ अखबारों ने दंगों के दौरान माहौल को  बिगाड़ना शुरू कर दिया . जब उनसे अधिकारियों ने जवाब  तलब किया तो उन्होंने कह दिया कि उनको  संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत कुछ भी बोलने या लिखने की आज़ादी है .  यह वह दौर है जबकि संविधान सभा के बहुत सारे सदस्य जीवित थे . उनको चिंता हुयी और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखा और संविधान लागू होने के कुछ महीने बाद ही संविधान में पहला संशोधन कर  दिया गया . उसी संशोधन के बाद अनुच्छेद  19 ( 1) और अनुच्छेद 19 ( 2   ) अस्तित्व में आये .   प्रेस या मीडिया की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्यूट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  अनुच्छेद (19 ) में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि पत्रकार को कुछ भी करके उसको पत्रकारिता बता देना अभिव्यक्ति की आज़ादी के संविधानिक अधिकारों की गारंटी से  बाहर है. किसी भी पत्रकार को व्यापार आदि में पत्रकारिता का कवर लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति पक्षपात का काम  नहीं करना चाहिए . संविधान में दी गयी किसी की निजी  आज़ादी के परखचे नहीं उड़ाने  चाहिए लेकिन अरनब गोस्वामी ने यह काम धड़ल्ले से  किया.  अपने चैनल पर किसी की गिरफ्तारी तो किसी की जयजयकार का सिलसिला शुरू कर दिया था . एक ख़ास राजनीतिक पार्टी को अपना आका बना लिया और उसके हर  गलत सही काम के समर्थन का अभियान चलाते थे . फिल्म अभिनेता  सुशांत सिंह की मौत के मामले में उन्होंने जिस तरह से अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी की मांग की वह  किसी भी तरह से पत्रकारिता  नहीं थी . रिया चक्रवर्ती और उसके परिवार वालों कुछ  चैनलों ने सूली पर चढाने का पूरा बंदोबस्त कर रखा था . इस काम में अरनब गोस्वामी सबसे आगे थे . रिया और उसके परिवार को भी तो देश के संविधान के अनुच्छेद 21 में वही अधिकार प्राप्त  है जिसको आधार बनाकर अरनब  को जेल से रिहा करने का आदेश दिया गया है . आज रिया चक्रवर्ती ज़मानत पर रिहा हो चुकी हैं लेकिन अरनब  गोस्वामी सहित कुछ पत्रकारों ने जिस तरह से उसके खिलाफ अभियान चलाया था उसके चलते देश का एक बड़ा वर्ग उसको अपराधी मानता  है . अरनब गोस्वामी ने रिया को बिना  जांच हुए ही दोषी सिद्ध कर दिया था .  ताजीरात हिन्द की दफा 306 में वर्णित आत्महत्या के लिए उकसाने के जिस मामले में वे जेल गए थे ,रिया पर उसी तरह का मामला बनाकर उन्होंने हफ़्तों उसकी गिरफ्तारी का अभियान  चलाया था  उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी रिहाई के बाद अरनब गोस्वामी और उनका चैनल ज़िम्मेदार पत्रकारिता करेंगें और उनके कारण कोई भी  निर्दोष व्यक्ति को सूली पर नहीं चढ़ाया जाएगा.

यह भी उम्मीद की जानी  चाहिए कि अब अरनब गोस्वामी  चारण पत्रकारिता या कंगारू कोर्ट  टाइप पत्रकारिता नहीं करेंगे और अपने  पेशे के प्रति ईमानदार रहेंगें . पत्रकारिता के क्षेत्र में  हमारे पूर्वजों ने जो मानदंड स्थापित किये हैं उनका सम्मान करेंगें क्योंकि उनकी  गिरफ्तारी के बाद उनकी संरक्षक पार्टी के वफादार कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी    पत्रकार उनके समर्थन में नहीं आया .मैं अरनब को पिछले 23 साल से जानता हूं उनकी गिरफ्तारी के बाद मैंने फेसबुक पर लिख दिया कि ,” अरनब गोस्वामी और हम एन डी टी वी की नौकरी के दौरान एक ही न्यूज़रूम में काम करते थे। हमारे अच्छे संबंध थे । जब वे टाइम्स नाउ शुरू करने गए तो हम भी एन डी टी वी से अलग हो गए थे। टाइम्स नाउ में अरनब ने मुझे एक पैनलिस्ट के रूप में सम्मान दिया और 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान मुझे अपने विश्वस्तरीय पैनल का हिस्सा बनाया। अरनब से मेरा परिचय 23 साल का है। अभी टीवी पर उनकी गिरफ्तारी की क्लिप देखी। बताया जा रहा है कि उनके ऊपर महाराष्ट्र में कोई पुलिस केस है जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी की गई। अगर अरनब के खिलाफ कोई केस है तो उनके साथ मारपीट किए बिना भी कानूनी कार्रवाई की जा सकती थी। अरनब के साथ हुए अमानवीय व्यवहार से मुझे बहुत तकलीफ हुई है।“ इसमें मैंने कहीं  नहीं कहा कि मैं उनकी पत्रकारिता का समर्थन करता हूं . मैंने तो केवल निजी संबंधों का उल्लेख भर किया था लेकिन उनके खिलाफ देश के प्रबुद्ध वर्ग में इतनी नाराजगी है कि  देश के बहुत सारे आदरणीय पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने  मुझे फोन करके सलाह दी कि आपको अरनब का समर्थन नहीं करना चाहिए . इसका मतलब यह है कि पत्रकार के काम की भी सीमाएं तय हैं . वे सीमाएं हमारे आदर्श बुजुर्गों ने  ही हमारे सम्मान के लिए तय कर रखी  हैं . उन सीमाओं के अंदर  रहकर हमें अपना काम  करना चाहिए ,किसी का ढिंढोरची बनकर  नहीं  .

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