Wednesday, June 3, 2020

क्या संयुक्त राष्ट्र संघ को अलविदा कहने का मोड़ आ गया है ?



शेष नारायण सिंह

आज हम आर्थिक तबाही एक एक दौर में जी रहे  हैं . कोरोना वायरस के कारण  लगभग  सभी देशों की अर्थव्यवस्था   डावांडोल हो रही है . जानकार बताते हैं कि यूरोप के देशों की  संपत्ति को भारी नुक्सान हो चुका है . जितना आर्थिक नुकसान दूसरे विश्वयुद्ध के पांच वर्षों में हुआ  थाउतना तो अभी तक कोरोना के कारण हो चुका है . सबको  मालूम है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद   संसार में भारी बदलाव हुए थे . जो देश जीत गए थे उन्होंने प्रभाव  क्षेत्र को माले-ग़नीमत समझ का बँटवारा कर लिया था . संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म भी दूसरे विश्वयुद्ध की कोख से ही हुआ था .आक जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता  है कि  उसका मुख्य काम विजयी राष्ट्रों की ताक़त को और पुख्ता करना था. कोरोना से हुए  नुकसान के आकलन का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ  है .लेकिन एक बात पक्की  है कि पूरी दुनिया में जान माल की भारी तबाही हो रही है .   यह तबाही अभी और  कितना होगी उसका  अंदाजा लगाना भी लगभग असंभव है . लेकिन  एक बात  भरोसे के साथ कही जा सकती है  कि अब दुनिया में राजकाज के  तरीके में निश्चित बदलाव आयेगा . लोकतंत्र का स्वरुप क्या होगा कोई नहीं बता सकता . कई राजनीतिक वैज्ञानिकों से बात करने से पता चलता है कि किसी को कुछ पता नहीं है , सब अँधेरे में टामकटोइयां मार रहे हैं . इस सारी अनिश्चितता के माहौल में एक भविष्यवाणी पूरे  भरोसे के  साथ की जा सकती है कि  उत्तर कोरोना युग में संयुक्त राष्ट्र की सत्ता तो समाप्त हो ही जायेगी .  संयुक्त  राष्ट्र की आम   सभा तो अब केवल राष्ट्राध्यक्षों के बयान पढने का मंच बन कर रह गया  है . सुरक्षा परिषद भी अब बिलकुल प्रभावहीन हो गया है . इसलिए उसकी भी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है . ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र से संबंद्ध  बहुत सारी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है .  संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में सबसे ताक़तवर संस्था सुरक्षा परिषद थी . वीटो पावर वाली उसकी स्थाई सदस्यता दूसरे विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों के लिए रिज़र्व थी. स्थापना के समय अमरीका ब्रिटेनफ़्रांस सोवियत रूस और चीन को सदस्यता दी गयी थी . इसमें दिलचस्प बात यह थी कि जिस चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दी गयी थी वह  जनरल च्यांग कई शेक वाला चीन था . बाद में १९४९ में चीन में  कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में क्रान्ति के ज़रिये सत्ता बदली और चीन पर  माओ के  नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी  ने  क़ब्ज़ा कर लिया . च्यांग कई  शेक देश छोड़कर भाग खड़े हुए और चीन के एक  प्रांत ताइवान में अपना ठिकाना बनाया .अमरीका ने चीन के उस इलाके को ही रिपब्लिक आफ चीन का नाम दे दिया और १९७१ तक उसको ही सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाए रखा. बाद में जब निक्सन राष्ट्रपति बने तो उनके विदेशमंत्री हेनरी  कीसिंजर ने तिकड़म करके  मुख्य चीन को पीपुल्स रिपब्लिक आफ चीन  के नाम से उस सीट पर स्थापित किया . यह खेल कम्युनिस्ट पार्टी के  नियंत्रण वाले सोवियत यूनियन को कमज़ोर करने के लिए  किया गया था क्योंकि तब तक चीन और सोवियत यूनियन की स्टालिन के समय वाली दोस्ती समाप्त हो चुकी थी और चीन सोवियत यूनियन का विरोधी हो चुका था. कीसिंजर को उम्मीद थी कि कोल्ड वार में  चीन का इस्तेमाल  सोवियत संघ के खिलाफ  किया जा सकता था.
सुरक्षा परिषद के ज़रिये अमरीका पूरी दुनिया में मनमानी  करता रहा था  . भारत को भी अमरीकी बाहुबल का अंदाजा लगा गया जब कश्मीर मामले में अमरीका ने खुलकर पकिस्तान का साथ दिया .उसके बाद ही जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि दोनों चीन और सोवियत यूनियन से समान दूरी बनाते हुए नवस्वतंत्र देशों का एक संगठन बनायेंगे. भारत की विदेशनीति का आधार ही अमरीका पर अविश्वास के साथ शुरू हुआ. यह बात १९७१ में बिलकुल  सही और उपयोगी साबित हुयी जब  बंगलादेश के मुक्ति संग्राम में अमरीका खुलकर भारत का  विरोध कर रहा था . बाद में जब  कोल्ड वर ख़त्म हुआ . सोवियत संघ का विघटन हुआ. पूर्वी यूरोप के देशों में   कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता समाप्त हुई तो विश्व राजनीति में  अमरीका का पलड़ा भारी  हो गया . भारत की अगुवाई में चल  रहा निर्गुट देशों का  संगठन NAM कमज़ोर पड़ गया . भारत की नीति भी अमरीका परस्ती की  तरफ चल पड़ी . बात यहाँ तक  पंहुच गयी कि भारत के प्रधानमंत्री ने  निर्गुट देशों के शिखर सम्मलेन में  हिस्सा ही नहीं लिया . वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्गुट देशों का शिखर सम्मेलन वेनेज़ुएला और अज़रबैजान में  हुआ. भारत के प्रधानमंत्री ने एक में  भी शिरकत नहीं की लेकिन अभी पिछले हफ्ते कूटनीतिक खबरों पर नज़र रखे वालों को आश्चर्य हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविद-१९ पर हुए  निर्गुट देशों के सम्मलेन में वीडियो कान्फरेंसिंग के ज़रिये शिरकत की. ऐसा लगता है कि अब भारत की समझ में भी आने लगा है कि अमरीका परस्त विदेशनीति से कोई लाभ नहीं होने वाला है . इसलिए निर्गुट देशों के सम्मलेन को फिर से सक्रिय कारने की किसी योजना पार काम हो रहा है . यह बात एक और संकेत भी देती है कि उत्तर कोरोना युग में जब संयुक्त राष्ट्र बेमतलब हो जायेगा तो  तीसरी दुनिया के देशों को चीन की झोली में जाने से रोकने के लिए निर्गुट सम्मलेन एक महत्वपूर्ण संगठन  साबित हो सकता है .


संयुक्त राष्ट्र के समाप्त होने के  कारणों में उसकी उपयोगिता का सवाल तो है ही , उसमें होने वाले भारी खर्च पर भी सवाल उठेंगे. उसके  अंतर्गत काम करने वाली बीसियों  संस्थाएं हैं . उनके खर्च का बहुत बड़ा बजट होता है . संयुक्त राष्ट्र के खर्च के लिए  सदस्य देशों को चंदा  देना पड़ता है .  खर्च चलाने में अमरीका से मिलने वाली धन राशि का सबसे बड़ा हिस्सा होता है . अपने सबसे बड़े योगदान के बल पर अमरीका बाकी दुनिया के  देशों में अपनी चौधराहट कायम करता है . इराक में परमाणु ऊर्जा एजेंसी का इस्तेमाल अमरीका ने इराक पर  हमला करने के लिए किया था .विश्व बैंक का इस्तेमाल भी अमरीकी हित के लिए सबसे ज़्यादा होता रहा  है .  लेकिन अब हालात बदल  रहे हैं .  चीन अब   अमरीकी हित के बहुत सारे मामलों को सफल नहीं होने देता .जी- आठ के सभी सदस्य देशों की  आर्थिक हालत उत्तर कोरोना समय में बहुत अच्छी  नहीं  रहने वाली है. इसके पलट चीन की अर्थव्यवस्था उत्तर कोरोना युग में मज़बूत रहने वाली   है . ज़ाहिर है वह अपनी आर्थिक ताक़त   के माध्यम से  संयुक्त राष्ट्र में अपना दबदबा बनाने की कोशिश करेगा और दुनिया के उन देशों को एकजुट करेगा जो उसकी सहायता के मोहताज हैं  आज भी ऐसे देशों की संख्या बहुत है.   आज भी यूरोप और चीन से सबसे ज्यादा चंदा संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में आता  है.  जब यह बात साफ़ हो जायेगी कि संयुक्त चीन के प्रभाव को बढाने के लिए इस्तेमाल होने जा रहा है तो अमरीका सहित पश्चिमी देश उसमें आर्थिक योगदान नहीं देंगे. संयुक्त राष्ट्र के संगठन ,विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO ) को अमरीकी राष्ट्रपति कई बात चीन की कठपुतली बता  चुके हैं और उसको किसी तरह का चंदा देने से मना कर चुके हैं . ज़ाहिर है अन्य संगठन भी अमरीकी राष्ट्रपति के गुस्से का शिकार हो सकते हैं . और इस मंदी के दौर में चीन को ताक़तवर बनाने के लिए अमरीका कोई भी धन नहीं देगा . ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बंधित  संगठनों का भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा है . 

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