Thursday, December 27, 2018

कश्मीरनामा' इतिहास भी है और साहित्य भी - एक मुकम्मल किताब



शेष नारायण सिंह

हिंदी  में कश्मीर के बारे में एक मुकम्मल किताब . जब वर्धा के अशोक मिश्र ने नामी कवि और लेखक ,अशोक कुमार पाण्डेय की किताब 'कश्मीरनामा ' को पढ़कर कुछ लिखने के लिए कहा तो बहुत उत्साहित नहीं था. 'कश्मीरनामा' बहुत पहले से चर्चा में थी लेकिन मैं  पढ़ नहीं पाया था .अशोक मिश्र के आग्रह को मना कर पाना असंभव था. और जब पढ़ना शुरू किया तो पढता ही गया . कश्मीर के मामले में एक सामान्य व्यक्ति को जो कुछ भी जानना चाहिए सब एक ही किताब में लिख दिया गया  है . हिंदी में बहुत अच्छे गद्य की जो कुछ किताबें उपलब्ध हैं , अशोक कुमार पाण्डेय की कश्मीरनामा उसमें सरे-फेहरिस्त मानी जायेगी . मेरे लिए इस किताब का पढ़ना उस यात्रा से गुज़र जाना भी है जब आज से करीब ३५ साल पहले मैंने, स्व बलराज पुरी के साथ दक्षिण दिल्ली के गुलमोहर पार्क में शुरू की थी . वे जब भी दिल्ली आते थे ,उनकी ज़बानी कश्मीर के समकालीन इतिहास की बहुत सारी घटनाओं को ध्यानमग्न होकर मैंने सुना था. बलराज पुरी कश्मीरी मामलों के आला मेयार के जानकार थे . शेख अब्दुल्ला के साथ काम किया था और बहुत सारी घटनाओं को उन्होंने देखा तो था ही , कुछ में बाकायदा शामिल भी हुए थे. वे  पंजाबी के साहित्यकार प्यारा सिंह सहराई के दोस्त थे और हम  सहराई जी के भांजे क्योंकि मेरी पत्नी को सहराई जी अपनी भांजी मानते हैं . अशोक कुमार पाण्डेय की किताब  को पढने के बाद मैं इसको एक बेहतरीन किताब  मानता हूँ . यह एक लोकप्रिय किताब है और साल भर बीतने के पहले ही इसका दूसरा संस्करण आ चुका है . हमारे समकालीन  जनबुद्धिजीवी( Public Intellectual) पुरुषोत्तम अग्रवाल ने किताब के आमुख में बहुत अच्छी बातें लिखीं  हैं . शुरू में लगा कि उन्होंने कुछ ज़्यादा तारीफ़ लिख दिया है लेकिन अब मैं मुतमइन हूँ कि अपनी प्रकृति के हिसाब से ही पुरुषोत्तम ने लिखा है . कश्मीर की संस्कृति ,इतिहास ,समाज आदि के बारे में उपलब्ध सामग्री को अशोक कुमार पाण्डेय की पारखी नज़र ने  इतिहास की किताब को साहित्य की किताब भी बना दिया है. पूरी किताब में इतिहास की कसौटी पर परखी गयी सच्चाइयों को वे एक दास्तानगो की तरह बयान करते  जाते हैं  और आप कठोर से कठोर सत्य  आत्मसात करते रहते हैं. हिंदी  साहित्य की बारीकियों की समझ मुझे बिलकुल नहीं है लेकिन एक आम पाठक के रूप में मैंने इस किताब को बहुत पसंद किया  . अशोक कुमार पाण्डेय की शैली के अनुभव के लिए किताब के कुछ अंश देखना उपयोगी होगा .शेख अब्दुल्ला की राजनीति की शुरुआत को जिस तरह से चित्रित किया  गया  है वह  लाजवाब है . १९३१ के जनविद्रोह के बारे में 'कश्मीरनामा' के पृष्ठ २३५ में लिखा है .,". 29 अप्रैल, 1931 को जम्मू में वह घटना हुई जिसने बारूद में तीली लगाने का काम किया. ईद के समारोह के दौरान जब इमाम ख़ुतबा पढ़ने लगे तो खेम चंद नामक एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें ऐसा करने से रोकाजबकि ख़ुतबा परम्परा से हमेशा इस मौक़े पर पढ़ा जाता था. मुसलमानों ने इसे अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप क़रार दिया और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. अभी इस मुद्दे की आग बुझी भी नहीं थी कि जुलाई में जम्मू की पुलिस लाइन में एक और घटना घटी. प्रेमनाथ बज़ाज़ बताते हैं कि एक हिन्दू हेड कॉन्स्टेबल लाभो राम ने अपने अधीनस्थ एक मुस्लिम कॉन्स्टेबल के समय से काम पर न आने के कारण उसका बिस्तर उठा कर फेंका जिसमें उसके बिस्तर में रखा पंजसुरा (क़ुरान का एक हिस्सा) भी फिंक गया. लेकिन ख़ुतबा वाली घटना पर सभी लेखक जहाँ एकराय हैं वहीं इस घटना को लेकर उनमें पर्याप्त मतभेद है. हसनैन ने बिस्तर फेंकने की घटना का ज़िक्र न करते हुए मुस्लिम कांस्टेबल के नमाज़ पढ़ते समय हिन्दू हेड कॉन्स्टेबल द्वारा क़ुरान (पंजसुरा नहीं) फेंके जाने की बात कही है. एम जे अकबर ने लाहौर के आल-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस के सालाना जलसे से लौटते युवाओं के आन्दोलन के दौरान एक कांस्टेबल के क़ुरान फेंकने की बात कही है. शेख़ अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी में लिखा है कि लाभो राम ने अपने एक साथी के झोले से क़ुरान निकाल कर फाड़ दी. मृदु राय पुलिस विभाग की तत्कालीन पाक्षिक रिपोर्ट के हवाले से बताती हैं कि उस समय अफ़वाह थी कि एक हिन्दू पुलिस हेड कांस्टेबल ने अपने अधीनस्थ कांस्टेबल को नमाज़ पढ़ने से रोका और फिर क़ुरान का अपमान किया गयापाया गया कि घटना को बहुत बढ़ा चढ़ा के बयान किया गया है. 

ऐसा लगता है कि वे अफवाहें कभी नहीं थमीं. प्रेस और छापेखाने पर पूरी तरह से पाबंदी के कारण लोगों ने जो जाना वह अफ़वाहों या फिर पंजाब से छपने वाले हिन्दू/मुस्लिम अख़बारों से ही जाना. यह वह जगह है जहाँ से एजेंडा सेट होने शुरू होते हैं अपने-अपने एजेंडे के अनुसार इस तरह के मतभेदघटनाओं की चयनित प्रस्तुति और अप्रस्तुति बहुत सामान्य होती चली जाती है. यह वह जगह से जहाँ से कश्मीर का आधुनिक इतिहास शुरू होता हैजहाँ से घटनाएँ बिजली की गति से आकार लेना शुरू करती हैं और उस हाथी की तरह होती जाती हैं जिसके अलग-अलग हिस्सों को छू-छू कर लोग उसके आकार का अनुमान लगाते हैं- फ़र्क बस इतना है कि यहाँ देखने वाले अंधे नहीं हैंउन्होंने आँखें मूँदना और खोलना चुना है. इसीलिए इन्हें पढ़ते हुए पाठकों को और अधिक सावधान होने की ज़रूरत है.  
यह शायद कोई कभी नहीं जान पायेगा कि उस पुलिस लाइन में उस दिन हुआ क्या थालेकिन उसकी जिस तरह की प्रक्रिया हुई उसे देखने-समझने के पहले एक और तथ्य को जान लेना आवश्यक है. गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान हरि सिंह के भाषणों ने ब्रिटिश शासन को काफी चौंकाया था. उन्होंने ख़ुद को पहले भारतीय ही नहीं बताया था बल्कि कुछ ऐसी बातें कही थीं जो ब्रिटिश शासन के लिए सहनीय नहीं थीं. यही नहीं अपने शासकीय व्यवहार में वह प्रताप सिंह से उलट ब्रिटिश रेजीडेंसी को वह महत्त्व नहीं देते थे. ज़ाहिर है अंग्रेज़ ऐसे व्यवहार से नाख़ुश थे. इधर सविनय अवज्ञा आन्दोलन से बाहर रहे साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठन उन्हें कांग्रेस के ख़िलाफ़ अपने तत्कालीन सहयोगी के रूप में मिले थे. प्रेमनाथ बज़ाज़ सहित कई लेखकों का मानना है कि अपनी इसी नीति के तहत अंग्रेज़ों ने न केवल इस आन्दोलन को नियंत्रित करने में समुचित सहयोग नहीं दिया बल्कि जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा भी दिया. यह भी सच है कि देश के अनेक हिस्सों और ख़ासतौर पर पंजाब से विभिन्न संगठनों और अखबारों ने इस आन्दोलन को भड़काने में अहम भूमिका निभाई. यह कहना बलराज मधोक या फिर उनके वैचारिक सहयोगियों के लिए बेहद सुविधाजनक भी है. लेकिन क्या यह उन अत्याचारों और साम्प्रदायिक नीतियों की उपस्थिति में संभव था जिसकी वज़ह से कश्मीरी मुसलमान ख़ुद को लगातार उपेक्षितपीड़ित और हिन्दू आबादी के सम्मुख भेदभाव से ग्रसित व्यवहार का शिकार महसूस कर रहे थेअगर कश्यप बन्धु जैसे पंडित अपनी बिरादरी को सत्ता के समरूप कह रहे थे तो उस सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े कश्मीरी मुसलमान उन्हें अपना साथी कैसे मान सकते थेआज जब हम कश्मीर में पाकिस्तान के हस्तक्षेप की बात करते हैंवहाँ साम्प्रदायिकता के बढ़ने की बात करते हैं और बलराज मधोक के वैचारिक उत्तराधिकारी इसके लिए कश्मीरियों को ही दोषी ठहराते हुए कड़ी कार्यवाहियों की वक़ालत करते हैं तो इस घटना का ऐतिहासिक महत्त्व और बढ़ जाता है और यह एहसास भी कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम उससे कोई सबक नहीं सीखते.

इसके पहले कश्मीर के बारे में सारी ज़रूरी जानकारी है .वे सभी दस्तावेज़ भी किताब में संलगन हैं जिनको कश्मीर का समकालीन इतिहास समझने के लिए ज़रूरी माना जाता  है . १६ मार्च १८४६ की अमृतसर संधि ,स्टैंडस्टिल समझौता,  ताशकेंत समझौता, शिमला समझौता सब कुछ एक जगह पर इकट्ठा कर दिया  गया है . इतिहास में शेख अब्दुल्ला की  सही भूमिका को बहुत ही वस्तुवादी तरीके से रिकार्ड किया गया है . कश्मीर  के समकालीन इतिहास के बारे में  बहुत सारी भ्रांतियां हैं और यह किताब उनको साफ़ करने में अहम भूमिका निभाती है .अक्टूबर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत सरदार पटेल की राजनीतिक ताकत के कारण ही हुआ लेकिन वे बहुत उत्साहित  नहीं थे. वे हरी सिंह के पाकिस्तानियों के साथ हुए स्टैंडस्टिल समझौते से बहुत नाराज़ थे .हालांकि यह भी सच है कि उस दौर में  जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन जिस पाकिस्तान  जनता की राय लेने के खिलाफ था . पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर कश्मीरी अवाम की बात को न मानने का खेल रचा था . बाद में पाकिस्तान ने जनमत संग्रह का समर्थन करना शुरू कर दिया . अब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में अपने एजेंट छोड़ रखे हैं जिन्होंने वहां पर माहौल को बिलकुल बिगाड़ रखा है .बहुत बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई है . इसलिए पाकिस्तानी सेना की मर्जी से वहां जनमत संग्रह कराने की बात को कोई नहीं स्वीकार कर सकता . 

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे,पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा. 

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टूबर  १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और राजा के अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने दावा किया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."

कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरबइरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी . इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता. 

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानोंसिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजाहरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेताशेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया था .इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैरकानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देशद्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अब्दुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख अब्दुल्ला ऐसा कुछ भी लिखकर देने को तैयार नहीं थे . शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियोंबख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर ठहरे . कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही कश्मीरी प्रधानमंत्री लियाक़त अली ने उनको समय दिया . शेख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्रीमेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है. 

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयीऔर शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी . लंच में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. 

कश्मीर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. उसमें से जो भरोसे लायक है , 'कश्मीरनामा ' में उसका हवाला लिया  गया है . मूल स्रोतों का भी वैज्ञानिक तरीके से इस्तेमाल किया गया है . संस्कृत पर फारसी में भी कश्मीर के इतिहास के बारे में बहुत सारी मूल सामग्री है जिसका अशोक पाण्डेय ने  सम्यक इस्तेमाल किया  है .

 

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