Tuesday, February 6, 2018

मुश्किलों से मुक़ाबिल पत्रकारिता को सूचनाक्रांति ने पत्रकारिता का स्वर्णयुग बना दिया है



शेष नारायण सिंह 

पत्रकारिता का काम बहुत ही कठिन दौर  से  गुज़र रहा है .महानगरों से लेकर  दूर दराज़  के गाँवों में रहकर काम करने वालों की आर्थिक व्यवस्था बहुत सारे मामलों में चिंता का विषय है .यह ऐसा संकट है  जिसके कारण कई स्तर पर समझौते हो रहे हैं और सूचना के  निष्पक्ष  मूल्यांकन का काम बाधित हो रहा है . देश के कई बड़े अख़बार अपने कर्मचारियों  का आर्थिक शोषण करते हैं . उनसे पत्रकारिता से इतर काम करवाते हैं मालिक लोग  निजी संपत्ति में वृद्धि के लिए अखबार और पत्रकार की छवि का इस्तेमाल करते  हैं.  अखबार मालिकों का यही वर्ग  है  जहां पिछले वर्षों मजीठिया की वेतन संबंधी सिफारिशों को बेअसर  करने के लिए तरह  तरह के  तिकड़म किये गए थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना  करने वाले यह अखबार पत्रकारों के शोषण के भी सबसे बड़े हस्ताक्षर हैं . यह मालिक लोग वेतन इतना कम देते  हैं कि दो जून की रोटी का भी इंतजाम न हो सके . और उम्मीद करते हैं कि छोटे शहरों में उनके कार्ड को लेकर पत्रकारिता करता पत्रकार उनके लिए विज्ञापन भी  जुटाए . नाम लेने के ज़रूरत नहीं है लेकिन दिल्ली में ही नज़र दौड़ाने पर इस तरह के अखबारों और टीवी चैनलों के बारे में जानकारी मिल जायेगी .एक संस्मरण के माध्यम से इस बात को रेखांकित करना उचित होगा. हमारे एक  स्वर्गीय मित्र को करीब बीस साल पहले एक अख़बार  का राजस्थान का ब्यूरो प्रमुख बना दिया गया .    कह दिया गया कि आप जल्द से जल्द  जयपुर जाकर काम शुरू कर दीजिये .  वे परेशान थे कि वेतन की कोई बात किये बिना कैसे  जयपुर चले जाएँ .  अगले दिन फिर वे मालिक- सम्पादक से मिले और  कहा कि पैसे की कोई बात नहीं हुई  थी इसलिए मैंने सोचा कि स्पष्ट बात कर लूं .  मालिक-सम्पादक ने   छूटते ही कहा कि ,आप से पैसे की क्या बात करना है . आप हमारे मित्र हैं जाइए काम करिए और तरक्की करिए. संस्था को बस पचास हज़ार रूपये महीने भेज दिया करिएगा ,बाकी सब आपका .  दफ्तर का खर्च निकाल कर सब अपने पास रख लीजिये . पत्रकारिता की गरिमा को कम करने में इन बातों का  बहुत योगदान है .

प्रेस की आज़ादी सबसे ज़रूरी बात है  लेकिन आजकल वह सबसे ज़्यादा मुश्किल में है .उसको बाधित करने के बहुत   सारे तरीके सिस्टम में मौजूद हैं  .अक्सर  देखा गया है कि सिस्टम किस तरह से दखल देता है . ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के पास हिदायत आ जाती है कि कुछ ख़ास लोगों के खिलाफ खबर नहीं चलाना है . लेकिन नीचे वालों को इस तरह से समझाया जाता था जिससे  उन्हें  मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . मुझे जब   बीस साल पहले टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह शुरुआती काल था . अखबार से आये एक व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर व्यवस्था ने ऐसा सिस्टम बना दिया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. आज बीस साल बाद सब कुछ बदल गया है ,सिस्टम अपना काम कर रहा है और कुछ ख़बरें नज़रंदाज़ की जा रही  हैं और कुछ ऐसे मुद्दों को बहुत बड़ा बताया जा  रहा  है जिनके खबर होने पर ही शक रहती है. इसके चलते पत्रकार बिरादरी को बड़ा कष्ट है .कई बार तो इन बड़े लोगों के कारण साधारण पत्रकार की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं
लेकिन उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है ,अभी  उम्मीद  बाकी है . सूचना क्रान्ति ने अपने देश में पाँव जमा लिया  है .भारत के सूचना टेक्नालोजी के जानकारों की पूरी दुनिया में हैसियत बन चुकी है .इसी सूचना क्रान्ति की कृपा से आज वेब पत्रकारिता सम्प्रेषण का ज़बरदस्त माध्यम बन चुकी  है . वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है .अब लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों के वेब  पोर्टल हैं  . लेकिन बहुत सारे  स्वतंत्र पत्रकारों ने भी इस दिशा में ज़बरदस्त तरीके से हस्तक्षेप कर दिया है . इन स्वतंत्र पत्रकारों के पास साधन बहुत कम हैं लेकिन यह हिम्मत नहीं हार रहे  हैं . उनको आधुनिक युग का अभिमन्यु कहा जा सकता  है . मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगें .हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है .. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं . कल्पना कीजिये कि वेब के ज़रिये राडिया काण्ड का खुलासा न हुआ होता तो नीरा  राडिया की सत्ता की  दलाली की कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते..लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टी वीप्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें ..

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है . इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक न पंहुचाया जा सकता. और जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टी वी चैनलों में मौजूद सेठ के कंट्रोल से आज़ाद हो कर काम करने वाले पत्रकारों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है . इन्हें किसी कर डर नहीं है यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है ..कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टी वी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं . वहां  बहुत अच्छे पत्रकार  हैं और जब वे अपने मन की बात लिखते हैं तो वह सही  मायनों में पत्रकारिता होती है

मुझे उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि आज के पत्रकार सोशल मीडिया के ज़रिये अपनी बात डंके की चोट कह रहे  हैं .  आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है . मीडिया के यह नए जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर तलक जा रही है . राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा था  वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है .. ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें . जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है . इस से बहुत ही कमज़ोर एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है . उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे . इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं . . यानी जनता के हक को छीनने की जो पूंजीवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दल तो शामिल हैं हीकम्युनिस्ट भी रंगे हाथों पकडे गए हैं . सबको मालूम है कि जब राजा की चोरी पकड़ी जाती है तो उससके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती हमने देखा है कि  जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था . ऐसे मामले दफन होते  हैं तो हो जाएँ लेकिन सूचना पब्लिक डोमेन में आयेगी तो अपना काम करेगी ,जनमत बनायेगी .
वेब पत्रकारिता की ताकत बढ़ जाने के कारण मेरा विश्वास है कि आज पत्रकारीय का स्वर्ण युग है . बस इस क्रान्ति में शामिल हो जाने की ज़रूरत है . अपनी  नौकरी के साथ साथ सूचनाक्रांति के महारथी बनने का   विकल्प  आज के पत्रकार के पास है . और विकल्प उपलब्ध हो तो उससे बड़ी आज़ादी कोई नहीं होती ..

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