Tuesday, February 6, 2018

दंगे पर फ़ौरन क़ाबू न किया गया तो पूंजी निवेश को ज़बरदस्त झटका लगेगा



शेष नारायण सिंह 


उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में  दो गुटों में हुई मुठभेड़ साम्प्रदायिक दंगे की शक्ल ले चुकी है . देश प्रेम ,तिरंगा, झंडा फहराने का अधिकार  और  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे विषय भी  झगडे के बीच मुद्दा बनने की होड़ में हैं . किसी भी तरह का दंगा समाज के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा होता है . यह एक राष्ट्र के रूप में हम सबके लिए चिंता की बात  होती है. खासकर  तब ,  जबकि  देश में औद्योगिक विकास के लिए ज़बरदस्त मुहिम चल रही है और प्रधानमंत्री ने सारी दुनिया के सामने यह बात सिद्ध कर दी है कि  देश के नौजवानों को  रोज़गार देने में निजी उद्योग के विकास की सबसे अहम भूमिका है . देश  भर में उद्योगों को जाल बिछाया जाना है और उसके लिए विदेशी पूंजी की भी बड़ी भूमिका  होगी . इस माहौल  में अगर देश में दंगे भड़कते हैं तो औद्योगिक विकास में बाधा आयेगी क्योंकि कोई भी उद्यमी अशांति के माहौल में कारोबार शुरू नहीं करेगा .इस तरह से दंगा करने वाले प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री को अपना लक्ष्य हासिल करने से रोक रहे  हैं .

अपने देश में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरुआत योजनाबद्ध तरीके से महात्मा गांधी के १९२० के आन्दोलन के बाद से मानी जाती है. जब अंग्रेजों ने देखा कि महात्मा गांधी की अगुवाई में पूरे देश के हिन्दू और मुसलमान एक हो गए हैं ,तो उनको अपनी हुकूमत के भविष्य के बारे में चिंता होने लगी. उसके बाद से ही अंग्रेजों ने दंगों के बारे में एक विस्तृत रणनीति बनाई और संगठित तरीके से देश में दंगों का आयोजन होने लगा .अब तक के दंगों के इतिहास और उसकी राजनीति को समझने  के लिए माना जाता रहा है कि शासक वर्ग अपने राजनीतिक हितों की साधना के लिए दंगे करवाते हैं . लेकिन अब साम्प्रदायिक झगड़ों को समझने के विमर्श में एक नया  सिद्धांत बौद्धिक स्तर पर चर्चा  में है . बताया  गया है कि साम्प्रदायक दंगों की शुरुआत कोई न कोई व्यापारी करवाता  है और बाद में उसको राजनेताधार्मिक नेता या सामाजिक समूह अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है .  डॉ अनिरबान मित्रा और प्रोफेसर देबराज रे ने इस नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया है . " इम्प्लीकेशंस ऑफ ऐन इकानामिक थियरी ऑफ कानफ्लिक्ट: हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन इण्डिया " शीर्षक वाला यह शोध पत्र  जब दुनिया  भर में अति सम्माननीय पत्रिका ," जर्नल आफ पोलिटिकल इकानामी " में जब अगस्त 2014 में छपा तो  यह  दंगे की राजनीति को समझने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है .


अब मुल्कों में जंग नहीं होती। अब एक ही मुल्क के लोग आपस में कट मरते हैं। ,पाकिस्तान,सीरिया और इराक में चल रही लड़ाइयां इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं। इन देशों में भयानक संघर्ष की स्थिति है .इस संघर्ष में शामिल हर शख्स मुसलमान है। कोई राजा है तो कोई राजा बनने के लिए लड़ रहा है। जो हैरानी की बात है वह यह है कि पश्चिम एशिया में सत्ता पर कब्जा करने की जो जद्दोजहद चल रही हैउस हर लड़ाई में खून इंसान का बह रहा हैआम आदमी का बह रहा हैऐसे लोगों का खून बह रहा है जिनको इस लड़ाई में या तो मौत मिलेगी या गरीबी। लड़ाई की अगुवाई करने वालों को राज मिलेगावे जिसकी कठपुतलियां हैं उनको आर्थिक लाभ होगाअमेरिका और रूस इस इलाके में हो रही लड़ाई में अपने-अपने हित साध रहे हैंउनकी कठपुतलियां पूरे अरब को रौंद रही हैंऔर आम आदमी की जिंदगी तबाह कर रही हैं और अपने देश का मुस्तकबिल उन्हीं ताकतों के हवाले कर रही हैं जिन्होंने पूरी अरब दुनियां को आज से सौ साल पहले टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। विश्वयुद्ध के प्रमुख कारणों में से एक अरब इलाकों में मिले तेल पर कब्जा करना भी था।


भारत में भी स्वार्थी राजनेताओं ने 1940 के दशक में इसी तरह के धर्म आधारित खूनी संघर्ष की बुनियाद रख दी थी। जब अंग्रेजों की समझ में आ गया कि अब इस देश में उनकी हुकूमत के अंतिम दिन आ गए हैं तो उन्होंने मुल्क को तोड़ देने की अपनी प्लान बी पर काम शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1947 में जब आजादी मिली तो एक नहीं दो आजादियां मिलींभारत के दो टुकड़े हो चुके थेसाम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबे पूरे हो चुके थे लेकिन सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों परिवार थे जिनका सब कुछ लुट चुका था।  भारत और पाकिस्तान आजाद हो गए थे। दोनों ही देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के नक्शेकदम पर राज करने की सौगंध खा चुके लोग नए शासक वर्ग बन चुके थेदोनों ही देशों में ऐसी अर्थव्यवस्था की बुनियाद डाल दी गई थी जिसमें आम आदमी की हिस्सेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों को सरकार सौंप देने भर की थी। लेकिन जो हिंसक अभियान शुरू हुआ उसको अब बाकायदा  संस्थागत रूप दिया  जा चुका है। भारत की आजादी के पहले हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसने हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास का ऐसा बीज बो दिया था जो आज बड़ा पेड़ बन चुका है और अब उसके जहर से समाज के कई स्तरों पर नासूर विकसित हो रहा है। भारत की राजनीतिकसामाजिक और सांस्कृतिक जिंदगी में अब दंगे स्थायी भाव बन चुके हैं। आजादी के बाद से भारत में बहुत सारे दंगे हुए। अधिकतर दंगों के आयोजकों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदायों का धु्रवीकरण रहा है।  देखा यह गया है कि भारत में अधिकतर दंगे चुनावों के कुछ पहले सत्ता को ध्यान में रख कर करवाए जाते हैं। विख्यात भारतविद् पॉल ब्रास ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ''द प्रोडक्शन ऑफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्परेरी इण्डिया" में दंगों का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने साफ कहा है कि हर दंगे में जो मुकामी नेता सक्रिय होता हैदोनों ही समुदायों में उसकी इच्छा राजनीतिक शक्ति हासिल करने की होती है लेकिन उसको जो ताकत मिलती है वह स्थानीय स्तर पर ही होती है।  उसके ऊपर भी राजनेता होते हैं जो साफ नज़र नहीं आते लेकिन वे बड़ा खेल कर रहे होते हैं। अपनी किताब में पॉल ब्रास ने यह बात बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि भारत में दंगे राजनीतिक कारणों से होते हैंहालांकि उसका असर आर्थिक भी होता है लेकिन हर दंगे में मूलरूप से राजनेताओं का हाथ होता है।  पॉल ब्रास की अॅथारिटी को चुनौती देना मेरा मकसद नहीं है। आम तौर पर माना जाता है कि वे इस विषय के सबसे गंभीर आचार्य हैं। हिन्दू मुस्लिम संबंधों और झगड़ों पर ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्षणेय ने  भी बहुत गंभीर काम किया है,उनके विमर्श में पॉल ब्रास की बहुत सारी स्थापनाओं को चुनौती दी गई है लेकिन उनके भी निष्कर्ष लगभग वही हैं।

अब तक आमतौर पर यही माना जाता रहा है कि दंगों के पीछे राजनीतिक मकसद ही  होते हैं। लेकिन अब एक नया दृष्टिकोण भी बहस में आ गया है।  डॉ. अनिरबान मित्रा और प्रोफेसर देबराज रे के शोध के बाद दंगों को समझने के अध्ययन में एक नया आयाम जुड़ गया है . डॉ. मित्रा  कहते हैं कि 'राजनीतिशास्त्री और समाजशास्त्री  जातीय हिंसा के बारे में लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन में अक्सर आर्थिक कारणों को अहमियत नहीं दी जाती। हमारा विश्वास है कि इकानामिक थियरी और उसके तरीकों से संघर्ष को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।'  इस पर्चे के अनुसार भारत के कई इलाकों में धर्म का इस्तेमाल आर्थिक सम्पन्नता के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए कोई आदमी अपने जिले में कोई सामान बेचता है। अक्सर उसके मुकाबले में और लोग भी वही सामान या वही सेवाएं बेचने लगते हैं। अगर  वह कारोबारी मुसलमान है तो अपनी बिरादरी वालों को इकट्ठा करके दंगे की हालात पैदा कर देता है और अगर हिन्दू है तो वह मुसलमानों के खिलाफ लोगों  को भड़काता है। यह  व्यापारी किसी धर्म के मानने वालों से नफरत नहीं करतेबस कम्पीटीशन को खत्म करने के लिए सारा सरंजाम करते हैं और उनको उसका फायदा भी होता है। 

इस रिसर्च में 1950 से 2000 के बीच के दंगों के भारत सरकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। इस दौर में उन सभी लोगों के केस जांचे गए हैं जिनको दंगों के दौरान चोट लगी या जो घायल हुए। घरेलू खर्च के सरकारी सर्वे के आंकड़े भी इस्तेमाल किए गए है। शोध के नतीजे निश्चित रूप से एक नई समझ की तरफ संकेत  करते हैं। दंगे के अर्थशास्त्र को एक नया आयाम दे दिया गया है। बताया गया है कि दंगों में सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमानों को होती है। लिखते हैं, ''एक साफ पैटर्न नजर आता है। जब मुसलमानों की सम्पन्नता बढ़ती हैउसके अगले साल और बाद के वर्षों में धार्मिक संघर्ष बढ़ जाता है।"  देखा यह गया है कि अगर मुसलमानों की खर्च करने की क्षमता में एक प्रतिशत की वृद्धि होती है तो उस इलाके में हिंसक दंगों में पांच प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। लेकिन हिन्दुओं के मामले में यह बिल्कुल उलटा है। अगर हिन्दू सम्पन्न होते हैं तो उनके खिलाफ कोई दंगा नहीं होता। इस रिसर्च के पहले भी ऐसी बहुत सारी  किताबें आई हैं जिनके अनुसार दंगों का कारण आर्थिक भी  होता है लेकिन अभी तक ऐसी कोई किताब या कोई सिद्धांत नहीं आया है जिसमें यह देखा जा सके कि दंगों में एक निश्चित आर्थिक पैटर्न होता है। इस शोध में यही बात जोर देकर कही गई है।

जाहिर है कि दंगों के मुख्य कारणों में आर्थिक मुद्दों को शामिल करना और राजनीतिक लाभ को उसका बाई प्रॉडक्ट मानना एक नई बात है और इससे विवाद पैदा होगा लेकिन यह भी सच है जब भी कोई नया सिद्धांत आता है तो जिन लोगों की बुद्धिमत्ता को चुनौती मिल रही होती है उनको चिंता होती है। जर्नल ऑफ पोलिटिकल इकानामी  जैसी सम्माननीय  शोष पत्रिका में इस शोध पत्र के छपने के बाद बहस की शुरुआत हो गयी थी ,कई लोग इसको खारिज भी कर रहे हैं . अब  संघर्ष और वैमनस्य के अध्येता मानने लगे हैं कि  हिन्दू-मुस्लिम झगडे आर्थिक लाभ के लिए ही किये  जाते हैं .कई बार लूट ही उद्देश्य होता है लेकिन अक्सर संसाधनों पर कब्जा , ख़ास उद्योग से किसी को बाहर करना ,प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करना आदि होता . राजनीतिक लाभ तो नेता लोग ऐसी हालात से निकाल ही लेते हैं लेकिन मुख्य प्रेरणा आर्थिक ही होती है . आर्थिक कारणों से दंगों
को हवा देने वाले नज़र नहीं आते . लेकिन वे अपने मुकामी स्वार्थ के लिए दंगों को बढाते हैं और अपने विरोधी कारोबारी के काम का एक हिस्सा झटकने के चक्कर में रहते हैं. यह भी सच है कि उनके स्वार्थ के चलते पूरे देश में पूंजी निवेश का माहौल खराब होता है. इसलिए सरकार को चाहिए कि अगर देश में नए उद्योग लगाकर नौजवानों को रोज़गार देना है तो किसी भी तरह के दंगे पर फ़ौरन रोक लगाई जानी चाहिए

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