Friday, October 27, 2017

अमरीकी हितों का चौकीदार नहीं अपने राष्ट्रहित का निगहबान बनने की ज़रूरत है


शेष नारायण सिंह


डोनाल्ड ट्रंप के राष्टपति बनने के बाद अमरीकी विदेशनीति में भारत के प्रति एक नया नजरिया साफ़ नज़र आने लगा है . एशिया में उनकी प्राथमिकताएं कई स्तर पर बदल रही हैं . आजकल अमरीकी राष्ट्रपति को उत्तर कोरिया के तानाशाह से ख़ास दिक्क़त है . उसको कमज़ोर करने के लिए डोनाल्ड ट्रंप तरह तरह की तरकीबें तलाश रहे हैं . उत्तर कोरिया ने ऐलानियाँ अमरीका के खिलाफ ज़बानी जंग का मोर्चा खोल रखा है. उसके पास परमाणु बम साहित अन्य बहुत से घातक हथियार हैं जिनको वह अमरीका, दक्षिण कोरिया और जापान के खिलाफ इस्तेमाल करने की धमकी देता रहता है . उसको रोकने के लिए अमरीका को इस क्षेत्र में सैनिक सहयोगी चाहिए. भारत की यात्रा पर  आये  अमरीकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने विदेशमंत्री सुषमा स्वराज से इस बारे में बात की . लेकिन सुषमा स्वराज ने अमरीकी हितों का हवाला देते हुए कहा कि उत्तर कोरिया से संवाद बनाये रखने के लिए अमरीका को चाहिए कि अपने मित्र देशों को वहां दूतावास आदि बनाए रखने दे.
इस इलाके में अमरीकी विदेशनीति को ईरान से भी परेशानी है क्योंकि वह उसकी मनमानी को स्वीकार नहीं करता लेकिन ट्रंप को इरान से वह दिक्क़त नहीं है जो उत्तर कोरिया से है . लिहाजा उस मुद्दे पार वह उतनी सख्ती से बात नहीं कर रहा है . उत्तर कोरिया के  खिलाफ  भारत को नया रंगरूट बनाने की कोशिश में अमरीका भारत को तरह तरह के लालच दे रहा है . भारत की  मौजूदा सरकार के अधिक से अधिक आधुनिक हथियार हासिल करने के शौक़ को भी अमरीका संबोधित कर रहा है . अब तक तो केवल हथियार बेचने की बात होती थी लेकिन भारतीय विदेशमंत्री  सुषमा स्वराज से बातचीत के दौरान इस बार रेक्स टिलरसन ने  वायदा किया कि वह भारत को हथियार बनाने की टेक्नालोजी  भी देने को तैयार है . यह एक बड़ा परिवर्तन है . अमरीकी विदेशमंत्री नई दिल्ली पंहुचने के पहले इस्लामाबाद  भी एक दिन के लिए गए थे . वहां उन्होंने आतंकवादियों को पाकिस्तान में सुरक्षित ठिकाने देने के मुद्दे को उठाया था लेकिन पाकिस्तानी सरकार ने उनकी हर बात मानने से इनकार कर दिया .बातचीत के बारे में पाकिस्तानी विदेशमंत्री ख्वाजा आसिफ ने अपनी सेनेट को बताया कि  ' अगर अमरीका चाहता  है कि पाकिस्तान की सेना अफगानिस्तान में अमरीकी प्राक्सी के रूप में काम करे तो यह पाकिस्तान को मंज़ूर नहीं है.हम ( पाकिस्तान ) अपनी संप्रभुता और गरिमा पर समझौता नहीं करेंगें .अमरीका से पकिस्तान के रिश्ते आत्मसम्मान के आधार पर ही  रहेंगे ' . कूटनीति की इस भाषा का मतलब  यह  है कि  पाकिस्तान, जो पिछले पचास साल से इस क्षेत्र में  अमरीका का कारिन्दा हुआ करता था ,  अब अपने को उस भूमिका से साफ़ साफ़ अलग कर चुका  है . पाकिस्तान-चीन-इरान की नई धुरी का विकास हो रहा  है . इस बात की   संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह दोस्ती अमरीका के खिलाफ भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल हो सकेगी .
क्प्प्तनीतिक भाषा में अमरीका अभी भी पाकिस्तान को अपना करीबी सहयोगी बताता  है लेकिन भारत से बढ़ रही दोस्ती के  मद्दे-नज़र यह  असंभव है कि अब पाकिस्तान में अमरीका का वह मुकाम होगा जो पहले हुआ  करता था. पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया उल हक के दौर में तो अमरीका ने  अफगानिस्तान में मौजूद सोवियत सेना से लड़ाई ही पाकिस्तानी  सरज़मीन से उसके कंधे पर बन्दूक रख कर लड़ी  थी. लेकिन अब वह बात नहीं है . अब  पाकिस्तान में अमरीका-भारत दोस्ती को शक की नज़र से  देखा जाता है और भारत के किसी भी दोस्त से  पाकिस्तान  गंभीर सम्बन्ध बनाने के बारे में कभी नहीं  सोचता .
ताज़ा स्थिति यह है कि एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में अमरीका भारत से सैनिक और आर्थिक सहयोग  बढाने के चक्कर में है . सुषमा स्वराज  से बातचीत के बाद अमरीकी विदेशमंत्री ने कहा कि  अमरीका एक अग्रणी शक्ति के रूप में भारत के उदय को समर्थन करता है और इस क्षेत्र में  भारत की सुरक्षा क्षमताओं की वृद्धि में सहयोग करता रहेगा ." इसी सन्दर्भ में हथियारों के लिए   आधुनिक टेक्नोलाजी देने की बात की गयी है . पाकिस्तान में मौजूद आतंकी संगठनों को लगाम लगाने की बात अमरीका बहुत पहले से करता रहा  है . इस बार भी इस्लामाबाद में अमरीकी विदेशमंत्री ने यह बातें दुहराई . अमरीका की यह बात भारत के लिए किसी संगीत से कम नहीं है . पाकिस्तान के विदेशमंत्री  के बयान और पाकिस्तानी अखबारों में छपी  रेक्स टिलरसन की यात्रा की ख़बरों से साफ़ जाहिर है कि अमरीका अब पाकिस्तान से दूरी बनाने की कोशीश कर रहा  है . लेकिन इस सारे घटनाक्रम का एक नतीजा यह भी है कि शीत युद्ध का नया संस्करण भारत के बिलकुल  पड़ोस में आ गया है और अमरीका अब नई शक्ति चीन के खिलाफ नई धुरी बनने की कोशिश कर रहा है . हालांकि यह भी सच है कि अमरीका  अभी तक चीन को एक मज़बूत क्षेत्रीय शक्ति से ज्यादा की मान्यता नहीं देता है
 साफ़ ज़ाहिर है कि अमरीका अब इस इलाके में नए दोस्त तलाश रहा है . भारत की तारफ अमरीका के बढ़ रहे  हाथ को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए .भारत को अमरीका का सामरिक सहयोगी बनाने  के गंभीर प्रयास बराक ओबामा के कार्यकाल में ही शुरू हो गये थे .उनकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने बार बार दावा  किया था कि भारत के साथ जो परमाणु समझौता हुआ है वह एक सामरिक संधि की दिशा में अहम् क़दम है .अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं.इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.
अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़तवर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेशनीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. इरान के शाहरजा पहलवी ,पश्चिम एशिया में अमरीकी विदेशनीति के लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने अफगानिस्तान को रौंद डाला वहीं ओसामा बिन लादेन अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानता है उसी के बल पर अमरीकी विदेशनीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत इंटरप्राइज़से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेशनीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलायाउसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . 
वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहाँ  तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेशनीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं . अमरीकी सरकार में इस क्षेत्र अमरीका में चीन की बढ़ रही ताक़त से चिंता है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मद्देनज़र ,अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती है . भारत में राजनीतिक माहौल आजकल अमरीका प्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही कांग्रेस  का अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए यह कितना सही होगा यह वक़्त ही बताएगा . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करतावह तो बस देशों को अपने राष्ट्रहित में इस्तेमाल करता है. इसलिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्रहित के बजाय अपने राष्ट्रहित को ध्यान में रख कर  काम करें और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इसलिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनने के साथ साथ  भारत सरकार को अपने राष्ट्र हित  का ध्यान अवश्य रखना चाहिए .

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